अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

 मुझे हरपल बस ‘तुम’ चाहिए

Share

         नग़मा कुमारी अंसारी 

फिल्म की  शुरुआत तो मानो अंत की ऐसी त्रासद कथा है कि उस पर क्या ही बात करें! तो फिर कहानी की शुरुआत पर बात करते हैं. फिल्म का दृश्य शुरू होता है जुलाई 2006 में जबकि कहानी शुरू होती है जुलाई 1988 में.    

       किसी नामालूम संत का कोई दिन है और डेक्सटर अपनी दिलफरेब मुस्कान के साथ एमा से कहता है कि मान्यता है कि इस दिन बारिश हो जाए तो समथिंग समथिंग होता है. बारिश तो हुई नहीं पर उनका समथिंग हर साल इसी पंद्रह जुलाई को ज़रूर मिलने के रूप में हुआ.

*वे दोस्त हैं पर उससे कुछ ज्यादा भी तो!*

     जाने कितनी फ़िल्में बनी हैं न दोस्त से ही प्रेम होने को लेकर, या फिर दोस्ती में प्रेम होने और उस प्रेम को समझ न पाने पर. कई फ़िल्में इस कांसेप्ट पर भी बनी हैं कि प्रेम जिन दो लोगों को होता है वे ज़िंदगी में बार-बार टकराते हैं लेकिन वह टकराना उनको यह अहसास कराने के लिए है कि वही एक दूजे के लिए बने हैं.

       इस फिल्म में तो दोनों दोस्त भी नहीं हैं, कॉलेज के तीन साल ख़त्म होने पर जब वाकई एक दूसरे से परिचित होते हैं तब जाकर दोस्ती की शुरुआत होती है. ऐसी दोस्ती जिसमें शुरू से ही पता है कि सामने वाला मुझे दोस्त से कुछ ज्यादा मानता है. little too much than just friend. 

     ऐसे मानने और जानने की बाद भी गाढ़ी दोस्ती संभव है. ऐसी दोस्ती जिसमें दिल टूटने और बिखर जाने के तमाम पलों में कहा जा सके ‘मुझे किसी से बात करने का मन है. न किसी से नहीं तुमसे.’

*मुझे हर पल बस ‘तुम’ चाहिए*

        मुझे ‘तुम’ चाहिए. इसमें आवेग, अधिकार और समर्पण का कैसा मेल होता है न? कोई और नहीं, बस तुम. तुम ही हो मेरे मर्ज़ की इलाज, तुम ही हो मेरी नज़र का भरोसा, तुम ही मेरे दिल का करार. ऐसा ‘तुम’ मिलकर बिछड़ते रहता है. सालों एक नामालूम से संत के दिन कुछ पलों से मिलने को. मिलने और बिछड़ने के दौर में वे दोनों एक छुट्टी पर साथ जाते हैं और अपनी दोस्ती को टूटने से बचाने के लिए वह कुछ नियमों की एक लिस्ट बनाती है, जिसपर वह शरारत भरी मुस्कराहटों से हामी भरता रहता है. 

     हमें पता है एमा को देख जिस तिर्यक मुस्कान में डेक्सटर के होंठ मुड़ते हैं वह इन नियमों में नहीं बंधेगा. पर हमारे कयासों पर पानी फेरता यह छुट्टी का वक़्त उनको प्रेमी-प्रेमिका में बदले बिना बीत जाता है. एक ही कमरे में वे बिना संभोग के प्रेमी और बिना किसी बेनिफिट के फ्रेंड्स रहते हैं. मुझे झील के विस्तृत तट के बाद बने रेस्तरां में एमा के बालों से खेलता डेक्सटर कितना मोहक लगता है बता नहीं सकती. वहाँ एमा बताती है कि कॉलेज के दिनों में  उसका उस पर क्रश रहा है. पर हम तो पहले ही बाथरूम के दृश्य में जान चुके होते हैं. 

*प्यार एक बात है और पसंद  दूसरी*

उस पंद्रह जुलाई को वह कह देती है कि अब भी तुमसे बेहद मोहब्बत करती हूँ पर क्या क्या करूँ कि ये वाले तुम मुझे पसंद नहीं हो. वह जिस व्यक्ति में बदल गया है और जिसे दोस्त के रूप में उसकी परवाह तो है पर सुनने को वक़्त ही नहीं है.

       उसे जानना ही नहीं कि उसकी जिंदगी में क्या चल रहा. हमेशा दोनों एक दूसरे के भावात्मक सहारे रहे पर अब वह कहीं किसी ट्रांस में है. हिम्मत की बात है न जिससे प्रेम हो  उससे यह कहना कि तुम मुझे पसंद नहीं रहे. 

   पर उससे कहा जा सकता है जिसके साथ पहली रात एक बिस्तर में सोकर भी बिना कुछ किए हुए बितायी जाए; जिसके सामने निर्वस्त्र झील में सहजता से कूदा गया हो. 

*मैं अकेली हूँ पर तनहा नहीं*

      जुलाई का सालाना मिलना बंद है पर क्या वे सच में एक दूसरे से इतने दूर हैं? दोनों ही तनहा हैं फर्क यह है कि वह पिता बनने वाला है और वह लेखिका. ज़िंदगी  में अब कुछ कुछ स्थिरता सी दिखनी लगी है.

     एक दूसरे को खुशखबरी देते हुए कहते हैं वे कि बहुत बहुत मिस किया. वह उनके शब्दों से नहीं चुम्बन से दिखता है.

*मैंने सोचा कि तुमसे पीछा छुड़ा लिया है*

     जब किसी और से पीछा छुड़ाना होता है तो आसन होता है पर जब खुद के भीतर मौजूद मोह से ही भाग रहे होते हों तब? जिसे पाने की साध बरसों रही हो उसे पाते हुए डर क्यूँ लगता है? प्यासे को मानो पानी देखकर भय होता हो. 

     पीकर वैसी तृप्ति ना महसूस हो तब? जो आकुलता चाहना में रही, जो बेचैनी उम्मीद में बंधी रही उसी किस्म की पूर्णता न प्राप्त हुई तो फिर?

*उसके बगैर भी ऐसी जिंदगी जियो जैसा उसके साथ जीते*

       यह आसान नहीं है. पर किसने कहा आसन होता है पूर्णता को पाकर खो देना, गले के नीचे एक बड़े से गड्ढे में ऐसी हवा का गुबार उठता है कि दिल की धड़कन डूब जाती है.

      पर वह तुमको देख खिल उठती थी, तुम उसको पा शालीन और सधे हुए हो जाते थे. मानो उसकी बेरंग जिंदगी में तुम खिलंदड़ेपन को लेकर आते थे और तुम्हारी तमाम बेलगाम भटकन की वह एक मंजिल थी.

       जिसका साथ आपको सोबर बनाता है उसे खोकर फिर आप भी खो जाते हैं. अपनी ही बात याद आ रही है. एक दफे कहा था यहीं सत्य से ‘जब मैं तुम्हारे साथ हूँ तो सोबर हूँ.’ आह! प्रेम को खो दें तो फिर फिर मिल सकता है पर बेस्ट फ्रेंड, जिसके हाथों में हमारा मिजाज़ बनाने बिगाड़ने की कूब्बत है नहीं खोना चाहिए. डेक्सटर के होंठ वैसे लुभावने तरीके से फिर नहीं मुड़ते पांच सालों बाद भी. पर वह कोशिश कर रहा है वैसे ही जीने का जैसे  उसके होने पर जीता.

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें