अग्नि आलोक
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“10,000 मेमोरीज़: अ लिव्ड हिस्ट्री ऑफ़ पार्टीशन”….दुःख हमें विरासत में मिलते हैं और सुख कभी विरली लाटरी लगने पर

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दुःख हमें विरासत में मिलते हैं और सुख कभी विरली लाटरी लगने पर ज़िन्दगी के तिराहे पे. या फिर सुख के पल फ़िल्मों में देखे और किताबों में पढ़े जाते हैं. सुख एक फ़लसफ़ा है, जिसके बारे में बात की जा सकती है जबकि दुःख और दर्द सच्चाई है, जो महसूस की जाती है, झेली जाती है.आजकल मेरी मेज़ पे दर्द और दुःखों का एक पुलिंदा पसरा है, जिसे हाथ में उठाकर सुबह-शाम मैं सुबक लेता हूँ, रो लेता हूँ और हज़ारों-लाखों परिवारों के साथ हुए शर्मनाक और दर्दनाक हादसों, क़त्लेआम, लूट-पाट, आगज़नी, फ़साद और तशद्दुद के बारे में सोच के भी काँप उठता हूँ. दो मुल्कों के जिन करोड़ों लोगों पे ये सब बीती उनमें से लाखों तो कुछ महीनों चली इस दरिंदगी और वहशत में मारे गए, कुछ जो मरे नहीं और जिन्होंने ये सब देखा वो सालों ज़िंदा रह कर भी रोज़ मरते रहे. जाने कितने सौ गुमनाम पागलख़ानों और अस्पतालों में सड़ते रहे और हज़ारों लोग उस ग़म के बोझ को ढ़ोते हुए बाकि बची ज़िन्दगी को ज़िंदा लाश-सा काटते भर रहे.

दुःखों का यह पुलिंदा एक क़िताब है जिसका नाम है – “10,000 मेमोरीज़: अ लिव्ड हिस्ट्री ऑफ़ पार्टीशन”. मैं नहीं कहूंगा कि आप ये किताब पढ़ें. रहने दें, मत पढ़ें. इसे पढ़ने पर आपको अपने उस वक़्त के समाज और सोहबत पे, अपने मुल्क पे, अपने बुज़ुर्गों पे, अपने आप के इंसान होने पर भी शर्म आएगी. पर अगर आप समाज के लिए तिनका भर भी अच्छा करना चाहते हैं तो अपने बच्चों को यह पढ़ कर सुनाएँ, सिर्फ़ इसलिए की वो हैवान न बनें.

इन दस हज़ार दर्दनाक यादों के जहन्नुम में एक दुःखद क़िस्सा मेरी माँ और उनके परिवार की यादों का भी है. इनमें कुछ तो ऐसे वाक़िये हैं जो वहशत की हद के भी पार जाते हैं जिन्हें पढ़ या सुन कर आपका दिल दहल जाएगा.

मैंने मंटो और इस्मत के सारे अफ़साने पढ़े हैं, उनको पढ़ कर भी मैं रोया हूं, वो भी उसी वहशत और उसी वक़्त को बयान करते हैं पर उनके किरदारों को मैंने सिर्फ़ समझा और महसूस किया था— पर इस किताब में मैंने उनके जैसे कई किरदारों की तस्वीरें भी देखी हैं, जो सच्चाई को और भी भयावह बना देती हैं .

तारीख़ के इसी हिस्से को बयां करते कई पंजाबी, हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी अदीबों को मैंने पढ़ा है, उनके किरदारों के दर्द से मैं वाक़िफ़ हूं पर यहां इस क़िताब में उन लोगों को चेहरे मिल गए हैं, तस्वीरों वाले ये लोग उस वक़्त की गवाही देते हैं, मुझ से बात करते हैं, सामने आ खड़े होते हैं, जवाब मांगते हैं, जिरह करते हैं और मैं उनसे आंखें नहीं मिला पाता, बिल्कुल वैसे ही जैसे मेरे वालिद बतलाते थे और मैं सुन्न पड़ जाता था.

क्यों संजोते हैं हम दुःखों को, किसके लिए? क्यों इकट्ठा करते हैं, क्यों लिखते हैं, क्यों कुरेदते हैं उन्हें सालों-साल?

