सुधा सिंह
संस्कारों का बोलबाला अब नहीं है. इसलिए भी आज संस्कारहीन, कुसंस्कारी संतानों के करनाने सामने हैं. संस्कार अब बिल्कुल नहीं फॉलो किए जाते हैं, ऐसा भी नहीं. जो भी है, इनको हमारी पीढ़ी को बताना तो चाहिए ही ताकी वे अगली पीढ़ी तक इन्हें ट्रांसफर कर सकें.
ये हैं 16 संस्कार :
1.गर्भाधान
2. पुंसवन
3.सीमन्तोन्नयन
4.जातकर्म
5.नामकरण
6.निष्क्रमण
7.अन्नप्राशन
8.मुंडन/चूडाकर्म
9.विद्यारंभ
10.कर्णवेध
11. यज्ञोपवीत
12. वेदारम्भ
13. केशान्त
14. समावर्तन
15. विवाह
16.अन्त्येष्टि/श्राद्ध
*1.गर्भाधान संस्कार :*
हमारे शास्त्रों में मान्य सोलह संस्कारों में गर्भाधान पहला है। गृहस्थ जीवन में प्रवेश के उपरान्त प्रथम कर्त्तव्य के रूप में इस संस्कार को मान्यता दी गई है। गार्हस्थ्य जीवन का प्रमुख उद्देश्य श्रेष्ठ सन्तानोत्पत्ति है।
उत्तम संतति की इच्छा रखनेवाले माता-पिता को गर्भाधान से पूर्व अपने तन और मन की पवित्रता के लिये यह संस्कार करना चाहिए। दैवी जगत् से शिशु की प्रगाढ़ता बढ़े तथा ब्रह्माजी की सृष्टि से वह अच्छी तरह परिचित होकर दीर्घकाल तक धर्म और मर्यादा की रक्षा करते हुए इस लोक का भोग करे यही इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है।
विवाह उपरांत की जाने वाली विभिन्न पूजा और क्रियायें इसी का हिस्सा हैं.
*2.पुंसवन संस्कार :*
गर्भ के तीसरे माह में विधिवत पुंसवन संस्कार सम्पन्न कराया जाता है, क्योंकि इस समय तक गर्भस्थ शिशु के विचार तंत्र का विकास प्रारंभ हो जाता है। शास्त्रों में गर्भ को पूज्य माना गया है, क्योंकि माता के गर्भ के माध्यम से जो जीव मनुष्य रूपी संसार का हिस्सा बनना चाहता है उसे खासतौर पर ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता है।
गर्भ ठहर जाने पर भावी माता के आहार, आचार, व्यवहार, चिंतन, भाव सभी को उत्तम और संतुलित बनाने का प्रयास किया जाता है।हिन्दू धर्म में, संस्कार परम्परा के अंतर्गत भावी माता-पिता को यह तथ्य समझाए जाते हैं कि शारीरिक, मानसिक दृष्टि से परिपक्व हो जाने के बाद, समाज को श्रेष्ठ, तेजस्वी नई पीढ़ी देने के संकल्प के साथ ही संतान पैदा करने की पहल करें।
उसके लिए अनुकूल वातवरण भी निर्मित किया जाता है। वेद मंत्रों, यज्ञीय वातावरण एवं संस्कार सूत्रों की प्रेरणाओं से शिशु के मानस पर तो श्रेष्ठ प्रभाव पड़ता ही है, अभिभावकों और परिजनों को भी यह प्रेरणा मिलती है कि भावी माँ के लिए श्रेष्ठ मनःस्थिति और परिस्थितियाँ कैसे विकसित की जाए।
इसके अलावा गर्भवती स्त्री को इस बात का आश्वासन देना भी अनिवार्य होता है कि, वो शिशु के गर्भ में रहने के दौरान हर प्रकार के ईर्ष्या, क्रोध, दोष और अन्य प्रकार के सभी विकारों से खुद को दूर रखेगी और शिशु के उज्जवल भविष्य की कामना में ही अपना ज्यादातर समय देगी।
*3.सीमन्तोन्नयन :*
