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क्या राजस्थान में रोटी पलटने का सिलसिला जारी रहेगा?

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योगेंद्र यादव/ श्रेयस सरदेसाई

राजस्थान का चुनावी मुकाबला कुछ वैसा ही है जैसे अंतिम ओवर तक सांस रोककर नतीजे के इंतजार के लिए मजबूर कर देने वाला कोई रोमांचकारी क्रिकेट मैच होता है. लेकिन, राजस्थान के ऐसे रोमांचकारी चुनावी मुकाबले के बारे में एक बात निश्चित तौर पर कही जा सकती है अगर मतदाताओं ने सूबे की सरकार के कामकाज को ध्यान में रखकर वोट दिया तो फिर कांग्रेस तीन दशकों से ब्रह्म-लेख की तरह अमिट बने चले आ रहे इस नियम को तोड़ सकती है कि राजस्थान में किसी भी सरकार को सत्ता में दोबारा आने का मौका नहीं मिलता. मगर मतदाताओं के मिजाज पर निहायत मुकामी किस्म के सरोकार हावी रहे तो फिर सरकार भाजपा की बनेगी. जनादेश क्या रहने वाला है, ये बताने के बजाय वक्त के इस मुकाम पर यही कहना ठीक होगा कि जनादेश क्या नहीं होने जा रहा. जीत वैसी धमाकेदार नहीं होने जा रही जैसी कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उनकी सरकार की लोकप्रियता को देखते हुए सोची जा सकती है. और, ना ही वैसी धोबिया-पछाड़ हार होने जा रही है जैसी कि कांग्रेस को अपने पिछले दो कार्यकाल के बाद झेलनी पड़ी थी.

इस चुनाव का कोई भी गंभीर विश्लेषण यह स्वीकार करते हुए ही किया जा सकता है कि राज्य-सरकार के खिलाफ कोई सत्ता-विरोधी माहौल नहीं है. राजस्थान के किसी भी हिस्से में घूमने निकला कोई मौसमी मुसाफिर भी इस सच्चाई को भांप सकता है. बीजेपी के परंपरागत वोटर भी आपको पहले यही बताएंगे कि: “काम तो किया है (अशोक गहलोत सरकार ने)” और इसके बाद उसी सुर में ये भी जोड़ते मिलेंगे “ लेकिन राजस्थान में सरकार तो पलटेगी ”. इक्का-दुक्का शायद ही कोई मिलेगा जो अशोक गहलोत की बुराई करता हो. सूबे में उनकी साख एक भरोसेमंद और जन-हितैषी नेता की है. सचिन पायलट के साथ मुख्यमंत्री की प्रतिस्पर्धा की बात सूबे के लोगों के मन में खास अहमियत नहीं रखती.

आंकड़े गवाह हैं

जनमत सर्वेक्षण के तथ्य इस बात की पुष्टि करते हैं. सीएसडीएस और सी-वोटर के हाल के दो सर्वेक्षणों (दोनों ही में बीजेपी को चुनावी दौड़ में आगे बताया गया है) में कहा गया है कि 10 में से 7 उत्तरदाता गहलोत सरकार के कामकाज से संतुष्ट हैं. सीएसडीएस – लोकनीति की वेबसाइट पर मौजूद पिछले आंकड़ों से मिलान करके कहा जा सकता है कि गहलोत सरकार की रेटिंग सूबे में बनी पिछली सरकारों की तुलना में सबसे अच्छी है. अक्टूबर माह के आखिर के दिनों में हुए सीएसडीएस के सर्वे में उत्तरदाताओं की एक बड़ी तादाद(71 प्रतिशत) ने कहा कि हम लोग गहलोत सरकार से संतुष्ट (पूरी तरह या थोड़ा-बहुत) हैं जबकि 24 प्रतिशत की तादाद में उत्तरदाताओं का कहना था कि हम गहलोत सरकार से पूरी तरह या थोड़ा-बहुत असंतुष्ट हैं. जरा इस तथ्य की तुलना करें बीते वक्त यानी 2018 में वसुंधरा राजे की रेटिंग से : तब 52 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने वसुंधरा राजे की सरकार के प्रति संतोष का इजहार किया था जबकि 46 प्रतिशत का कहना था कि हम इस सरकार के कामकाज से संतुष्ट नहीं हैं.

