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योग~विज्ञान : रेचक और कुंभक*

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डॉ. प्रिया

      _स्वास अंदर लेना पूरक है, स्वास बाहर निकालना रेचक है और स्वास को भीतर रोकना कुम्भक है. ये प्राणायाम साधना के तीन आयाम हैं. हमारे फेफड़ों के छेदों में धुंए और धूल के कण कार्बन के रूप में जमा हो जाने से शरीर को जितनी आक्सीजन की जरूरत होती है उतनी आक्सीजन मिल नहीं पाती है। फेफड़ों में कार्बन जमा होने के कारण श्वास के साथ भीतर आई आक्सीजन फेफड़ों में प्रवेश नहीं कर पाती है और हमारे शरीर में आक्सीजन की कमी होने लगती।_

      अतः धीरे-धीरे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती जाती है। बिमारियों से लड़ने की शक्ति कम होती जाती है। 

हमारी भीतर जाती श्वास अपने साथ आक्सीजन लेकर जाती है और बाहर आती श्वास अपने साथ कार्बन लेकर आती है। 

      योग में सारी श्वास को भीतर भरकर कुछ समय तक भीतर रोकने को कुंभक कहते हैं और फिर सारी श्वास को बाहर निकालकर कुछ समय के लिए श्वास को बाहर रोकने को रेचक कहते हैं। 

      _रेचक में यदि हम पेट को सीकोड़कर सारी श्वास बाहर निकालकर कुछ क्षणों के लिए रूक जाते हैं, दस या बीस सेकंड या जितनी देर हम रोक सकें तो हमारे फेफड़े सिकुड़ जाते हैं जिससे उनके छिद्रों में भरी हुई कार्बन सतह पर आ जाती है और फेफड़ों के छिद्र खुल जाते हैं। फिर थोड़ी देर बाद कुंभक में हम धीरे से श्वास को पूरा भीतर ले लेते हैं जिसमें पेट भी फूल जाता है और अब हम श्वास को भीतर रोके रहते हैं तो श्वास के साथ आई सारी की सारी आक्सीजन फेफड़ों के  खुले हुए छिद्रों से होती हुई रक्त में प्रवेश कर जाती है और जब रेचक करते हुए पुनः हम सारी श्वास को धीरे से बाहर निकालते हैं तो फेफड़ों की सतह पर आई कार्बन श्वास के साथ बाहर जाने लगती है।_

       इस तरह से सारी श्वास को बाहर निकालकर कुछ समय तक बाहर रोकने पर रेचक द्वारा हमारे फेफड़ों से कार्बन बाहर चली जाती है और  श्वास को कुछ समय तक भीतर रोककर कुंभक करने से श्वास के साथ आई सारी की सारी आक्सीजन फेफड़ों से होती हुई रक्त में मिल जाती है।

      इस तरह से धीरे-धीरे हमारे शरीर में आक्सीजन की मात्रा बढ़ने लगती है और हमारी रोग- प्रतिरोधक क्षमता विकसित होने लगती है। 

हम सतत भूत और भविष्य के विचारों में खोये होते हैं लेकिन रेचक और कुंभक करते समय हम वर्तमान में आ जाते। उस समय हम सोच-विचार नहीं कर सकते हैं।

     _क्योंकि जो आदमी सोच-विचार में उलझा हुआ था वह अब श्वास को बाहर-भीतर रोक रहा है। यानि अब वह उपस्थित हो गया है! साक्षी हो गया!_

     सोच-विचार और काम के तनाव के कारण सामान्यतः हमारी श्वास नाभि तक नहीं जाती है और छाती तक आकर ही लौट जाती है जिससे नाभि को प्राण ऊर्जा नहीं मिलती है और नाभि चक्र सोया रहता है।

     _कुंभक में ज्यों ही हम श्वास को भीतर लेकर रोकते हैं तो श्वास के साथ आए प्राण तत्व नाभि को मिलने लगते हैं और नाभि चक्र सक्रिय होने लगता है। नाभि चक्र के सक्रिय होने से हम भय मुक्त हो अभय में प्रवेश करने लगते हैं।_

      नाभि चक्र के सोये हुए होने के कारण ही हम भयभीत होते रहते हैं। 

कुंभक में श्वास भीतर रोकने पर श्वास के साथ आए प्राण तत्व से मूलाधार चक्र के नीचे सोयी हुई कुंडलिनी उर्जा सक्रिय होने लगती है।

     प्राण तत्व कुंडलिनी उर्जा का भोजन है। श्वास नाभि तक जाएगी तो कुंडलिनी उर्जा को प्राण मिलेंगे और वह सक्रिय होने लगेगी। 

      रेचक में ज्यों ही हम सारी श्वास को बाहर निकालकर पेट को भीतर सिकोड़ लेते हैं तो गुदाद्वार भी भीतर की ओर सिकुड़ जाता है और मूलबंध लग जाता है।

मूलबंध के लगते ही नीचे का रास्ता बंद हो जाता है और पेट के सिकुड़े होने से नाभि के पास शून्य निर्मित हो जाता है और शून्य उर्जा को अपनी ओर खींचता है! अतः प्राण तत्व से सक्रिय हुई कुंडलिनी उर्जा स्वतः ही शून्य में प्रवेश कर जाती है और जागरण की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। 

     _इस प्रक्रिया में रेचक से शुरुआत करते हैं। पहले रेचक फिर कुंभक। पहले बाहर श्वास को रोकना होता है फिर भीतर।_

       रेचक और कुंभक हम कहीं भी और कभी भी कर सकते हैं। दिन में जितनी बार हम कर सकें, उतनी बार कर सकते हैं। कुछ सेकंड के लिए सारी श्वास को बाहर निकालकर पहले बाहर रोकना है और फिर धीरे से सारी श्वास भीतर ले जाकर भीतर रोकना है।

        _भोजन के एकदम बाद नहीं करना है और जहां पर धूल और धुंआ हो उस जगह पर भी नहीं करना है। सुबह दस से बीस मिनट करने से ज्यादा लाभ मिलता है क्योंकि सुबह के समय प्रकृति में आक्सीजन की मात्रा अधिक होती है।_

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