सीमन्तोन्नयन को सीमन्तकरण अथवा सीमन्त संस्कार भी कहते हैं। सीमन्तोन्नयन का अभिप्राय है सौभाग्य संपन्न होना। गर्भपात रोकने के साथ-साथ गर्भस्थ शिशु एवं उसकी माता की रक्षा करना भी इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है।
इस संस्कार के माध्यम से गर्भिणी स्त्री का मन प्रसन्न रखने के लिये सौभाग्यवती स्त्रियां गर्भवती की मांग भरती हैं। यह संस्कार गर्भ धारण के छठे अथवा आठवें महीने में होता है।
*4.जातकर्म :*
जब महिला को प्रस्व का दर्द शुरू होता है ,तब दीवाल पर उससे एक तेल का हाथ लगवा देते हैं और सवा किलो गेहूं नीचे रख कर उसके दो भाग करा देते है और अपने पितरों को भी याद करके प्रार्थना करते है।
बच्चा के जन्म लेते ही घड़ी देखते है फ़िर घर के बुजुर्ग व्यक्ति से एक गुड का गोला बना कर घी लगाकर पिंड दान के नाम पर गेहूं के पास रख देते हैं। ऐसा करने से हमारी तीन पीढ़ी के पितर तृप्त हो कर स्वर्ग चले जाते है और उसके बाद बच्चे का नाल काटते है।
नवजात शिशु के नालच्छेदन से पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। इस दैवी जगत् से प्रत्यक्ष सम्पर्क में आनेवाले बालक को मेधा, बल एवं दीर्घायु के लिये स्वर्ण खण्ड से मधु एवं घृत गुरु मंत्र के उच्चारण के साथ चटाया जाता है। दो बूंद घी तथा छह बूंद शहद का सम्मिश्रण अभिमंत्रित कर चटाने के बाद पिता बालक के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की प्रार्थना करता है।
इसके बाद माता बालक को स्तनपान कराती है।इसके बाद सूतक माना जाता है जो पाँच दिन का होता है।
लड़की की छठी पञ्च दिन में और लड़का की छठी छः दिन में करते है । इस दिन जच्चा बच्चा स्नान करते है और इस सफाई के बाद सूतक समाप्त हो जाती है।इसके बाद शाम को जहाँ तेल का हाथ लगाया था वहां पर आटे का चौक बना कर गेहूं के ऊपर तेल का दीपक जलावें और बच्चे को गोद में लेकर चौकी पर जच्चा बैठ जावे।
घर की बुजुर्ग महिला अपने कुल देवता और छठी माता की पूजा करते हैं।बच्चे को दीपक का उजाला नही दिखाते हैं। फ़िर मूंग दाल , 6 रोटी , 6 बड़ा , 6 पुड़ी ,6 पकौड़ी ,कड़ी ,चावल ,खीर, पुआ आदि एक थाली में रख कर कुल देवता को भोग लगाते है और नन्द भाभी एक ही थाली में खाते है।
*5.नामकरण संस्कार :*
यह संस्कार बच्चे के पैदा होने के 10 दिन बाद किसी शुभ मुहुर्त पर किया जाता है। जन्म के 10 वें दिन,21 दिन में 100 वें दिन में या 1 वर्ष के अंदर जातक का नामकरण संस्कार कर देना चाहिए।
नामकरण-संस्कार के संबंध में स्मृति-संग्रह में निम्नलिखित श्लोक उक्त है- ऐसा माना जाता है कि शिशु के नाम प्रभाव उसके व्यक्तित्व व आचार-व्यवहार पर पड़ता है। अच्छा नाम उसे गुणकारी व संस्कारी इंसान बनने के लिए प्रेरित करता है। इसलिए, नाम हमेशा अर्थपूर्ण होना चाहिए।
नामकरण संस्कार के दिन शिशु को नई पहचान मिलती है, जिससे उसे जीवन भर पहचाना जाता है। यही कारण है कि हिंदू धर्म में नामकरण संस्कार का अपना महत्व है।नामकरण संस्कार के समय शिशु कन्या है या पुत्र, इसके भेदभाव को स्थान नहीं देना चाहिए।
