@ डॉ. विकास मानव
यदि वास्तविक दृष्टि से विचार किया जाए, तो पता चलेगा कि हमारा जीवन स्थूल शरीर नहीं, सूक्ष्म शरीर ही है। हम जो कुछ करते हैं, उसी रूप में करते हैं और जो कुछ आगे करेंगे वह भी उसी रूप में।
हमारा यह बाह्याकार कितना ही बदलता रहे; किन्तु उसमें रहने वाला जीवात्मा कभी नहीं बदलता। हमारा जीवन अपरिवर्तनशील और अमर है और यही रहस्य संसार का सबसे बड़ा सत्य है।
हमारा यह वास्तविक जीवन अथवा सूक्ष्म स्वरूप क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर होगा विचार। विचार अपने में मूर्तिमान् होते हुए भी सूक्ष्म सत्ता होने के कारण कभी स्पष्ट दिखलाई नहीं देते। उनकी मूर्तिसत्ता कार्यों के रूप में ही प्रकट होकर सामने आती है।
हमारे आस-पास की दुनिया में दिखलाई देने वाली हर वस्तु का सर्व- प्रथम स्रोत- विचार ही होता है। कोई भी वस्तु अथवा पदार्थ सर्वप्रथम विचार रूप में जन्म लेकर ही स्थूल रूप में प्रकट होता है।
हम स्वयं अपना जन्म विचारों में ही धारण करते हैं। उन्हीं में पलते-बढ़ते और व्यक्त होते हैं। हम जीवन रूप में विचार स्वरूप ही हैं। हम आज जो कुछ दिखलाई दे रहे हैं अथवा आगे दिखलाई देंगे, वह हमारे विचारों के सिवाय और कुछ न होगा। अपने जीवन को सत्य पथ पर नियोजित करने का अर्थ विचारों को उस दिशा में उन्मुख करने के सिवाय और कुछ भी नहीं है।
विचार ही मनुष्य का वास्तविक स्वरूप है उसे केवल कोरी कल्पना अथवा हवाई उड़ान मान कर महत्त्व न देने वाले अपने सत्यस्वरूप की ओर से आँख बन्द कर लेते हैं।
शाश्वत शक्ति से सम्बन्धित होने से विचारों को संसार की वास्तविक, प्रबल, सूक्ष्म और महान् शक्ति माना गया है। विचारों के कारण ही मनुष्य उत्कृष्ट अथवा निकृष्ट बनता है।
समानता वाले दो पदार्थ एक दूसरे को अनायास ही अपनो ओर आकर्षित करते हैं। सृष्टि का यह नियम स्थायी और शाश्वत है।
हम अपने जीवन के अनुकूल विचारों और शक्तियों को अदृश्य जगत् से आकर्षित करते और स्वयं भी उनकी ओर खिंचते रहते हैं।
हमारे विचार जितने सत्य और सत् होंगे, हम सत्य और सत् तत्त्वों को अपनी ओर उतना ही आकर्षित करेंगे और स्वयं भी उनकी ओर आकर्षित होंगे। इसके विपरीत असत्य एवं असद् विचारों के कारण हम अवांछनीय तत्त्वों को आकर्षित करते और उनकी ओर बढ़ते जाते हैं।
आत्म-विकास अथवा आत्म-निर्माण का दूसरा नाम विचार निर्माण ही है।