एक अनुभवी वामपंथी नेता ने राहुल गांधी के बारे में कहा था कि राहुल गांधी भारत के प्रधानमंत्री बन पायें या न बन पायें लेकिन वे ‘गांधी’ बनने की दिशा में जरूर तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। हालांकि एक साथ ‘गांधी’ और ‘प्रधानमंत्री’ बनना बहुत मुश्किल है, लगभग असंभव ही।ऐसा लगता है कि राहुल गांधी भारत के प्रधानमंत्री बनने की बात नहीं सोच रहे हैं, बल्कि उससे कुछ अधिक महत्वपूर्ण सोच रहे हैं! राहुल गांधी एक साथ ‘गांधी’ और ‘आंबेडकर’ दोनों बनने की दिशा में सोच रहे हैं।
प्रफुल्ल कोलख्यान
आखिरकार, जम्मू-कश्मीर में तीन चरणों में चुनाव संपन्न हो गये। हरियाणा में नवंबर 2024 चुनाव होना है। घोषित कार्यक्रम के अनुसार 08 नवंबर 2024 को दोनों राज्यों के चुनाव का नतीजा सब के सामने आ जायेगा। चुनाव नतीजा कुछ भी हो, राजनीतिक बयानों के घात-प्रतिघात में तुरत कमी आने की संभावना बहुत ही कम है।
क्योंकि कई राज्यों में चुनाव अभी प्रतीक्षित हैं। नफरती माहौल बनाये रखने की चाहे जितनी भी कोशिशें की जाये यह बात बिल्कुल साफ-साफ समझ में आ रही है कि इस चुनाव नतीजा से भारत की संसदीय राजनीति का धूल-धुआं कुछ-न-कुछ तो जरूर ही छंटेगा, धर्म-आधारित राजनीति पर थोड़ा-बहुत विराम जरूर लगेगा।
एक सवाल के जवाब में एक अनुभवी वामपंथी नेता ने राहुल गांधी के बारे में कहा था कि राहुल गांधी भारत के प्रधानमंत्री बन पायें या न बन पायें लेकिन वे ‘गांधी’ बनने की दिशा में जरूर तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। हालांकि एक साथ ‘गांधी’ और ‘प्रधानमंत्री’ बनना बहुत मुश्किल है, लगभग असंभव ही।
ऐसा लगता है कि राहुल गांधी भारत के प्रधानमंत्री बनने की बात नहीं सोच रहे हैं, बल्कि उससे कुछ अधिक महत्वपूर्ण सोच रहे हैं! राहुल गांधी एक साथ ‘गांधी’ और ‘आंबेडकर’ दोनों बनने की दिशा में सोच रहे हैं।
हालांकि, यह कोई आसान काम नहीं है। इस समय भारत की संघ-सत्ता की नियंत्रणकारी हिंदुत्व की राजनीति को खुले दिल-दिमाग से न तो ‘गांधी’ पसंद आते हैं और न ही ‘आंबेडकर’ पसंद आते हैं!
1857 के 50 साल बाद की राजनीतिक पृष्ठ-भूमि पर पनपी महात्मा गांधी की रणनीति और दो-दो विश्व-युद्धों के बीच से सभ्यता के ‘अंतिम पन्ने’ से लौटी बाबासाहेब की विश्व-मानवतावादी नैतिक दृष्टि में असहमति-सहमति के ढेर सारे बिंदु थे और हैं।
ईमान की बात यह है कि महात्मा गांधी और बाबासाहेब की दृष्टि में उतना अंतर नहीं था, जितना अंतर उनके परिवेश और पराक्रम में था। बहुत ही संक्षेप और सूत्र में कहने की कोशिश की जाये तो महात्मा गांधी सवर्ण हिंदुओं के ‘हृदय परिवर्तन’ तक और बाबासाहेब देश की राजनीतिक परिस्थिति में अनुकूल परिवर्तन तक इंतजार पर भीतर-ही-भीतर सहमत थे।
जाहिर है कि उनके बीच की असहमति कि राजनीतिक अभिव्यक्ति, एक हद से आगे नहीं बढ़ती थी, ऐसा मानने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए। न सवर्ण हिंदुओं के अधिकांश का हृदय परिवर्तन हुआ और न समतामूलक लोकतांत्रिक परिस्थिति में कोई गुणगत परिवर्तन हुआ।
इतना ही नहीं जीवन कुर्बान करनेवालों की उम्मीद कि रंग लायेगी उनकी कुर्बानी एक दिन, पूरी करने में हमें कामयाबी नहीं मिली। पुरखों की किसी भी उम्मीद पर खरे नहीं उतर पाये हम, तो क्या कहें कि किस का दोष है?