भारतीय संस्कृति में शीलवती कन्या को दस पुत्रों के बराबर कहा गया है ।इसके विपरीत पुत्र भी कुल धर्म को नष्ट करने वाला हो सकता है। इसलिए पुत्र या कन्या जो भी हो, उसके भीतर के अवांछनीय संस्कारों का निवारण करके श्रेष्ठतम की दिशा में प्रवाह पैदा करने की दृष्टि से नामकरण संस्कार कराया जाना चाहिए।
नामकरण संस्कार से आयु एवं तेज में वृद्धि होती है। नाम की प्रसिद्धि से व्यक्ति का लौकिक व्यवहार में एक अलग अस्तित्व उभरता है।मंदिर को नामकरण संस्कार के लिए शुभ और शुद्ध स्थान माना जाता है, लेकिन अगर आप इसे घर में करते हैं, तो पहले घर की अच्छी तरह साफ-सफाई जरूर करें।शिशु तथा माता को भी स्नान कराके नये स्वच्छ वस्त्र पहनाये जाते हैं ।यदि दसवें दिन किसी कारण नामकरण संस्कार न किया जा सके तो अन्य किसी दिन, बाद में भी उसे सम्पन्न करा लेना चाहिए।
घर पर, प्रज्ञा संस्थानों अथवा यज्ञ स्थलों पर भी यह संस्कार कराया जाना उचित है ।बच्चे का नाम उसके आने वाले जीवन पर काफी प्रभाव डालता है। काफी हद तक नाम के अनुसार ही बच्चे का स्वभाव तय होता है। हिंदू धर्म में माना जाता है कि अगर शिशु का नाम उसके कुंडली के अनुसार न रखा जाए, तो उससे शिशु को भविष्य में कई परेशानियां का सामना करना पड़ता है।
इसलिए, माता-पिता अपने बच्चे का नाम बड़े ही ध्यान से रखते हैं। आमतौर पर नाम रखते समय पांच प्रकार के सिद्धांतों का पालन किया जाता है, जो इस प्रकार हैं – नक्षत्रनामा (ग्रहों की दशा के अनुसार), देवतानामा (परिवार के ईष्ट देव पर), मासनामा (महीने के आधार पर), संस्कारीकामा (सांसारिक नाम) व राशिनामा (राशि के आधार पर)।भारतीय परंपरा में बच्चे के जन्म पर उस समय और दिन के हिसाब से, सौर्यमंडल की स्थिति को देखकर नामकरण किया जाता है।
नाम सिर्फ अक्षर ही नहीं है बल्कि यह सौभाग्य, अच्छी सेहत, पैसा आदि की कुंजी है। अंकज्योतिष में भी नाम को बहुत अहमियत दी गई है। ज्योतिष विज्ञान में नाम का पहला अक्षर बहुत महत्व रखता है। दो तरह के नाम रखने का विधान है। एक गुप्त नाम जिसे सिर्फ जातक के माता पिता जानते हों तथा दूसरा प्रचलित नाम जो लोक व्यवहार में उपयोग में लाया जाये। नाम गुप्त रखने का कारण जातक को मारक , उच्चाटन आदि तांत्रिक क्रियाओं से बचाना है।
प्रचलित नाम पर इन सभी क्रियाओं का असर नहीं होता.. विफल हो जाती हैं।गुप्त नाम बालक के जन्म के समय ग्रहों की खगोलीय स्थिति के अनुसार नक्षत्र राशि का विवेचन कर के रख जाता है। इसे राशि नाम भी कहा जाता है। बालक की ग्रह दशा भविष्य फल आदि इसी नाम से देखे जाते हैं।नामकरण संस्कार के लिए अनुराधा, पुनर्वसु, माघ, उत्तरा, उत्तराषाढा, उत्तरभाद्र, शतभिषा, स्वाती, धनिष्ठा, श्रवण, रोहिणी, अश्विनी, मृगशिर, रेवती, हस्त और और पुश्य नक्षत्रों को सबसे उत्तम माना जाता है।