मैं नहीं समझता कि दुःख बांटने से कम होते हैं या मन हल्का होता है. लिखे हुए दुःख तो फैलते ही जाते हैं एक पीढ़ी से दूसरी से तीसरी, ख़त्म ही नहीं होते, भूलने ही नहीं देते आगे आने वाली नस्लों को भी. और फिर इन किताबों को, इन यादों को पढ़ कर, समझ कर कौन सीखा है आज तक? इन से मिली सीख या शिक्षा से कहाँ कम होती हैं त्रासदियां. आज का समय ही देख लीजिये – कौन रोक पाया है ग़ाज़ा में हो रहा नरसंहार. और क्या सबूत चाहिए हमें – अकेली 20वीं शताब्दी में ही जंग से करीब 11 करोड़ लोग मारे जा चुके हैं.

दुःखों और दर्दों का ये पुलिंदा बहुत भारी है.

यह क़िताब अगस्त 1947 में हुए एक मुल्क के बंटवारे के बारे में है, अपने घरों, अपनों और अपनी ज़मीन से बेदख़ल हुए लोगों की है, जिन पर ख़ुद एक-दूसरे ने ही ज़ुल्म किए. हिन्दुस्तान और पकिस्तान से मेरी पीढ़ी के कई लोगों ने अपने माँ-बाप, दादा-दादी, दोस्तों और क़रीबी रिश्तेदारों को उम्र भर भयानक यादों से जूझते देखा है. मैंने तो देखा है. यह क़िताब उन दर्दनाक यादों की है और उस बोझ की है, जो विरासत में ये लोग हमारे लिए छोड़ गए हैं.

कहते हैं कि अपने पूरे जीवन में आदमी दुःख अधिक झेलता है और उसकी ख़ुशियों के दिन कम ही होते हैं. गूगल खंगालने से भी यही नतीजा निकलता है. गूगल तो इस बात की ताईद भी करता है कि पिछले दो हज़ार साल में लिखे गए साहित्य में दुःखद कहानियां की तादाद कहीं ज़्यादा है. ट्रेजेडी या दुःखद अंत तलाशना अधिक सम्मोहक होता है. फिल्मों में भी ख़ुशी की तुलना में अभी तक ट्रेजेडी ही ज़्यादा बिकती है. याद कीजिए दिलीप कुमार और मीना कुमारी को.

हमारे धर्म ग्रंथों में भी तो कितने सारे दुःख दर्शाए गए हैं. रामचरितमानस को ही ले लीजिए – श्रवण कुमार के माता-पिता का दुःख, राजा दशरथ का दुःख, बनवास को जाते हुए राम की माता का दुःख, भाई भरत का दुःख, अयोध्या वासियों के दुःख, वनवास में राम, लक्ष्मण और सीता के कितने ही दुःख, शूर्पणखा का दुःख, सुग्रीव का दुःख, सीता हरण का दुःख, लंका नरेश रावण और उसके भाइयों और बेटे के वध का दुःख और फिर अंत में सीता को घर से निकाले जाने का दुःख. ईसा मसीह के सूली पर चढ़ाये जाने का दुःख, कर्बला की जंग में अली हसन की शहादत का दुःख. कितने गिनोगे ?

इस क़िताब में सच्ची दास्तानें हैं, आप बीते और झेले ज़ुल्म और ग़म हैं. इतने दर्द हैं कि एक को पढ़ने के बाद लगता है दूसरा किसी और जनम, किसी और साल में पढ़ेंगे. आपने कभी कहीं सुना है कि एक माँ अपने नए जन्मे बेटे को अस्पताल में इस लिए छोड़ आई क्यूंकि उसे पैदा करने वाली दाई दूसरे मज़हब की थी. अपने जीते-जी कितने क़िस्से आपने सुने हैं जहाँ घर के एक बड़े ने अपने हाथों से अपने दो मंज़िला घर को आग लगा दी हो जिसमें उस वक़्त उसकी तीन बेटियों और माँ अंदर रही हों. लोहे की आँखें, पत्थर दिल और बेग़ैरत जिगरा हो तो आगे पढ़िए वर्ना यहाँ से लौट जाइए.

नीचे लिखे कुछ हिस्सों का अंग्रेज़ी की इस किताब से अनुवाद किया गया है. इन सब को आप से साझा करते हुए अच्छा तो नहीं लग रहा पर यह सच्चाई मैं छुपा भी नहीं सकता. बहुत ही भयावह और दर्दनाक घटनाएं, वारदातें, प्रसंग और वृत्तांत नहीं दे रहा हूँ. बस वो जिन से आपको इन दुःखद यादों और ट्रेजेडी का अंदाज़ा हो जायेगा.