क्या राहुल गांधी पर भारत के लोग इतना भरोसा कर पायेंगे कि वे ‘गांधी’ और ‘बाबासाहेब’ की नैतिक विरासत को आगे बढ़ा सकें! जो आदमी सारे सवालों का जवाब बेहिचक और बेझिझक देने में ‘सदा सक्षम’ हो, वह बहुत चतुर-चालाक होता है।
राहुल गांधी इतने चतुर-चालाक नहीं हैं। राहुल गांधी में द्वंद्व जिंदा है, कई गहरे सवालों के जवाब वे तलाश रहे हैं! कितना तलाश पायेंगे! यह तो वक्त ही सही-सही बता पायेगा।
2022 में एक साक्षात्कार के दौरान हिंसा और अ-हिंसा के सवाल पर उन्होंने अपने द्वंद्व को छिपाया नहीं! उन्होंने कहा कि इसे महसूस किया जा सकता है। प्रश्न उनके परिवार, खासकर पिता राजीव गांधी की हत्या की पृष्ठ-भूमि में किया गया था।
गौर करने के लिए बात यह है कि उनके द्वंद्व में प्रतिशोध की कोई गंध नहीं थी। कोई भी संवेदनशील मन महसूस कर सकता है। आज-कल यह साक्षात्कार फिर से सोशल मीडिया में तेजी से घूम रहा है। चतुर-चालाक और धूर्त में कोई बहुत अंतर तो होता नहीं है।
02 अक्तूबर का दिन विशेष होता है। आज का दिन विभिन्न प्रसंग में महात्मा गांधी को विशेष रूप से याद किया जाता है। याद किया जा सकता है कि विदेश यात्रा को ले कर उन्हें भी जातिच्युत करने की घोषणा की गई थी। उस घोषणा के पहले भी उन्हें इस मुद्दे पर अन्य परेशानियों का सामना करना पड़ा था।
जबकि महात्मा गांधी की न जातिगत पृष्ठ-भूमि और न पारिवारिक पृष्ठ-भूमि उतनी कमजोर थी। ‘उतनी’ से आशय इशारा बाबासाहेब की तरफ है।
जो हो यहां प्रासंगिक यह है कि आनेवाले समय में हिंदुत्व और कॉरपोरेट की संयुक्त शक्ति का मुकाबला ‘महात्मा और बाबासाहेब’ की संयुक्त दृष्टि से होगा। जातिवार जनगणना पर यत्र-तत्र और सर्वत्र चर्चा हो रही है।
सूचना क्रांति के इस युग में अब भारत के प्रगतिशील लोगों को यह एहसास हो गया है कि बीमारी की जड़ कहां है! सबके सामने बीमारी की जड़ का आ जाना बीमारी के सम्यक इलाज की तरफ बढ़ने के आश्वासन और संतोष के लिए अधिक नहीं है, तो इसे कम भी नहीं समझा जाना चाहिए। हां, लड़ाई अभी बाकी है।
परंपरा और प्रगति में कोई नैसर्गिक विरोध नहीं है। लेकिन भारत के बौद्धिक मिजाज में कहीं-न-कहीं भीतर-ही-भीतर यह बोध धंसा हुआ है कि परंपरा और प्रगति में नैसर्गिक विरोध है। परंपरावादी और प्रगतिवादी एक दूसरे के न सिर्फ वैचारिक रूप से कट्टर विरोधी होते हैं, बल्कि सामाजिक और व्यक्तिगत रूप से भी विरोधी होते हैं।
इतने विरोधी कि इन्हें एक दूसरे का दुश्मन ही मान लिया जा सकता है। निरंतर तर्क-वितर्क में लगे समाज के अंतरमन में परंपरा और प्रगति के नैसर्गिक विरोधी का बोध इतना जड़ कैसे हो गया! इस जड़-मति के क्या कारण हो सकते हैं! कबीर बार-बार सवाल करते थे, पांडे कौन कुमति तोहि लागी! ठीक-ठीक जवाब आज तक नहीं मिल पाया है!