ज्योतिष के अनुसार, नामकरण संस्कार के लिए चंद्र दिवस के चौथे दिन, छठे दिन, आंठवें दिन, नौवें दिन , बारहवें दिन और चौदहवें दिन की तिथि उत्तम मानी जाती है। पूर्णिमा और अमावस्या तिथि पे नामकरण संस्कार बिल्कुल नहीं करना चाहिए।
*6.निष्क्रमण् :*
निष्क्रमण का अभिप्राय है बाहर निकलना। इस संस्कार में शिशु को सूर्य तथा चन्द्रमा की ज्योति दिखाने का विधान है। भगवान् भास्कर के तेज तथा चन्द्रमा की शीतलता से शिशु को अवगत कराना ही इसका उद्देश्य है। इसके पीछे मनीषियों की शिशु को तेजस्वी तथा विनम्र बनाने की परिकल्पना होगी।
उस दिन देवी-देवताओं के दर्शन तथा उनसे शिशु के दीर्घ एवं यशस्वी जीवन के लिये आशीर्वाद ग्रहण किया जाता है। जन्म के चौथे महीने इस संस्कार को करने का विधान है। तीन माह तक शिशु का शरीर बाहरी वातावरण यथा तेज धूप, तेज हवा आदि के अनुकूल नहीं होता है इसलिये प्राय: तीन मास तक उसे बहुत सावधानी से घर में रखना चाहिए।
हमारा शरीर मुख्यतया पांच चीज़ों से मिलकर बना होता है जिनमें अग्नि, वायु, मिट्टी, जल व आकाश होता है। जन्म के कुछ माह तक शिशु इनसे सीधे संपर्क नही कर सकता अन्यथा उसके शरीर में इनका संतुलन बिगड़ सकता है जो उसके लिए हानिकारक होता है। इसलिये तब तक उसे घर में रखा जाता है।
इसके बाद धीरे-धीरे उसे बाहरी वातावरण के संपर्क में आने देना चाहिए। इस संस्कार का तात्पर्य यही है कि शिशु समाज के सम्पर्क में आकर सामाजिक परिस्थितियों से अवगत हो।
*7.अन्नप्राशन संस्कार :*
अन्नप्राशन संस्कृत के शब्द से बना है जिसका अर्थ अनाज का सेवन करने की शुरुआत है। इबालक को जब पेय पदार्थ, दूध आदि के अतिरिक्त अन्न देना प्रारम्भ किया जाता है, तो वह शुभारम्भ यज्ञीय वातावरण युक्त धर्मानुष्ठान के रूप में होता है।
इसी प्रक्रिया को अन्नप्राशन संस्कार कहा जाता है। बालक को दाँत निकल आने पर उसे पेय के अतिरिक्त खाद्य दिये जाने की पात्रता का संकेत है। जब बालक 6-7 महीने का हो जाता है और पाचनशक्ति प्रबल होने लगती है तब यह संस्कार किया जाता है।
शास्त्रों में अन्न को ही जीवन का प्राण बताया गया है। ऐसे में शिशु के लिए इस संस्कार का अधिक महत्व होता है।
*8-मुंडन/चूड़ाकर्म संस्कार :*
इस संस्कार में शिशु के सिर के बाल पहली बार उतारे जाते हैं। लौकिक रीति यह प्रचलित है कि मुण्डन, बालक की आयु एक वर्ष की होने तक करा लें अथवा दो वर्ष पूरा होने पर तीसरे वर्ष में कराएँ।
यह समारोह इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि मस्तिष्कीय विकास एवं सुरक्षा पर इस सयम विशेष विचार किया जाता है और वह कार्यक्रम शिशु पोषण में सम्मिलित किया जाता है, जिससे उसका मानसिक विकास व्यवस्थित रूप से आरम्भ हो जाए।
हमारी परम्परा हमें सिखाती है कि बालों में स्मृतियाँ सुरक्षित रहती हैं अतः जन्म के साथ आये बालों को पूर्व जन्म की स्मृतियों को हटाने के लिए ही यह संस्कार किया जाता है.
