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किसानों की तर्ज पर मजदूरों का आंदोलन!

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किसान आंदोलन की आंच को अभी कम करने की कोशिश जारी ही थी कि केंद्र सरकार और बीजेपी के लिए नया मोर्चा खुलने का संकेत दिखने लगा है। यह मोर्चा है कर्मचारी और असंगठित मजदूरों का। अलग-अलग मांगों को लेकर देश के अलग-अलग हिस्सों में हाल के दिनों में इनका विरोध प्रदर्शन हुआ है। 28 नवंबर को मुंबई में मजदूर संगठनों ने एक बड़ी रैली की, जिसका किसान संगठनों ने भी समर्थन किया। साथ ही किसान संगठनों ने एलान किया कि वे मजदूरों के पक्ष में भी लड़ाई लड़ेंगे। दो दिन पहले किसान नेता राकेश टिकैत ने ट्वीट कर कहा, ‘हमने आंदोलन के शुरू में आगाह किया था कि अगला नंबर बैंकों का होगा। नतीजा देखिए, 6 दिसंबर को संसद में सरकारी बैंकों के निजीकरण का बिल पेश होने जा रहा है। निजीकरण के खिलाफ देशभर में साझा आंदोलन की जरूरत है’। दरअसल निजीकरण के खिलाफ देशभर में तमाम सरकारी बैंकों के कर्मचारी 16 और 17 दिसंबर को देशव्यापी हड़ताल करेंगे। यह ट्वीट उसके समर्थन में था।

किसानों ने अपने साल भर के आंदोलन के बाद सरकार से अपनी मांगों को मनवाकर मजदूर संगठनों को भी राह दिखा दी। जबसे सरकार ने तीनों कृषि कानून वापस लिए हैं, तबसे मजदूर संगठन भी आक्रामक दिखने लगे हैं। और अब इनके साथ किसान-मजदूर गठबंधन भी बनने के संकेत हैं। सरकार और बीजेपी के लिए यह गठबंधन सबसे चिंताजनक हो सकता है। जानकारों के अनुसार, बीजेपी को विपक्षी दलों के गठबंधन से अधिक इस गठबंधन की चिंता करनी चाहिए।

लेबर कोड पर रस्साकशी के आसार
दरअसल, कोविड के बाद आर्थिक दिक्कतों के बीच इस तरह की नाराजगी और आंदोलन तमाम देशों में देखे जा रहे हैं। यह तबका भी बहुत बड़ा और निर्णायक माना जाता है, जो सियासत की राहें बदलने की क्षमता रखता है। किसान संगठन अभी भी एमएसपी पर कानून के लिए जमे हुए हैं तो मजदूर संगठनों को सरकार के नए लेबर कोड से दिक्कतें हैं। लेबर कानून भी कोविड की पहली लहर में आर्थिक पैकेज के तहत कृषि कानून की तरह ही केंद्र सरकार ने बनाया था। इसके तहत पहले के 29 लेबर कानूनों को समेटकर और उसमें कुछ महत्वपूर्ण संशोधन कर चार लेबर कोड में बदल दिया गया। श्रम संगठन इन चार में दो लेबर रिफॉर्म से तो सहमत हैं, लेकिन बाकी दो के प्रति उनकी बहुत सारी चिंताएं हैं।