किताब शुरू होते ही पहले कुछ पन्नों में पाठक को यह सलाह दी गई है: पाठक को समझ और विवेक से सोचने की सलाह दी जाती है. इस पुस्तक की सामग्री कुछ पाठकों के लिए भावनात्मक रूप से चुनौतीपूर्ण हो सकती है. गवाहों की यादों में सांप्रदायिक हिंसा, आत्महत्या, अपहरण, ऑनर किलिंग, युद्ध, लैंगिक हिंसा, क़त्ल, मौत, माली नुकसान, दंगे, चोरी, धार्मिक समूहों के प्रति अपमानजनक भावनाएं और हिंसक घटनाओं के मनोवैज्ञानिक प्रभावों से निपटने पर संभावित रूप से परेशान करने वाली यादें शामिल हो सकती हैं. पाठक को विवेक से काम लेने की सलाह दी जाती है और 18 वर्ष से कम आयु के युवाओं के लिए माता-पिता के मार्गदर्शन का अनुरोध किया जाता है.

नीचे दिए गए लोगों के नाम, उनके घर गाँव या शहर के नाम सब सच्चे और असली हैं.
बेअंत सिंह रावलपिंडी से मेरठ आए
मेरा जन्म पुंछ कश्मीर में हुआ था. जब मेरा जन्म हुआ, तो कश्मीर में बहुत बर्फ़बारी हुई थी. इस वजह से, मेरे जन्म के बाद हम 15 दिनों तक अस्पताल में फंसे रहे. वहां मेरी देखभाल करने वाली महिला और मुझे खाना खिलाने वाली महिला मुस्लिम थीं. जब मेरी मां को उनके धर्म के बारे में पता चला, तो उन्होंने मुझे घर ले जाने से इनकार कर दिया और मुझे मुस्लिम महिला को सौंप दिया कि वह मुझे अपनी औलाद की तरह पालें. पहले पाँच सालों तक मैं अपने परिवार को नहीं जानता था. जब मेरे पिता की मौत हुई तो मेरी माँ ने रावलपिंडी वापस जाने का फ़ैसला किया. तब मेरी धाय माँ ने मेरी असली माँ से मुझे वापस ले जाने को कहा क्योंकि वह मेरी ज़िम्मेदारी नहीं उठा सकती थीं. यह पहली बार था जब मैं अपनी माँ और भाई-बहनों से मिला था. हालाँकि मेरी माँ मुझे वापस ले जाने के लिए राज़ी हो गई थीं, लेकिन उसने कभी भी मेरे साथ मेरे बाक़ी दो भाइयों जैसा सलूक नहीं किया इसलिए 14 साल की उम्र में मैं हिन्दुस्तान चला आया.

न. क., (पूरा नाम नहीं बताया), शहीद भगत सिंह नगर ज़िले में रहती थीं
जब हमारी माँ हमारे लिए दूध लाती थी, तो हमें डर होता था कि दूध में ज़हर है और हम ये सोचते थे कि इससे पहले कि भीड़ हमारा अपहरण और बलात्कार कर सके, हमारे पिता ने हमें मारने का फ़ैसला किया था. जब मेरे पिता ने आस-पास के गाँवों से मुसलमानों को बाहर निकाल भगाया, तो हमारा सामूहिक भय समाप्त हो गया.

रोशन लाल, भरमौर, चम्बा से
बंटवारे की अफ़वाहों के चलते हिन्दू बिरादरी के लोगों ने डर फैलाया और इसे मौक़ा बना कर मुसलमान लोगों को इलाक़े से खदेड़ दिया.

खान हुसैन ज़िआ, जालंधर से लाहौर गए
क़त्ले आम, रिफ़्यूजी लोगों की परेशानियों और बंटवारे के बीच लाहौर में तेज़ बाढ़ आ गई. वहां दो लोगों की ड्यूटी इस काम पर लगाई गई कि लूटे हुए सामान का बंटवारा कैसे करना है.

देवराज सिक्का, जमपुर (पाकिस्तान) से लुधियाना आए
अक्टूबर के महीने में दौरे पर आए, महात्मा गांधी ने पाकिस्तान से आए हुए शरणार्थियों से आग्रह किया कि वे शहर के मुस्लिम निवासियों को बेदख़ल नहीं करें. फिर भी कुछ दिनों बाद शरणार्थियों ने मुसलमानों को जबरन बाहर निकाल दिया. मुझे अफ़सोस है कि हमें खाना पकाने के ईंधन के तौर पर कई घरेलू पुस्तकालयों की कुछ ऐतिहासिक पांडुलिपियों को जलाने के लिए मजबूर होना पड़ा.

कृष्ण लाल, पिंडी
दोनों तरफ़ अपने ही लोग थे, दोनों क़ौमों मिल-जुल के रहती थीं, दोनों मज़हब के लोग भी मुहल्लों में इकट्ठा ही रहते थे, हैरत है फिर भी ये सब हुआ. आख़िरकार जब हम पटियाला आ गए, तो बच्चा होते हुए भी मैंने मज़दूरी की था और एक साल तक स्कूल नहीं गया. मैं अलग-अलग गांवों से अंडे इकट्ठा करता और लोगों को घर-घर जा के बेचता था.