अगर हम जरा और गहराई गहराई में जाकर देखें और `निवल संतुष्टी` (नेट सैटिस्फैक्शन) यानी पूरी तरह से संतुष्ट कुल उत्तरदाताओं और पूरी तरह से असंतुष्ट कुल उत्तरदाताओं की संख्या का अन्तर जैसे बारीक संकेत को ध्यान में रखकर बात करें तो वसुंधरा राजे सरकार की तुलना में गहलोत सरकार की लोकप्रियता और भी ज्यादा खुलकर सामने आती है : नेट सेटिस्फेक्शन के पैमाने पर गहलोत सरकार +29 प्रतिशत अंकों से आगे है (मतलब, खुद को गहलोत सरकार से पूरी तरह संतुष्ट बताने वाले कुल 43 प्रतिशत उत्तरदाता तथा खुद को पूरी तरह असंतुष्ट बताने वाले कुल 14 प्रतिशत उत्तरदाताओं के बीच का अंतर) जबकि वसुंधरा राजे सरकार नेट सैटिस्फैक्शन के पैमाने पर -3 अंकों के साथ पीछे ठहरती है.

टेबल-1 में दिखाया गया है कि गहलोत सरकार की रेटिंग 2013 तथा 2003 की उनकी अपनी ही सरकार, साल 2008 की वसुंधरा राजे की सरकार और यहां तक कि 1998 की भैरोसिंह शेखावत की सरकार से भी बेहतर है.

ऊपर के आकलन की पुष्टी तालिका-2 के तथ्यों से भी होती है जिसमें दिखाया गया है कि उत्तरदाताओं ने गहलोत सरकार के कामकाज से किस पहलू को कितना बेहतर माना है. अगर तालिका में दर्ज तमाम मदों में अपवाद-स्वरूप एक मद `सड़कों की हालत` को छोड़ दें तो बाकी सब में मौजूदा सरकार पिछली बीजेपी की सरकार की तुलना में उत्तरदाताओं की नजर में बेहतर ठहरती है.

दरअसल, गहलोत सरकार हाल के समय में मतदाताओं की नजर में सबसे बेहतर मानी गई मौजूदा राज्य सरकारों में दूसरे नंबर पर है. साल 2019 से अब तक कुल 14 विधानसभा चुनावों के सीएसडीएस के सर्वे में सिर्फ एक ही विधान-सभा चुनाव ऐसा रहा जिसमें सत्तासीन सरकार से खुद को पूरी तरह से संतुष्ट बताने वाले उत्तरदाताओं की संख्या 52 प्रतिशत थी. यह सर्वेक्षण साल 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव से संबंधित है. राजस्थान की मौजूदा गहलोत सरकार की रेटिंग बस इसी आंकड़े से कम ( 43 प्रतिशत उत्तरदाता पूरी तरह से संतुष्ट) है. गहलोत सरकार की रेटिंग अन्य राज्यों जैसे केरल, उत्तरप्रदेश, गुजरात और पश्चिम बंगाल में चुनकर दोबारा सत्ता में आयी सरकारों से बेहतर है.

कामकाज का बेहतरीन रिकॉर्ड

यह धारणा निराधार नहीं. बीते दो सालों में गहलोत सरकार ने कई लोक कल्याणकारी और नीतिगत पहल की शुरूआत की है जो पूरे देश में अग्रणी बनकर उभरे हैं. इसमें प्रति माह घरेलू उपभोग की 100 यूनिट मुफ्त बिजली, किसानों के लिए 2000 यूनिट तक मुफ्त बिजली, 500 रुपये के अनुदानित मूल्य पर रसोई गैस सिलेंडर, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के लाभार्थियों के लिए राशन-पैकेट (दाल, मसाला, रसोई गैस तथा चीनी सहित), महिलाओं के लिए मुफ्त स्मार्टफोन, ग्रामीण तथा शहरी रोजगार गारंटी योजना के तहत काम, 1000 रुपये प्रतिमाह का वृद्धावस्था पेंशन, पशु बीमा योजना, तथा 10 लाख रुपये की दुर्घटना बीमा सुरक्षा जैसी पहल प्रमुख हैं. इसी कड़ी में चिरंजीवी स्वास्थ्य बीमा योजना भी शामिल है जिसके तहत प्रति परिवार 25 लाख रुपये सालाना की स्वास्थ्य बीमा सुरक्षा मुहैया करायी जाती है. इस योजना को सेहत का अधिकार अधिनियम का सहारा हासिल है और कोविड महामारी के दौरान इस योजना का रिकॉर्ड  बहुत अच्छा रहा, खासकर भीलवाड़ा मॉडल का.