लगभग हर शिशु के सिर पर जन्म से ही कुछ बाल होते हैं। इन बालों को अशुद्ध माना जाता है। हिंदू धर्म में प्रचलित मान्यता के अनुसार, 84 लाख योनियों के बाद मनुष्य योनी मिलती है। चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करते रहने के कारण मनुष्य कितने ही ऐसे पाशविक संस्कार, विचार, मनोभाव अपने भीतर धारण किये रहता है, जो मानव जीवन में अनुपयुक्त एवं अवांछनीय होते हैं।
ऐसे में पिछले सभी जन्मों के ऋण का पाप उतारने के लिए शिशु के बाल काटे जाते हैं। इसके अलावा, मस्तिष्क की पूजा करने के लिए भी यह संस्कार संपन्न किया जाता है। हिंदू परंपरा में इस संस्कार को पूरे विधि-विधान से मंत्रों का उच्चारण करते हुए संपन्न किया जाता है।
*9.विद्यारंभ संस्कार :*
जब बालक/ बालिका की आयु शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाय, तब उसका विद्यारंभ संस्कार कराया जाता है। इसमें समारोह के माध्यम से जहाँ एक ओर बालक में अध्ययन का उत्साह पैदा किया जाता है, वही अभिभावकों, शिक्षकों को भी उनके इस पवित्र और महान दायित्व के प्रति जागरूक कराया जाता है कि बालक को अक्षर ज्ञान, विषयों के ज्ञान के साथ श्रेष्ठ जीवन के सूत्रों का भी बोध और अभ्यास कराते रहें।
विद्यारंभ संस्कार एक महत्वपूर्ण धार्मिक कर्म है इसलिए प्रक्रिया पूरे विधि-विधान से पालन किया जाए तो यह बच्चे की शिक्षा में सहायक होता है।
विद्यारंभ संस्कार के दौरान मुख्य रूप सरस्वती पूजा- माता सरस्वती विद्या की देवी होती है इसलिए विद्या की प्राप्ति के लिए देवी सरस्वती के पूजन का अपना एक विशेष विधान है।
-लेखनी पूजा- शिक्षा के 2 महत्वपूर्ण शस्त्र कलम और स्याही जिनके बिना लिखना व शिक्षा प्राप्त करना असंभव है, इसलिए इनकी भी पूजा इस दौरान की जाती है।
*10.कर्णवेध संस्कार :*
हमारे मनीषियों ने सभी संस्कारों को वैज्ञानिक कसौटी पर कसने के बाद ही प्रारम्भ किया है। कर्णवेध संस्कार का आधार बिल्कुल वैज्ञानिक है। बालक की शारीरिक व्याधि से रक्षा ही इस संस्कार का मूल उद्देश्य है। प्रकृति प्रदत्त इस शरीर के सारे अंग महत्वपूर्ण हैं।
कान हमारे श्रवण द्वार हैं। कर्ण वेधन से व्याधियां दूर होती हैं तथा श्रवण शक्ति भी बढ़ती है। इसके साथ ही कानों में आभूषण हमारे सौन्दर्य बोध का परिचायक भी है।यज्ञोपवीत के पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शुक्ल पक्ष के शुभ मुहूर्त में इस संस्कार का सम्पादन श्रेयस्कर है।
*11.यज्ञोपवीत/उपनयन संस्कार :*
यज्ञोपवीत (संस्कृत संधि विच्छेद= यज्ञ+उपवीत) शब्द के दो अर्थ हैं-उपनयन संस्कार जिसमें जनेऊ पहना जाता है।
मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते है। सूत से बना वह पवित्र धागा जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। यज्ञ द्वारा संस्कार किया गया उपवीत, यज्ञसूत्र यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। इसमें सात ग्रन्थियां लगायी जाती हैं।
*12.वेदारम्भ संस्कार :*
