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*तूफ़ान में शब्दों का दिए*

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शशिकांत गुप्ते

किसकी हवा है? हवा रुख क्या है? “राज” नीति के विश्लेषक हवा को पक्ष पाती समझते हैं?
लोकतंत्र का चौथा खंभा, निष्पक्षता का स्वांग रचकर अप्रत्यक्ष रूप से पक्षपाती हवा को हावी करने की ही चेष्ठा करता है। पक्षपात के बावजूद नतीजे उलट जातें हैं,तब शायर ख़ुर्शीद तलब का यह शेर कहता है।
कोई चराग़ जलाता नहीं सलीक़े से
मगर सभी को शिकायत हवा से होती है

उक्त शेर में जो संदेश है,वह उन लोगों के लिए भी हैं,जो लोग महज टाइम पास करने के लिए चार दिवारी में बैठ कर व्यवस्था को कोसते रहते हैं।
जो लोग प्राकृतिक हवा के महत्व को समझते हैं,वे लोग किसी भी तरह वायु प्रदूषण होने ही नहीं देते हैं।
शाब्दिक हवा बनाने की कोई कितनी भी कोशिश करें, लेकिन हवा का रुख बदलने की क़ूवत रखने वालें शायर ख़ुर्शीद तलब रचित इस शेर को ही पढ़ते हैं।
हवा तो है ही मुख़ालिफ़ मुझे डराता है क्या
हवा से पूछ के कोई दिए जलाता है क्या

कोई कितनी भी किसी की झूठी शाब्दिक हवा बनाने के लिए कोशिश करें लेकिन हक़ीक़त को बदल नहीं सकता है।
आज किसी शख्स का स्तुति गान कर उसे शब्दों से कितनी भी बुलंदियो पर पहुंचाया जाए। ऐसे शख्स के लिए शायर ज़ेब ग़ौरी का यह शेर एकदम सटीक है।
लट रही थीं हवाएँ वरक़ वरक़ उस का
लिखी गई थी जो मिट्टी पे वो किताब था वो
मिट्टी का घरौंदा एकदीन ढहना ही है।

अंत शायर अशोक साहिल रचित यह शेर प्रस्तुत है।
जहाँ से तेज हवाओं का आना जाना हैं
नतीजा कुछ भी चराग हमें वहीं जलाना है

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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