सरकार ने इस साल (2023) मार्च के महीने में कई नये जिलों का गठन किया और राजस्थान में जिलों की संख्या 31 से बढ़कर 53 हो गई. बीते वक्त के विपरीत इस बार गहलोत सरकार ने सुनिश्चित किया कि इन नीतिगत कदमों का अच्छा प्रचार-प्रसार हो और बड़ी चतुराई से इन पहलों को पूरे राजस्थान में अप्रैल माह से शुरू किये गये महंगाई राहत कैंप के साथ जोड़ दिया गया है.

जाहिर है, जिस सरकार के कामकाज का रिकॉर्ड और लोकप्रियता इतनी अच्छी हो उसे चुनाव में हारना नहीं चाहिए, बशर्ते लोग सरकार के कामकाज को ध्यान में रखकर वोट डालें. लेकिन राजस्थान में यही सवाल फिलहाल लाख टके का है. इस बार लड़ाई का मैदान दोहरा है- मुकाबला स्थानीय स्तर का ही नहीं बल्कि केंद्रीय स्तर का भी है और ऐसा मुकाबला राजस्थान में कांग्रेस के सामने गंभीर चुनौती खड़ी कर सकता है. लोकनीति-सीएसडीएस सर्वे के अनुसार 55 प्रतिशत उत्तरदाता केंद्र की मोदी सरकार से पूरी तरह संतुष्ट हैं. यह तादाद गहलोत सरकार से पूरी तरह संतुष्ट उत्तरदाताओं से 12 अंक ज्यादा है.  फिर भी, बीजेपी 2013 की तरह इस बार राजस्थान में चुनाव का माहौल इस तरह बदलने में कामयाब नहीं हो पाई है मानो चुनाव नहीं मोदी सरकार को लेकर कोई जनमत-संग्रह होने जा रहा हो.

चुनाव के स्थानीय होने का घाटा कांग्रेस को

कांग्रेस के सामने एक बड़ी चुनौती चुनाव के अत्यधिक स्थानीय रंगत पकड़ने की संभावनाओं से है. हर कोई मानता है कि सत्ताधारी पार्टी के विधायकों को लेकर सत्ता-विरोधी रूख प्रबल चला आ रहा है. लेकिन मुख्यमंत्री ने पार्टी के मौजूदा विधायकों में से 80 प्रतिशत को चुनावी मैदान में उतार दिया है. ऐसा शायद उन्होंने ये सोचकर किया कि सचिन पायलट के बगावत के दिनों में इन विधायकों ने उनका साथ दिया तो उन्हें निष्ठावान रहने के लिए कुछ इनाम दिया जाये. ऐसा करने से मुख्यमंत्री (गहलोत) पार्टी के दमदार बागियों की तादाद को 15 तक सीमित करने में कामयाब हुए हैं जो पिछली बार के 28 बागियों की तादाद से तथा इस बार बीजेपी से बगावत करने वाले 28 विधायकों की तादाद से कम है.