ज्ञानार्जन से सम्बन्धित है यह संस्कार। वेद का अर्थ होता है ज्ञान और वेदारम्भ के माध्यम से बालक अब ज्ञान को अपने अन्दर समाविष्ट करना शुरू करे यही अभिप्राय है इस संस्कार का। शास्त्रों में ज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई प्रकाश नहीं समझा गया है।
स्पष्ट है कि प्राचीन काल में यह संस्कार मनुष्य के जीवन में विशेष महत्व रखता था। यज्ञोपवीत के बाद बालकों को वेदों का अध्ययन एवं विशिष्ट ज्ञान से परिचित होने के लिये योग्य आचार्यो के पास गुरुकुलों में भेजा जाता था।
वेदारम्भ से पहले आचार्य अपने शिष्यों को ब्रह्मचर्य व्रत कापालन करने एवं संयमित जीवन जीने की प्रतिज्ञा कराते थे तथा उसकी परीक्षा लेने के बाद ही वेदाध्ययन कराते थे।
असंयमित जीवन जीने वाले वेदाध्ययन के अधिकारी नहीं माने जाते थे। हमारे चारों वेद ज्ञान के अक्षुण्ण भंडार हैं।
*13.केशान्त संस्कार :*
गुरुकुल में वेदाध्ययन पूर्ण कर लेने पर आचार्य के समक्ष यह संस्कार सम्पन्न किया जाता था। वस्तुत: यह संस्कार गुरुकुल से विदाई लेने तथा गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का उपक्रम है।
वेद-पुराणों एवं विभिन्न विषयों में पारंगत होने के बाद ब्रह्मचारी के समावर्तन संस्कार के पूर्व बालों की सफाई की जाती थी तथा उसे स्नान कराकर स्नातक की उपाधि दी जाती थी। केशान्त संस्कार शुभ मुहूर्त में किया जाता था।
*14.समावर्तन संस्कार :*
गुरुकुल से विदाई लेने से पूर्व शिष्य का समावर्तन संस्कार होता था। इस संस्कार से पूर्व ब्रह्मचारी का केशान्त संस्कार होता था और फिर उसे स्नान कराया जाता था। यह स्नान समावर्तन संस्कार के तहत होता था।
इसमें सुगन्धित पदार्थो एवं औषधादि युक्त जल से भरे हुए वेदी के उत्तर भाग में आठ घड़ों के जल से स्नान करने का विधान है। यह स्नान विशेष मन्त्रोच्चारण के साथ होता था। इसके बाद ब्रह्मचारी मेखला व दण्ड को छोड़ देता था जिसे यज्ञोपवीत के समय धारण कराया जाता था।
इस संस्कार के बाद उसे विद्या स्नातक की उपाधि आचार्य देते थे। इस उपाधि से वह सगर्व गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का अधिकारी समझा जाता था। सुन्दर वस्त्र व आभूषण धारण करता था तथा आचार्यो एवं गुरुजनों से आशीर्वाद ग्रहण कर अपने घर के लिये विदा होता था।
*15.विवाह संस्कार :*
इसी संस्कार के बाद से मनुष्य के चार आश्रमों में से सबसे अहम आश्रम यानी गृहस्थ आश्रम का आरंभ होता है। इस संस्कार को समावर्तन संस्कार के बाद किया जाता है। अपनी शिक्षा दीक्षा को पूरा कर जातक गृहस्थ आश्रम की ओर बढ़ता है।
इसी संस्कार से व्यक्ति पितृऋण से भी मुक्त हो जाता है। भारतीय संस्कृति के अनुसार विवाह कोई शारीरिक या सामाजिक अनुबन्ध मात्र नहीं हैं, यहाँ दाम्पत्य को एक श्रेष्ठ आध्यात्मिक साधना का भी रूप दिया गया है।
इसलिए कहा गया है कि ‘धन्यो गृहस्थाश्रमः। सद्गृहस्थ ही समाज को अनुकूल व्यवस्था एवं विकास में सहायक होने के साथ श्रेष्ठ नई पीढ़ी बनाने का भी कार्य करते हैं।
*16. अन्त्येष्टि संस्कार/श्राद्ध संस्कार :*