थोड़ा-सा ठहरकर इस बुनियादी बात पर विचार किया जाना चाहिए। यहीं एक अन्य बात का इशारा करना जरूरी है। भारत में अधिकतर लोग व्यवहार में दोहरे-तिहरे मानदंड का प्रयोग करते हैं; एक अपने लिए, एक अपनों के लिए और एक अन्यों के लिए।
मन में एक, वचन में एक और आचरण में एक! मन वचन आचरण की संगति के बिना कोई भी विचार खंडित और असत्य हो जाता है। रात-दिन बात-बात में ‘सत्यमेव जयते’ को दुहरानेवालों को मुण्डक-उपनिषद के पूरे कथन को ध्यान में रखना चाहिए, ‘सत्यमेव जयते नानृतं’! ‘नानृतं’ का अर्थ है, मन वचन आचरण में सामंजस्य-हीन विचार!
दुनिया का इतिहास गवाह है कि आंख मूंद कर परंपरा के अनुकरण से कोई विकास नहीं होता है, न हुआ ही है। इसलिए समाज का प्रगतिशील अंश तर्क-वितर्क को बढ़ावा देता है। तर्क-वितर्क का कोई असर व्यवहार में फर्क पैदा न कर पाये तो ऐसे तर्क-वितर्क का क्या फायदा! ऐतिहासिक रूप से भारत में भी तर्क-वितर्क को बढ़ावा दिया जाता रहा है।
फिर भारतीय समाज के लोगों के तर्क-पूर्ण आचरण में दिक्कत कहां है? यहां थोड़ा-सा ठहरकर सचाई का पता लगाया जाना चाहिए। मन वचन आचरण में सामंजस्य-हीन विचार के कारण सारी दिक्कतें हैं।
सबसे बड़ी दिक्कत तो यही है कि परलोक संबंधी विचार को लोक पर और अब तो लोकतंत्र पर भी लादे जाने की राजनीतिक और राजकीय कोशिश कई मामलों में बेरोक-टोक जारी है। कारण और भी हो सकते हैं।
आजादी के आंदोलन के दौर में भी और आजादी के बाद भी, भारत के भौगोलिक विभाजन की विभीषिका के बीच राष्ट्रीय एकता की भावना और धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की स्थापना के लक्ष्य ने समझदार भारतीय लोगों के दृष्टि-कोण और मूल्य-बोध में जगह बनाना जारी रखा।
दूसरी तरफ, भौगोलिक रूप से ‘अखंड भारत’ की बात करनेवाली विचारधारा के लोगों ने भौगोलिक अखंडता की आकांक्षा की राजनीतिक हवा के बल पर सामाजिक विभाजन के दुख-दर्द का कोई इलाज किये बिना हिंदुत्व के एजेंडा के अंतर्गत हिंदू-मुसलमान के बीच तनाव, टकराव और ध्रुवीकरण की राजनीतिक कोशिश निरंतर जारी रखी।
हिंदुत्व की राजनीति भलीभांति समझ गई थी कि जिस इस्लाम के आगमन से भारत की वर्ण-व्यवस्था की चूलें हिल गई थी, उसी इस्लाम का इस्तेमाल वर्ण-व्यवस्था को बनाये रखकर ‘हिंदू एकता’ का राजनीतिक एजेंडा चलाया जा सकता है।
