दुनिया की राजनीति बहुआयामी है, जिसमें धर्म, जाति और नस्ल के साथ-साथ आर्थिक और सामरिक हित भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मुसलमानों को चाहिए कि वे इन सभी पहलुओं को समझें और अपनी रणनीतियां तर्कसंगत और व्यावहारिक बनाएं। अगर इस धारणा से बाहर निकला जाए, तो न सिर्फ़ भारत में बल्कि पूरी दुनिया में मुसलमान एक ज़्यादा प्रभावी और सकारात्मक भूमिका निभा सकते हैं, जो न सिर्फ़ उनके लिए बल्कि पूरी मानवता के लिए अधिक लाभदायक होगा।
डॉ. सलमान अरशद
दुनिया की राजनीति हमेशा से जटिल रही है। इसमें सत्ता, संसाधन और विचारधाराओं की जंग होती रही है, जिसमें धर्म और मज़हब का इस्तेमाल अक्सर एक औज़ार के रूप में किया जाता है। जब मुसलमान संसदीय राजनीति में हिस्सा लेते हैं, तो उनकी प्राथमिकता होती है कि ऐसी सरकार बने जो सभी नागरिकों को समान अधिकार दे, धर्म, जाति, नस्ल या भाषा के आधार पर किसी के साथ भेदभाव न हो।
भारत में मुस्लिम समुदाय आमतौर पर धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की वकालत करता है, क्योंकि उन्हें संविधान के तहत मिले अधिकारों की सुरक्षा चाहिए। लेकिन जब वैश्विक राजनीति की बात आती है, तो भारत का मुसलमान अक्सर अरब देशों की राजनीति को शिया बनाम सुन्नी के नज़रिए से देखने लगता है।
मिसाल के तौर पर, फिलिस्तीन संकट को लें। इस मुद्दे पर मुसलमानों की भावनाएं एकजुट दिखती हैं, लेकिन अगर गहराई से देखा जाए, तो मज़हबी आधार पर कई खेमे बने हुए हैं। फिलिस्तीन में सुन्नी मुसलमान बहुसंख्यक हैं, लेकिन उनकी सबसे बड़ी मदद ईरान, इराक़, लेबनान और यमन के हूती जैसे शिया समूह करते हैं।
वहीं, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात (UAE) और तुर्की जैसे सुन्नी बहुल देश किसी न किसी रूप में इज़राइल से कूटनीतिक संबंध बना रहे हैं। यह दिखाता है कि राजनीति को सिर्फ़ मज़हबी आधार पर देखना काफ़ी नहीं है, बल्कि इसमें आर्थिक और भू-राजनीतिक कारकों को समझना ज़रूरी है।
जहां भी प्राकृतिक संसाधन प्रचुर मात्रा में होते हैं, वहां बड़ी ताकतों के हस्तक्षेप की संभावना ज़्यादा रहती है। पश्चिम एशिया इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। तेल और गैस भंडारों की वजह से यह इलाक़ा हमेशा से वैश्विक शक्तियों के बीच रस्साकशी का केंद्र रहा है।
सीरिया में 2011 से जारी संघर्ष को देखें तो इसे मज़हबी रंग देने की कोशिश हुई, लेकिन असल में यह सत्ता और संसाधनों की लड़ाई थी। बशर अल असद की सरकार को रूस और ईरान का समर्थन था, जबकि अमेरिका और उसके सहयोगी देशों ने विद्रोहियों को समर्थन दिया। इस्लामी दुनिया में इस जंग को सुन्नी-शिया संघर्ष के रूप में देखा गया, लेकिन असल वजह तेल, गैस पाइपलाइन और रणनीतिक सैन्य ठिकानों पर नियंत्रण था।
इसी तरह, लीबिया में भी यही कहानी दोहराई गई। जब 2011 में कर्नल गद्दाफ़ी की सरकार को पश्चिमी देशों ने गिरा दिया, तब यह कहा गया कि यह लोकतंत्र की बहाली के लिए किया गया। लेकिन असल में इसका मुख्य कारण लीबिया के तेल भंडारों पर नियंत्रण था। आज लीबिया एक अस्थिर देश बन चुका है, जहां विभिन्न गुटों के बीच सत्ता संघर्ष जारी है।