चुनाव के स्थानीय रंग पकड़ने का कांग्रेस को कई तरह से नुकसान है. अगर मतदाता सत्ताधारी पार्टी के विधायक के कामकाज को ध्यान में रखकर वोट डालता है तो कांग्रेस को इसका नुकसान उठाना पड़ेगा. अगर मतदाता ने जाति-समुदाय को ध्यान में रखकर वोट डाला तो फिर पूरे सूबे भर में सामाजिक रूप से वंचित जन को केंद्र में रखकर गठबंधन कायम करने के पार्टी के प्रयासों को धक्का लगेगा. लोकनीति-सीएसडीएस के सर्वे से पता चलता है कि दलित तथा आदिवासी समुदाय के मतदाताओं के बीच चली आ रही कांग्रेस की परंपरागत मजबूत पकड़ इस बार ढीली है जबकि इस समुदाय के मतदाता कांग्रेस के बनाये सामाजिक गठबंधन के लिहाज से निर्णायक हैं.

चुनावों के मुकामी रंगत पकड़ने पर मुकाबले में उतरे छोटे खिलाड़ी अहम हो जाते हैं. हालांकि राजस्थान में चुनावी मुकाबला हमेशा दो-ध्रुवीय रहता आया है लेकिन एक साथ जोड़कर देखें तो कांग्रेस और बीजेपी का वोट शेयर सूबे के पिछले छह विधानसभा चुनावों में कभी भी 80 प्रतिशत से ज्यादा नहीं रहा. छोटी पार्टियों और स्वतंत्र उम्मीदवारों के खीसे में 20-30 प्रतिशत वोट गये हैं. साल 2018 में गैर-कांग्रेसी तथा गैर-भाजपाई उम्मीदवारों ने कुल मिलाकर 27 सीटें जीत ली थीं और मुकाबले की कुल 69 सीटें ऐसी थीं जिन पर वोटशेयर के लिहाज से अहम कही जा सकने वाली पार्टियों की संख्या तीन या इससे ज्यादा थीं. इस बार भी कम से कम एक तिहाई सीटों पर मुकाबला त्रिकोणीय या बहुकोणीय जान पड़ता है.

इस नाते बागियों को प्रबंधन-कौशल से अपनी पहुंच में रखना और मुकाबले की छोटी ताकतों के साथ गठबंधन कायम करना अहम है. इस बार कांग्रेस भारतीय आदिवासी पार्टी के साथ गठजोड़ कायम कर सकती थी. यह पार्टी उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा तथा प्रतापगढ़ जिले की कम से कम 17 सीटों पर मुकाबले की अहम खिलाड़ी है. इसी तरह कांग्रेस गंगानगर, हनुमानगढ़, चुरू तथा सीकर यानी सूबे की उत्तर-पूर्वी पट्टी के लिहाज से कम से कम 10 सीटों पर अहम  सीपीआई(एम) के साथ गठजोड़ कर सकती थी. लेकिन गहलोत का जोर पार्टी में अंदरूनी तालमेल बैठाने पर ज्यादा रहा सो यह निर्णय गठजोड़ बनाने की गुंजाइश ही नहीं रही.
बीजेपी फायदे में

चुनावों के मुकामी रंगत पकड़ने के अलावे दो ऐसी ढांचागत चीजें हैं जो चुनावी मुकाबले में गहलोत सरकार के आड़े आ रही हैं. एक तो यही बात कि सूबे में हर पांच साल के बाद सत्ता दूसरी पार्टी के हाथ लगती है और दूसरी बात ये कि सांगठनिक लिहाज से बीजेपी का पलड़ा कांग्रेस पर भारी है. सूबे में बीते 20 सालों में जब भी बीजेपी हारी है( यानी साल 2008 तथा 2018), उसे करारी हार नहीं झेलनी पड़ी जबकि जिन दो दफे बीजेपी को जीत मिली(यानी 2003 तथा 2013 में) तो ये जीत अपनी रंगत में जोरदार रही. कांग्रेस के लिए मामला इसके उलट रहा. पार्टी जैसे-तैसे के भाव से जीती मगर हार उसे करारी झेलनी पड़ी. इस लिहाज से मुकाबले के मैदान में बीजेपी कांग्रेस से आगे जान पड़ती है.