नए कानून के तहत मजदूरों के हड़ताल पर जाने को लेकर तमाम तरह की बंदिशें हैं। इसमें एक अहम बदलाव यह भी है कि कई तरह की फैक्ट्रियों को आवश्यक सेवा में डाल दिया गया, जिससे मजदूरों पर कंपनी के प्रबंधकों का अधिक नियंत्रण आ गया है। एक और बड़े बदलाव के तहत यह व्यवस्था की गई है कि जिन कंपनियों में 300 से कम कर्मचारी हैं, उन्हें बंद करने के लिए सरकार से किसी तरह की पूर्व अनुमति नहीं लेनी होगी। पहले यह सीमा 100 कर्मचारियों तक थी। मजदूर संगठनों का कहना है कि इन दो कानूनों की आड़ में न सिर्फ उनके हितों को मारा जाएगा, बल्कि उनकी नौकरी भी हमेशा असुरक्षित रहेगी। दिलचस्प बात है कि आरएसएस समर्थित भारतीय मजदूर संघ भी इस कानून का विरोध कर रहा है। इस संगठन ने भी सरकार से इस रिफॉर्म पर जल्दबाजी में आगे न बढ़ने का अनुरोध किया है। वहीं मजदूर संगठनों ने संकेत दिया है कि वे आने वाले महीनों में अपना देशव्यापी आंदोलन बढ़ाएंगे। विपक्षी दल भी इन्हें समर्थन दे रहे हैं। ऐसे में अगर आम चुनाव से पहले किसान-मजदूर मिलकर आंदोलन का रास्ता पकड़ेंगे तो सरकार को दिक्कत हो सकती है। यही कारण है कि किसान आंदोलन से सीख लेते हुए सरकार समय रहते चीजों को ठीक करने में जुटी है। सूत्रों के अनुसार लेबर रिफॉर्म पर भी अब सरकार आक्रामक रूप से आगे बढ़ने की हड़बड़ी नहीं दिखाएगी।

अन्ना आंदोलन की कीमत
आंदोलनों के सियासत पर पड़ने वाले असर को अगर देखें तो यूपीए सरकार की जड़ें हिलाने का काम करप्शन के विरुद्ध चले अन्ना आंदोलन ने ही किया था। तब कांग्रेस ने इस आंदोलन को कमतर आंकने की गलती थी जिसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ा। लेकिन बीजेपी पुरानी गलतियों से सीख लेते हुए उस गलती को दोहराना नहीं चाहेगी। बीजेपी के सामने आंदोलन के कारण यूपीए को हुए नुकसान की मिसाल है तो 2004 में शहरी आबादी और मिडिल क्लास को नाराज करने का परिणाम भी वाजपेयी सरकार की हार के रूप में मौजूद है। तब अप्रत्याशित तरीके से एनडीए को शहरी सीटों पर हार झेलनी पड़ी थी। लेकिन सरकार को पता है कि 2024 का आम चुनाव अभी दूर है और आगे कोर्स करेक्शन के कई मौके मिलेंगे। 2019 में भी आम चुनाव से ठीक पहले किसान हों या मिडिल क्लास, सबकी ऐसी ही नाराजगी की बात सामने आई थी। लेकिन मोदी सरकार ने अपने पहले टर्म के अंतिम बजट में किसान सम्मान निधि का एलान करके और इनकम टैक्स की सीमा पांच लाख रुपये बढ़ाकर इन तबकों का व्यापक समर्थन हासिल किया था।

इसके साथ ही मौका आने पर पीएम मोदी चौंकाने वाले फैसले लेने में माहिर हैं। राजनीति के माहिर पीएम मोदी को भी किसान-मजदूर गठबंधन के असर का अंदाजा होगा। इन सबके बीच कांग्रेस को उस तबके में सेंध लगने की उम्मीद दिख रही है जो कुछ सालों में उससे पूरी तरह दूर जा चुका है। कांग्रेस के एक सीनियर नेता ने कहा कि 2024 से पहले किसान और मजदूर का अपनी वाजिब मांगों पर साथ आना देश की राजनीति का एक अहम मोड़ होगा, जो बीजेपी के पतन का कारण बनेगा। लेकिन सबसे बड़ा सवाल है कि जिस तरह अन्ना आंदोलन का बीजेपी ने लाभ उठाया और नरेंद्र मोदी नए नेतृत्व के रूप में उभरे, क्या विपक्ष के पास ऐसी कोई रणनीति होगी? अभी जिस तरह से विपक्षी एकता बेपटरी है और कांग्रेस खुद अंदरूनी राजनीति से घिरी है, ऐसा कुछ करना उसके लिए आसान नहीं लगता। फिर भी, बीजेपी के सामने चिंता की एक लकीर तो खिंच ही रही है।

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