किसी की मृत्यु हो जाने पर उसके मृत शरीर को वेदोक्त रीति से चिता में जलाने की प्रक्रिया को अन्त्येष्टि क्रिया अथवा अन्त्येष्टि संस्कार कहा जाता है। यह हिंदू मान्यता के अनुसार सोलह संस्कारों में से एक संस्कार है।अंत्येष्टि का अर्थ है, अन्तिम यज्ञ।
दूसरे शब्दों में जीवन यज्ञ की यह अन्तिम प्रक्रिया है। मृत्यु निकट आने पर रिश्तेदारों और पुरोहित को बुलाया जाता है,और मंत्रो व पवित्र ग्रंथों का पाठ होता है। मृत्यु के उपरांत शव को जल्द से जल्द श्मशान घाट पर ले जाते हैं, जो आमतौर पर नदी तट पर स्थित होता है। मृतक का सबसे बड़ा पुत्र और आनुष्ठानिक पुरोहित दाह संस्कार करते हैं।
इस द्वोरान परिवार के सदस्यों को अपवित्र समझा जाता है। और उन पर कुछ वर्जनाएं लागू रहती हैं। इस अवधि में वे अनुष्ठान करते है। ताकि आत्मा अगले जीवन में प्रवेश कर ले। इन अनुष्ठानों में दूध और जल तथा अधपके चावल के पिंडों का अर्पण शामिल है। मृतकों के सम्मान में निश्चित तिथियों पर संबंधियों द्वारा श्राद्ध किए जाते हैं।
भारतीय संस्कृति ने यह तथ्य घोषित किया है कि मृत्यु के साथ जीवन समाप्त नहीं होता, अनन्त जीवन श्रृंखला की एक कड़ी मृत्यु भी है, इसलिए संस्कारों के क्रम में जीव की उस स्थिति को भी बाँधा गया है। जब वह एक जन्म पूरा करके अगले जीवन की ओर उन्मुख होता है,तो कामना की जाती है कि सम्बन्धित जीवात्मा का अगला जीवन पिछले की अपेक्षा अधिक सुसंस्कारवान् बने।
इस निमित्त जो कर्मकाण्ड किये जाते हैं, उनका लाभ जीवात्मा को क्रिया-कर्म करने वालों की श्रद्धा के माध्यम से ही मिलता है। इसलिए मरणोत्तर संस्कार को श्राद्धकर्म भी कहा जाता है। यों श्राद्धकर्म का प्रारम्भ अस्थि विसर्जन के बाद से ही प्रारम्भ हो जाता है।निश्चित तिथि को श्मशान से एकत्रित अस्थि अवशेष को नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है।
कुछ लोग नित्य प्रातः तर्पण एवं सायंकाल मृतक द्वारा शरीर के त्याग के स्थान पर या पीपल के पेड़ के नीचे दीपक जलाने का क्रम चलाते रहते हैं। मरणोत्तर संस्कार अन्त्येष्टि संस्कार के तेरहवें दिन किया जाता है। जिस दिन अन्त्येष्टि (दाह क्रिया) होती है, वह दिन भी गिन लिया जाता है।
कहीं-कहीं बारहवें दिन की भी परिपाटी होती है। बहुत से क्षेत्रों में दसवें दिन शुद्धि दिवस मनाया जाता है, उस दिन मृतक के निकट सम्बन्धी क्षौर कर्म कराते हैं, घर की व्यापक सफाई-पुताई शुद्धि तक पूर्ण कर लेते हैं, जहाँ तेरहवीं ही मनायी जाती है, वहाँ यह सब कर्म श्राद्ध संस्कार के पूर्व कर लिये जाते हैं।प्रत्येक शुभ कार्य के प्रारम्भ में माता-पिता,पूर्वजों को नमस्कार प्रणाम करना हमारा कर्तव्य है।
ऋषियों ने वर्ष में एक पक्ष को पितृपक्ष का नाम दिया, जिस पक्ष में हम अपने पितरेश्वरों का श्राद्ध,तर्पण, मुक्ति हेतु विशेष क्रिया संपन्न कर उन्हें अर्ध्य समर्पित करते हैं। यदि कोई कारण से उनकी आत्मा को मुक्ति प्रदान नहीं हुई है तो हम उनकी शांति के लिए विशिष्ट कर्म करते हैं।