ये तमाम चीजें बीजेपी के फायदे में जायेंगी हालांकि विपक्षी पार्टी के रूप में उसके पास लोगों को दिखाने के लिए ज्यादा कुछ नहीं है. बीजेपी ने परीक्षा-प्रश्नपत्रों के लीक होने और बेरोजगारी की दर के ऊंचा होने जैसे मुद्दे उठाये हैं तथा गहलोत सरकार पर आरोप मढ़ा है वह गुंडागर्दी को बढ़ावा दे रही है जिससे महिलाओं के लिए माहौल असुरक्षित हो रहा है. सीएसडीएस के सर्वे में बीजेपी को युवा-जन तथा महिलाओं की बीच बढ़त साफ दिख रही है. लेकिन बीजेपी चुनावी मुकाबले के मैदान में मुख्यमंत्री के पद के लिए कोई चेहरा पेश कर पाने में नाकाम रही है क्योंकि पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व वसुंधरा राजे को किनारे करना चाहता है.

अपनी हड़बड़ी में पार्टी ने आखिरी लम्हों में ध्रुवीकरण करने की चाल अपनाई है. कुल मिलाकर देखें तो बीजेपी का चुनाव अभियान बिखरा हुआ और बलहीन जान पड़ता है जो कि पार्टी की छवि से मेल नहीं खाता. बीजेपी के समर्थकों से पूछिए कि वे इस बार पार्टी को क्यों वोट देने जा रहे हैं तो बड़ा सपाट सा जवाब मिलता है कि हर पांच साल के बाद सरकार बदलना होता है यहां. कांग्रेस के प्रचार-अभियान का कथानक मजबूत है क्योंकि सूबे में जो लोक-कल्याणकारी योजनाएं चल रही हैं उसके अतिरिक्त पार्टी ने चुनावी गारंटियों के तहत सात वादे और भी किये हैं. पार्टी के चुनावी घोषणापत्र में हर किसी को कुछ ना कुछ देने का वादा किया गया है.

फिर भी सर्वेक्षणों में कांग्रेस की जीत की भविष्यवाणी नहीं मिलती. बीते जुलाई माह से सूबे में कुल 13 जनमत-सर्वेक्षण हुए हैं. इनमें 11 में बीजेपी की जीत की बात कही गई है जबकि केवल दो सर्वेक्षणों मे कांग्रेस की जीत का अनुमान लगाया गया है. ये दो सर्वेक्षण भी उन एजेंसियों के कराये हैं जिनकी कोई खास नाम-पहचान नहीं है. ज्यादातर सर्वेक्षणों में बीजेपी को 3-4 प्रतिशत की बढ़त का अनुमान लगाया गया है. इतना अन्तर सर्वेक्षणों के मार्जिन ऑफ एरर के दायरे में ही है और इस नाते इस अंतराल की भरपाई मुश्किल नहीं, खासकर उन रिपोर्टों को देखते हुए जिनमें कहा जा रहा है कि कांग्रेस चुनाव-प्रचार के आखिरी दौर में उभार पर है. ऐसे में राजस्थान के चुनाव में आगे दर्ज तीन तस्वीरों में से कोई भी एक हमें नतीजों के तौर पर देखने को मिल सकती है एक ये कि बीजेपी को पूर्ण बहुमत मिल जाये, दूसरा यह कि कांग्रेस बहुमत के आंकड़े को छू ले और तीसरा ये कि त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति बने जिसमें 20 फीसद निर्वाचित उम्मीदवार `अन्य` की श्रेणी के हों. अगर त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति बनती है तो एक बार फिर से यह राजनीतिक प्रबंधन के माहिर गहलोत के कौशल के इम्तिहान की घड़ी होगी.

ऐसा होता है तो एक ऐसे चुनाव का समापन नाटकीय ढंग से होगा जिसके चहुंओर अशोक गहलोत की छाप दीख रही है— एक ऐसा चुनाव जिसमें ये साबित करने का आखिरी मौका है कि गहलोत वो नहीं जिसने सरकार तो अच्छी चलायी मगर चुनाव हार गये.

(योगेन्द्र यादव भारत जोड़ो अभियान के राष्ट्रीय संयोजक हैं।.श्रेयस सरदेसाई भारत जोड़ो अभियान से जुड़े एक सर्वेक्षण शोधकर्ता हैं. यहां व्यक्त विचार निजी हैं.)

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