कुल मिलाकर यह हिंदू-मुसलमान में तनाव और ध्रुवीकरण के इस्तेमाल से एक साथ वर्ण-व्यवस्था को बनाये रखना और संसदीय राजनीति पर स्थाई बहुमत का वर्चस्व कायम करना संभव हो गया।
एक पत्थर से इतने शिकार कि सारे ‘पत्थरबाज’ पानी भरें! हिंदुत्व की राजनीति की नासमझी भरी ‘समझ’ ने 2014 में अपना कमाल दिखाया! 2019 में भी मामला सध गया! निश्चित ही अन्य कारण भी थे, लेकिन औजार यही था। कारण और औजार के फर्क को ध्यान में रखने पर यह बात आसानी से समझी जा सकती है।
कहना न होगा कि 2024 तक आते-आते यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो गई और सत्ता के अंगुली के इशारे पर संवैधानिक संस्थाओं की कार्रवाइयों से परेशान विपक्ष, इंडिया अलायंस के तहत एकत्र तो अपने बचाव में हुआ, लेकिन ‘न्याय योद्धा’ राहुल गांधी के न्याय-बोध के राजनीतिक इस्तेमाल से हिंदुत्व की राजनीति का यह औजार ही भोथड़ा और बेहाथ हो गया।
हिंदुत्व के एजेंडे पर चल रहे नेताओं की मीडिया जनित आत्म-मुग्धता और कॉरपोरेट समर्थित भ्रामक आत्म-विश्वास से उत्पन्न ‘अवतारी आभा’ के चलते प्रारंभ में यह पता ही नहीं चला कि राहुल गांधी की राजनीतिक चोट आखिर उन पर पड़ कहां रही है! जैसे ही पता चला उन्होंने आनन-फानन में दो राजनीतिक हथियार ईजाद कर लिये गये।
पहला ‘विभाजन विभीषिका’ और दूसरा इमरजेंसी के अत्याचार को केंद्र में रखकर ‘संविधान हत्या दिवस’! ये दोनों ही हथियार ‘बनाये जाते समय’ ही टूट गये।
लोगों ने जानने की कोशिशें शुरू कर दी कि जब ‘देश विभाजन’ की ‘विभीषिका’ घटित हो रही थी, उस समय उनकी विचारधारा से जुड़े पुरखे क्या और क्या-क्या कर रहे थे। अर्थात हिंदुत्व की राजनीति की उस समय क्या भूमिका क्या थी! विभाजन विभीषिका का वह असर पैदा होने से रहा, जो राजनीतिक असर पैदा करने के लिए वे बेताब हुए जा रहे थे।
घोषित इमरजेंसी से कहीं अधिक अघोषित इमरजेंसी ने आम लोगों के दुख-दर्द को बढ़ाया है; पुराने जख्मों से कहीं अधिक दर्द ताजा जख्मों में होता है! ऊपर से दुनिया की पांचवीं अर्थ-व्यवस्था बन जाने का शोर और सत्ता-अवहेलित बेरोजगारी-महंगाई के चलते अपनी निरंतर खस्ता होती जा रही हालत से परेशान जिंदगी का सच।
‘संविधान हत्या दिवस’ मानने में लगी राजनीति के गलत इरादों को समझ लेने में भी लोगों को दूर-दूर तक कोई दिक्कत नहीं हुई! यह ‘उपाय’ भी राजनीति के ‘कुरुक्षेत्र’ में काम आने से रहा!