अंतरिक्ष यात्री कल्पना चावला के पिता बनारसी लाल चावला शेखपुरा, लाहौर से करनाल आए
लोग अपना सामान ट्रेन में चढ़ाने लगे. पर उनके चढ़ने से पहले ही ट्रेन उनका सामान लेकर रवाना हो गई. वहाँ एक ख़ाली मस्जिद थी, जहाँ हम लगभग नौ साल तक रहे. मैंने टॉफियाँ बेचकर कुछ पैसे कमाए. उस से ज़्यादा कमाई नहीं होती थी. आख़िरकार मैंने मस्जिद में रहते हुए शादी कर ली. मेरी तीन बेटियाँ और एक बेटा था. हमारी सबसे छोटी बेटी कल्पना थी.

मिल्खा सिंह, (नामवर धावक) बस्ती बुखारी, कोट अड्डू मुज़फ़्फ़रगढ़ से दिल्ली आए
मैंने अपने पिता को बहादुरी से लड़ते हुए देखा और मुझे उन पर तलवार से हमला होते देखना याद है. जब वह घायल हो कर गिर गए, तो वह चिल्लाये, “भाग मिल्खा, भाग” कि अपनी हिफाज़त के लिए मैं वहाँ से भाग जाऊं.
1947 का विभाजन अधिक जटिल था क्योंकि दोनों पक्ष पीड़ित भी थे और अपराधी भी.
दूसरे विश्व युद्ध वाले यहूदियों पर ज़ुल्म में एक तरफ़ के लोग, जर्मन, अपराधी थे और दूसरे शिकार ग्रस्त या पीड़ित थे. उसे हिंसा को समझना आसान था क्योंकि आघात को एक तरफ़ और अपराध को दूसरी तरफ़ जिम्मेदार ठहराया जा सकता था. – अनिरुद्ध काला ,1947 में पैदा हुए

शेर सिंह कुक्कल (सिख), बफ़ा, ख़ैबर पख़्तूनख़्वा से गोरखपुर आए
सन 1947 में कई लोगों ने धर्म और पहचान बदलना शुरू कर दिया था . 10 अगस्त से पहले, एक रात धमकी देने वाली मुनादी हुई और हमारे मुस्लिम दोस्तों ने हमें अचानक होने वाले हमले की चेतावनी दी. उन्होंने एक ट्रक मंगा कर हमें महफूज़ जगह पर ले जाने का इंतज़ाम किया.

इकबाल बीबी, क्वेटा, बलूचिस्तान से होशियारपुर, पंजाब आईं
मुझे अपनी इज़्ज़त और अपनी जान का डर था. मैंने ख़ुद को कीचड़ और गंदगी में छिपा लिया ताकि मैं उन को बदसूरत दिखूं और वे मुझ पर ध्यान ही न दें. दंगाई ख़ासतौर पर रिफ़्यूजी कैम्पों में रहने वाली और अच्छी दिखने वाली औरतों को अगुवा कर उनका बलात्कार कर रहे थे.

अवतार कौर ढिल्लों मुज़फ्फराबाद कश्मीर से जम्मू आईं
मुझे सब साफ़-साफ़ याद है. भागते हुए हमारा परिवार अपना कोई सामान साथ नहीं ले आ सका, इसके बजाय बुज़ुर्गों ने हमारे घर में आग लगा दी और हमारे पास जो कुछ भी था उसे जला दिया. मुझे याद है कि बड़ी उम्र के लोगों ने अपने बच्चों की प्यास बुझाने के लिए गीली मिट्टी को कपड़े की थैलियों में रखकर उसमें से निचोड़कर पानी निकाला. हमारे पास खाने के लिए कुछ नहीं था. मेरी दो बहनों की पुंछ में मौत हो गई. कई लोग भूख से मर गए और बच्चे दूध की कमी से मर गए.

सुचवंत सिंह, कोटली मुज़फ़्फ़रबस्द कश्मीर से श्रीनगर कश्मीर
अपने घर से निकलकर जब हम अगले गाँव पहुँचे, तो हमने फिर से अपनी माँ और भाई-बहनों के बारे में पूछा. वहां के लोगों ने मेरी दादी को बताया कि उनके परिवार के एक सदस्य ने अपने सम्मान की रक्षा के लिए मेरी मां और बहन को मार डाला है. मेरी चचेरी बहनें, जिनका अपहरण कर उनका धर्म परिवर्तन कराया गया था, वे आज भी सीमा पार रहती हैं.

