Site icon अग्नि आलोक

विश्व महिला दिवस : समाज में स्त्रियों की अ-दृश्य भूमिका

Share
FacebookTwitterWhatsappLinkedin

ऐसे समय में जब देश के अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत करीब 94 फीसदी महिलाओं के आर्थिक योगदान को नकारा जाता हो, ‘सकल घरेलू उत्पाद’ यानि जीडीपी में उनकी भूमिका अनदेखी की जाती हो या उनके काम को कम करके आंका जाता हो, महिलाओं की कुछ अनूठा रचने, गढ़ने की क्षमताओं को अलग से देखा जाना चाहिए। छोटे-छोटे, अनजाने-से आम-फहम घरेलू काम दरअसल महिलाओं की रचनात्मकता को उजागर करते हैं। यह रचनात्मकता महिलाओं को उनकी हंसी, जिजीविषा और व्यापक दृष्टि देती है।‘विश्व महिला दिवस’ पर इसी विषय पर प्रकाश डालता शंपा शाह का लेख।

कल्पना कीजिए एक स्त्री की जो स्वेटर बुन रही है या सिलाई कर रही है। उसके हाथ लगातार बुन रहे हैं और ठीक उसी समय कोई अदृश्य हाथ उसे उधेड़ता जा रहा है। स्त्रियों के अधिकांश कामों के साथ रोज ऐसा ही होता है। वह बर्तन मांजकर उन्हें चमचमा देती है और कुछ ही घंटों बाद उस जगह फिर जूठे बर्तनों का ढ़ेर होता है। वह घर बुहारती है, पानी भरती है, बच्चों को नहलाती है, खाना पकाती है। मगर इनमें से कोई भी काम, कभी भी पूरा नहीं होता। काम पूरा करने का संतोष क्या होता है, यह स्त्रियां बहुत कम जान पाती हैं। सुबह की रसोई से निपटे, लेकिन शाम की रसोई बाकी है। सुबह झाड़ू लगाई, घर सहेजा, लेकिन शाम तक पैरों के नीचे धूल है और घर अस्त-व्यस्त है।

ऐसे काम जो उसे खुद ही कभी पूरे हुए नहीं दिखते, उन्हें वह दूसरों को कैसे दिखाए? ये वे काम हैं जिन्हें हर दिन, साल-दर-साल, लगभग एक ही तरह से बार-बार किया जाना है। इन्हें दिमागी काम नहीं माना जाता। बल्कि सच पूछिए तो ये दिमाग को कुंद कर देते हैं। दिमाग इन छोटे-छोटे कामों के भंवर जाल में चक्कर खाता रहता है। स्त्री जीवन का हर दिन पिछले दिन जैसा है। उसमें कुछ भी नया नहीं बस एक पैटर्न या नमूना है, जो खुद को दुहराते रहता है।

इससे मन में अचानक यह बात आई कि क्या इसीलिए स्त्रियों को कढ़ाई, बुनाई, क्रोशिया, चैक-मांडने-रांगोली पसंद हैं, क्योंकि उनमें पैटर्न्स हैं जिन्हें दुहराना होता है। कई बार तो ये नमूने इतने जटिल होते हैं और उनमें इतना जोड़-घटाना रहता है कि समझ ही नहीं आता कि जो स्त्री कभी स्कूल नहीं गई, जिसने गणित नहीं पढ़ा वह ये नमूने कैसे याद रख रही है, या बना रही है? जो किसी कला विद्यालय नहीं गई, उसे आकारों, रंगों के तालमेल के बारे में ऐसा ज्ञान कहां से मिला? और फिर ये रांगोली, ये रंग-बिरंगे मोती के तोरण, ये बचे हुए ऊन से बने स्वेटर, ये बचे हुए कपड़ों और धागों से बने झबले व फ्राक इतने सुंदर भी तो लगते हैं। ये नीरस काम तो नहीं लगते? अगर ये नीरस काम ही बने रहते तो वे स्त्रियाँ जो इन्हें करती आई हैं, उनका हाल क्या होता? वे क्या कभी हंसती, गुनगुनाती दिखाई देतीं?

लेकिन स्त्रियों की सबसे खास पहचान ही यह है कि वे खिलखिला कर हंसती हैं और बात-बात पर और बिना बात के भी हंसती हैं। इस हंसी का स्रोत कहां है? सोचने पर लगता है कि इसके दो स्रोत हैं। सब्जी, आचार, मिठाइयों में जो असंख्य स्वादों कीय गोदड़ी, फ्राक, स्वेटर, बांस की डलिया, गोदने-मांडने के अनंत रंगों और नमूनों को सिरजने में जो कल्पना लगती है वह इसका स्रोत है। सृजन की शक्ति। कुछ गढ़ने की शक्ति। लेकिन तब प्रश्न उठता है कि यह सब बनाने, गढ़ने की इच्छा ही क्यों होती है? इस इच्छा-शक्ति का स्रोत क्या है? यदि हम हिंदी के स्त्री-वाचक शब्दों या स्त्री भाव को व्यक्त करने वाले शब्दों की सूची बनाए तो उसका जो सबसे प्रकट रूप निकल कर आता है वह कामधेनु या अन्नपूर्णा यानी हर इच्छा पूरी करने वाली का है। वह भूमा,पृथ्वी, अंबा, शक्ति, सरिता,सविता,समिधा, वसुंधरा है। वह श्री, भारती, शाश्वती है। वह हर करने, सोचने लायक काम की ‘भूमिका’ है।

Exit mobile version