इधर, जातिवार जनगणना का फायदा पूछने के पीछे की शरारतों और सुराज की जगह संश्लिष्ट-राज (Deep State) की मिलीभगत भी छिपी नहीं रह सकती है। यही कारण है कि राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ ने भी चुनावी फायदे को सुनिश्चित करने के नजरिये से जातिवार जनगणना को ‘हरी झंडी’ दे दी।
राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ को भलीभांति पता है कि जातिवार जनगणना की जन-सांख्यिकी हितधारकों के ऐसे छोटे-छोटे समूहों के जीवंत अस्तित्व का इशारा कर देगी कि किसी भी तरह से ध्रुवीकरण और स्थाई बहुमत के जुगाड़ की राजनीति के लिए दूर-दूर तक कोई मौका ही नहीं बचेगा।
इतना ही नहीं इस तूफान में हिंदुत्व का राजनीतिक छाता ही उलट जायेगा! सवर्ण हिंदुओं के अपने बहुसंख्यक होने का दंभ का आधार ही समाप्त हो जायेगा। सवर्ण हिंदुओं का ही क्यों किसी भी जाति वर्ण धर्म के अंदर बहुसंख्यक का ‘गौरव और गर्व’ के किसी आधार के बचने की कोई उम्मीद नहीं रह जायेगी।
मामला सिर्फ आरक्षण तक सीमित नहीं रह जायेगा; हिस्सेदारी और भागीदारी के लिए जन-सांख्यिकी का दबाव किस रूप में पड़ेगा कुछ भी कहना मुश्किल है। ऐसे में अपने ‘बहुसंख्यक’ होने की स्थिति का अचानक ‘अल्पसंख्यक’ होने में बदलना हतप्रभ कर देनेवाला होगा।
जातिवार जनगणना की सफलता से, एक करने के नाम पर ‘शोषण के लिए एकत्र’ किये जाने की राजनीति का पर्दाफाश अधिक तेजी से शुरू हो जायेगा। हिंदुत्व की राजनीति की अपराजेय युक्ति की उक्ति का असर बेकार होता जायेगा।
हिंदुत्व की राजनीति इस बात को आसानी से समझ और स्वीकृत न कर पाये, तो सामाजिक संघर्ष राजनीतिक रूप से अधिक कंटीला होने की तरफ बढ़ सकता है।
इससे क्रांति, प्रति-क्रांति और फिर क्रांति के दौर की गतिमयता में गुणात्मक परिवर्तन हो जायेगा। साफ-साफ कहने की इजाजत हो तो नफरती माहौल के सर्वाधिक शिकार वामपंथ की सिद्धांतकी यहां बहुत काम की हो सकती है। उपद्रव-ग्रस्त दुनिया में संतुलन और संतोष में समानता के विभिन्न तत्वों को संजोने में समाजवाद का अनुभव बहुत काम का हो सकता है।
सुननेवाले समाजवाद की पग-ध्वनि सुन पा रहे हैं। यह ठीक है कि समय के सारे सवालों के जवाब पारंपरिक वामपंथ या समाजवाद के पास नहीं हैं। लेकिन यह भी सच है कि सारे सवालों के जवाब तो पूंजीवाद और ‘उदारवादी राजनीति’ के पास भी नहीं हैं।
‘समन्वय की दृष्टि’ इस समय के वैश्विक झमेले से बाहर निकलने का रास्ता सुझा सकता है। जहां तक भारत की बात है, भारत के पहले के नायकों के प्रासंगिक बने रहने और आनेवाले ‘नायकों’ के बनने का पहला और आखिरी गुण होगा, न्याय के प्रति आग्रहशील स्वभाव।
वास्तविक अर्थ में न्याय-विमुख या किसी अर्थ में न्याय-विमुख दिखनेवाला, व्यक्ति तात्कालिक रूप से चाहे जितना भी शक्तिशाली हो जाये मिलनसारी संस्कृति से संपन्न भारत का नायक नहीं हो सकता है। समझ में आने लायक बात है कि दूसरे को दोष दे कर संतोष बटोरने की राजनीति को समाप्त करने का समय आ गया है।
तर्कशील चयन का प्राकृत-बोध मतदाता समाज के मन में सक्रिय हो गया है। बहुत हो गया तर्कहीन चयन का संस्थागत अत्याचार!
नफरती बयान की कर्कशता न अब डरा पायेगी और न भाषा की लयात्मकता सम्मोहन पैदा कर पायेगी। आम लोगों को पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक सभी को ‘न्याय चाहिए’, सभी को उनकी समस्याओं का समाधान चाहिए।
भाषा की लयात्मकता का इस्तेमाल सामाजिक लयात्मकता के विरुद्ध! कहना न होगा कि भाषा की लयात्मकता का इस्तेमाल सामाजिक लयात्मकता के विरुद्ध किये जाने की कर्कश और कलह-प्रिय प्रवृत्ति की राजनीति का पर्दाफाश हो चुका है, समवाय एव साधुः!