अगर हम भारत के भीतर चल रहे संघर्षों को देखें, तो यहां भी हमें यही पैटर्न नज़र आता है। आदिवासी क्षेत्रों में होने वाले संघर्षों को अक्सर “आदिवासी बनाम सरकार” की तरह पेश किया जाता है, लेकिन इसकी जड़ में संसाधनों पर नियंत्रण की लड़ाई है। खनिज संपदा से भरपूर राज्यों जैसे झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओडिशा में बड़ी कंपनियां और सरकारें खनिज निकालने के लिए सक्रिय हैं, जबकि स्थानीय समुदाय अपने हक़ की लड़ाई लड़ रहे हैं।
इसी तरह, कश्मीर विवाद को अक्सर धार्मिक संघर्ष के रूप में देखा जाता है, लेकिन इसका असली पहलू भौगोलिक और राजनीतिक है। यह इलाक़ा भारत और पाकिस्तान दोनों के लिए सामरिक रूप से महत्वपूर्ण है, और यहां मौजूद जल संसाधन और पर्यटन उद्योग भी इस संघर्ष को प्रभावित करते हैं।
दुनिया की राजनीति एक नए दौर में प्रवेश कर रही है। साम्राज्यवादी ताकतें अपने आर्थिक संकटों से उबरने के लिए नए गठजोड़ बना रही हैं। अमेरिका और रूस के बीच हाल के वर्षों में रिश्तों में कुछ बदलाव के संकेत मिले हैं, जो अरब क्षेत्र की राजनीति को भी प्रभावित कर सकते हैं।
मध्य पूर्व में सत्ता संतुलन धीरे-धीरे बदल रहा है। सीरिया में सत्ता परिवर्तन और अहमद अल शारा की सरकार का गठन इसी बदलाव की ओर इशारा करता है। वहीं, इज़राइल की आक्रामकता अब भी जारी है, जो यह दिखाता है कि इस क्षेत्र में स्थिरता लाने में अभी समय लगेगा।
इस पूरे परिदृश्य में चीन भी एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी बनकर उभरा है। उसकी “बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव” (BRI) परियोजना दुनिया भर में आर्थिक और राजनीतिक प्रभाव बढ़ाने की कोशिश कर रही है। चीन ने पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और ईरान से मजबूत संबंध बनाए हैं, जिससे वह इस्लामी दुनिया में अपनी स्थिति मज़बूत कर रहा है।
मुसलमानों को वैश्विक राजनीति को सिर्फ़ मज़हबी चश्मे से देखने की बजाय एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाने की ज़रूरत है। यह समझना होगा कि शक्ति संतुलन, संसाधनों की लूट और आर्थिक हित ही असली कारक हैं, जिनकी वजह से संघर्ष जारी हैं।
भारत में मुसलमानों को चाहिए कि वे लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में सक्रिय भागीदारी करें और अपने राजनीतिक हितों को मज़बूती से स्थापित करें। सिर्फ़ भावनात्मक नारों से दूर रहकर, वास्तविक मुद्दों पर ध्यान देना ज़रूरी है।
वैश्विक स्तर पर भी मुसलमानों को चाहिए कि वे अपने देशों में शिक्षा, विज्ञान, तकनीक और आर्थिक विकास पर ज़ोर दें। सिर्फ़ राजनीतिक और मज़हबी संघर्षों में उलझे रहने से कोई भी समुदाय तरक्की नहीं कर सकता।
दुनिया की राजनीति बहुआयामी है, जिसमें धर्म, जाति और नस्ल के साथ-साथ आर्थिक और सामरिक हित भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मुसलमानों को चाहिए कि वे इन सभी पहलुओं को समझें और अपनी रणनीतियां तर्कसंगत और व्यावहारिक बनाएं। अगर इस धारणा से बाहर निकला जाए, तो न सिर्फ़ भारत में बल्कि पूरी दुनिया में मुसलमान एक ज़्यादा प्रभावी और सकारात्मक भूमिका निभा सकते हैं, जो न सिर्फ़ उनके लिए बल्कि पूरी मानवता के लिए अधिक लाभदायक होगा।
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