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विश्व आदिवासी दिवस…उनसे हम हैं, हमारी उन्हें ज़रूरत नहीं… !

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सुसंस्कृति परिहार 

जी हां,वे हमारे देश के मूल निवासी हैं जिन्हें हम आदिवासी कहते तो हैं पर अपने इन मूल लोगों  से किस कदर नफरत करते हैं कि उन्हें पिछड़े,असभ्य,गंदे और जंगली कहते हुए भी शर्मसार नहीं होते।यदि सच के आईने में नफ़रतियों को देखें तो पाते हैं कि हम सब तो इस देश के हैं ही नहीं हम जो हैं उनमें आर्यन, मुगल,पठान,मंगोलियन मंचूरियन और ना जाने कितनी जातियों का लहू हमारी रग में बह रहा है।हम विभिन्न संस्कृतियों की संतानें हैं। हिंदुस्तान इसी का नाम है जो सारे जहां से अच्छा माना जाता रहा है। लेकिन इस देश के मूल निवासी तो आदिवासी ही हैं जो नई नई प्रजातियों के आगमन से अपने रक्त को शुद्ध रखने लड़ने के बजाय पर्वतीय और जंगलों में पलायन कर गए।उनका सिर्फ रक्त शुद्ध नहीं ,दिल और सिद्धांत भी साफ़ हैं क्योंकि दीगर जातियों से दूरी के कारण उन पर आज का कोई रंग नहीं चढ़ पाया ।
आज भी जो आदिवासी शहरी सभ्यता से दूर है वे प्रकृति उपासक हैं उनके आराध्य जंगल हैं,नदी है,झरने हैं जंगल के जानवर हैं ।उनके गोत्र भी इन्हीं से लिए हुए हैं।वे जंगल और पहाड़ों पर किसी तरह की छेड़छाड़ किए बिना उनके बीच दोस्ताना व्यवहार रखते हैं। जंगल से वही लकड़ी अपने लिए उपयोग में लाते हैं जो जंगल में गिरी हुई मिल जाती है।पानी वे बहता हुआ ही ग्रहण करते हैं।बांध,तालाब या पोखर का जल उन्हें नहीं भाता भले ये जल लेने कई मील क्यों ना जाना पड़े। जीव-जंतुओं से दोस्ती का तो कहना ही क्या वे शेर की आवाज से उसकी मन:स्थिति का पता कर लेते हैं जब जंगल का राजा शिकार कर आराम फरमाता है तो वे आराम से जंगल में विचरण कर अपनी ज़रूरत का सामान लेने निकलते हैं । पक्षियों के कलरव से वे भी सावधानी बरतते हैं अक्सर जंगल में जहरीले सांपों का विचरण जब होता है पक्षी अजब तरह का शोर करते हैं।घर में यदि कभी कोई विषैला सर्प आ जाता है वे उसे कभी नहीं मारते।वे कहते हैं ये ज़मीन उनकी है पहला हक उनका है।यदि किसी कारणवश किसी की सर्पदंश से मृत्यु हो जाती है तो साफ़ कहते हैं उसने गलती की होगी। जंगल से ही उन्हें बहुमूल्य औषधियां मिल जाती हैं। वसुधैव कुटुंबकम् का परिपालन यही मूल ,आदिवासी करते हैं।