मोहम्मद इक़बाल, भारेवाल, सियालकोट से (बचपन का नाम:मदन)
हिंसा के दौरान मेरे दादाजी को उनके गन्ने के खेत में घात लगाकर मार दिया गया. उनकी हत्या के बाद, मेरे परिवार ने इस्लाम धर्म अपना लिया और हमने मेरे दादाजी को गांव में ही दफ़्ना दिया. मेरी आख़िरी इच्छा है कि समय के ख़िलाफ़ दौड़ हारने से पहले मैं अपनी बहन महिंदर जी से आख़िरी बार मिलूं. बंटवारे के दौरान मुझे बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ा – सबसे बड़ा दुःख अपने माँ-बाप और भाइयों से अलग होना था. जब मैं अकेला होता, तो रोता था.

नूर दीन के पुत्र लालदीन सिंह, जिनका परिवार तंगोरी, चंडीगढ़ से पस्सु पाकिस्तान गया
जब परिवारों को छुपते हुए या दुश्मन से बचते हुए रिफ़्यूजी कैंप में जाना पड़ता था, या सरहद पार करनी होती थी, तो कुछ डरपोक लोग अपने बच्चों को पीछे छोड़ देते थे, क्योंकि बच्चे अक्सर शोर मचाते थे, जिससे भागने वाले पकड़े जा सकते थे या पूरा परिवार मारा जा सकता था.

विलायत ख़ान, (रागी) गोस्लान पिंड, लुधियाना से पाकिस्तान में सर्गे चले गए थे
सदमा इतना था कि वहां पहुँचने के बाद मैं गाना भूल गया, इनमे वो गीत और कविताएं भी शामिल थीं जो मैं बंटवारे से पहले बचपन से गाता आया था. वहां मेरी कला की सराहना करने वाला भी कोई नहीं था. रोटी कमाने और ज़िंदा रहने के लिए, मैंने भेस बदल कर लकड़ी काटने जैसे छोटे-मोटे काम किए. हिन्दुस्तान में गोस्लान वापस लौटने के बाद मेरा संगीत मेरे पास वापस आ गया. तब से, मैंने गाना जारी रखा है और ढद्दी लोक संगीत में पहचान बनाई. संगीत नाटक अकादमी ने 2009 में पुरस्कार देकर मुझे सम्मानित भी किया.

एम.के. (पूरा नाम नहीं बताया), जिला नारनौल
हमने गांव के लंबरदार की बंदूक चुरा ली और अपने गांव में कीकर के पेड़ पर चढ़ गए. पहले दो लोग जो हमारे पास से गुज़रे, हमने उन्हें गोली मार दी. यह कोई जंग नहीं थी – यह नारोवाल में कर्बला था.

रोमिला थापर जो बंटवारे के समय पूना में रहती थीं
आज़ादी की लड़ाई ने प्राचीन भारतीय इतिहास के प्रति जुनून पैदा कर दिया था क्योंकि कई लोग इस सवाल से जूझ रहे थे कि हम कहां से आए हैं और भारतीय होने का क्या मतलब है. जबकि हमें यह पूछना चाहिए था कि एक स्वतंत्र राष्ट्र होने का क्या मतलब है.

10,000 मेमोरीज़: इस पहली किताब में 1,000 से ज़्यादा तस्वीरें हैं और हर पन्ने पर लोगों से हुई मार्मिक बातों के कुछ हिस्से हैं जो पढ़ने वालों के लिए उस समय का इतिहास सामने लाती हैं. प्रकाशक इस श्रृंखला में 50 और किताबें निकालेंगे. प्रकाशक ने अपने नोट में लिखा है कि “10,000 मेमोरीज़ कई वर्षों की कड़ी मेहनत का परिणाम है जिसमें अखिल-दक्षिण एशिया स्तर पर भारतीय उपमहाद्वीप में सैकड़ों मौखिक इतिहासकारों द्वारा लिए गए साक्षात्कार शामिल हैं. सरकारी रिकॉर्ड और अन्य समकालीन स्रोतों के आधार पर विभाजन के विशिष्ट इतिहास के विपरीत, यह अध्ययन उन जीवित मानवों के जीवित इतिहास के प्रति एक नया दृष्टिकोण प्रदान करता है, जो व्यापक सामाजिक संदर्भ में भू-राजनीतिक महत्व की उस अविस्मरणीय घटना के कारण पीड़ित हुए थे. निश्चय ही यह विभाजन के उत्कृष्ट अध्ययन का साधन बनेगा.”

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