इतना ही नहीं इनके समाज में संग्रह की वृत्ति नहीं मिलती रोजाना कमाना खाना जानवरों की तरह इनकी नियति है। आदिवासी समाज में लिंगानुपात की कोई समस्या नहीं।लड़के लड़की में कोई फर्क नहीं। रिश्ते बनाने वे स्वतंत्र हैं उन्हें एक दूसरे को जानने समझने  घोटुल जैसे व्यवस्था हर जगह मौजूद है। परस्पर विचार ना मिलने पर अलग होने की स्वत: आज़ादी है। भगोरिया जैसे मेले इस पसंद के लिए जाने जाते हैं। आदिवासी समाज में इसलिए अपराध वृत्ति ना के बराबर है।स्त्री पुरुष दोनों मिलकर श्रम करते हैं।उनकी वनोपज गोंद,महुआ, चिरोंजी, औषधियां आदि सस्ते दामों पर  खरीदकर धन्नासेठ भारी मुनाफा कमाते हैं । हां मदिरा पान का सेवन इनमें अधिक है महिलाएं भी इसे लेती हैं कहीं महुआ की , कहीं चावल के मांड़ की और कहीं ताड़ी का सेवन होता है। ये  सेहत के लिए ज़रूरी मानते हैं।  लगता है ये हल्का नशा उनकी श्रम की थकान मिटा देता है तनाव तो वे किसी बात का रखते नहीं इसलिए रात में सब मिलकर लय बद्ध नाचते हैं।काम करते वक्त भी उनके यहां गाना होता है।उनका यह नाच गान विश्व की अमूल्य धरोहर है।ऐसा सरल, सीधा-साधा। जीवन भला आज के लोगों को कहां भा सकता है इसीलिए वे असभ्य कहे जाते हैं जबकि वे वास्तव में सभ्य हैं हुज़ूर। 
मुश्किल तो तब होती है जब ये कहा जाता है कि आदिवासियों को मूल धारा में जोड़ना ज़रूरी है।मूल धारा तो वहीं से नि:सृत हो रही है। उनसे जुड़िए, उनसे सीखिए। पर्यावरण की रक्षा का पाठ पढ़ाने से कुछ नहीं होने वाला आदिवासियों की सभ्यता से सीखना होगा उनके बीच जाकर। दुनिया में जहां जहां वे मौजूद हैं वहीं प्रकृति प्रमुदित है अपने मनोहारी स्वरुप में है। आज तथाकथित विकास की धाराओं में उनके वज़ूद को नष्ट करने का उपक्रम चल रहा है शर्मनाक तो यह है कि आदिवासी समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले सांसद और विधानसभा में पहुंचने वाले लोग अपने समाज से दूर हो जाते हैं उन पर शहरी संस्कृति हावी हो जाती है जिससे उनकी सांस्कृतिक पहचान धीरे धीरे समाप्त होने लगती है यह ख़तरनाक है।
शहरी संस्कृति के लोभ में जंगल से भागने वाले और वनभूमि से भगाएं जाने वाले लोगों का शहरों में ज़बरदस्त शोषण हो रहा है वे कम दाम में,पेट की आग बुझाने अथक श्रम कर रहे हैं उन्हें पोष्टिक आहार भी नहीं मिल पा रहा है ।उनकी स्त्रियों और बच्चियों का शोषण ही हो रहा है।   उनके नाम से मिलने वाले सरकारी ऋणों  या अन्य सुविधाओं का फायदा दूसरे लोग ले रहे हैं। पंचायत , जिला पंचायतों में उनका होना ख़ुशी का विषय नहीं हो सकता क्योंकि वे यहां पहुंचकर दूसरे की ऊंगली पर नाचते हैं।जिसका कारण उनके सीधेपन के साथ अशिक्षित होना भी है।

इन्हीं तमाम आदिवासियों की तकलीफों को मद्देनजर रखते हुए सन् 2007 में मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की सीमा के करीब अमरकंटक में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय की स्थापना की गई ।जो दोनों प्रदेशों के आदिवासी क्षेत्रों के बीच स्थित है।यह भारत में इकलौता विश्वविद्यालय है इसकी एक शाखा सिर्फ मणिपुर में है।मुख्य रूप से भारत के जनजातीय आबादी के लिए शिक्षा के अवसर , विशेष रूप से उच्च शिक्षा और अनुसंधान सुविधाएं प्रदान करने के लिए यह विश्वविद्यालय प्रयासरत है।आदिवासी कला में शिक्षण और अनुसंधान सुविधाओं , परंपरा , संस्कृति , भाषा , औषधीय प्रणाली, सीमा शुल्क , वन आधारित आर्थिक गतिविधियों , वनस्पति, जीव और जनजातीय क्षेत्रों के प्राकृतिक संसाधनों से संबंधित प्रौद्योगिकियों में उन्नति प्रदान करके ज्ञान का प्रसार करने हेतु संकल्पित है।
यकीनन इन भोले भाले आदिवासियों की संस्कृति और उनके ज्ञान को विस्तार देने की महती ज़रुरत है। विश्वविद्यालय से निकलने वाले आदिवासी युवा छात्र छात्राओं से उम्मीद की जा सकती है कि अपने समाज के साथ हो रहे शोषण के विरुद्ध जिम्मेदाराना पहल करते हुए  समाज के अस्तित्व को बचाए रखने में ज़रूरी हस्तक्षेप करेंगे।यह बात तय है उन्हें किसी की ज़रूरत नहीं वे हर हाल में ख़ुश हैं उनके दरवाज़े दस्तक तथाकथित सभ्य समाज बराबर दे रहा है क्योंकि आज हमें उनके ज्ञान की सख़्त ज़रूरत है जिसकी दम पर वे बराबर ख़ुश रहते हैं और उसे बांटते भी हैं । आखिरकार वे ही तो हैं सदियों पुराने हमारे पूर्वज जिनके पास अपार ज्ञान का भंडार है।अमेरिका के मूल निवासी ‘चीफ और सियेटल’ ने जार्ज वाशिंगटन द्वारा आदिवासियों की ज़मीनें बेचने के प्रस्ताव के जवाब में कहा था:—जब तुम्हारी रगों में बहता हुआ खून समुन्दर में वापिस चला जाएगा/जब तुम्हारी हड्डियों की मिट्टी धरती में वापिस चली जायेगी /शायद तब तुम्हें समझ में आएगा कि धरती तुम्हारी नहीं होती /बल्कि तुम धरती के होते हो। बारम्बार जोहार साथियों।

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