30 फीसदी प्रवासी श्रमिक ही अपने गांव और शहर के काम से संतुष्ट
मप्र के साढ़े सात लाख से अधिक प्रवासी श्रमिकों में से सवा पांच लाख अपने काम पर लौटे
वर्ष 2020 में कोरोना संक्रमण फैलने के बाद किए गए लॉकडाउन में देश के बड़े शहरों और औद्योगिक क्षेत्रों से पलायन कर अपने गांव पहुंचे प्रवासी श्रमिकों ने फिर से शहर न लौटने की कसम खाई थी। लेकिन लॉकडाउन हटते ही प्रवासी श्रमिकों को गांव से मोहभंग हो गया और एक साल में करीब 70 फीसदी श्रमिक अपनी पुरानी नौकरी और कामकाज पर लौट गए हैं। इनमें से अधिकांश का कहना है कि गांव में उनकी आय 85 फीसदी घट गई। इसलिए फिर से अपने पुराने काम पर लौट आए हैं।
विनोद कुमार उपाध्याय। कोरोना संक्रमण के चलते 23 मार्च 2020 में हुए राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन में हजारों लोगों की नौकरी चली गईं, आजीविका छिन गई। देश में लॉकडाउन का एक साल पूरा होने से करीब डेढ़ माह पहले यानी आठ फरवरी 2021 को संसद के बजट सत्र के दौरान केंद्रीय श्रम एवं रोजगार राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) संतोष गंगवार ने एक रिपोर्ट सौंपी जिसमें बताया गया कि मप्र के 7,53,581 श्रमिकों सहित देशभर में 1,14,30,968 प्रवासी लॉकडाउन के दौरान अपने घरों को लौटे थे। उनके रोजगार के लिए व्यवस्था की जा रही है, ताकि वे अपने मूल स्थान पर ही अच्छी आय प्राप्त कर सकें। वहीं सेवानिवृत्त सांख्यिकी और आर्थिक सेवा अधिकारियों और शिक्षाविदों की एक टीम द्वारा किए गए अध्ययन से यह तथ्य सामने आया है कि गांव में मनमाफिक काम नहीं मिलने के कारण करीब 70 फीसदी प्रवासी श्रमिक गांव से लौट गए हैं।
पिछले साल लॉकडाउन के बाद देश के विभिन्न क्षेत्रों से मप्र लौटे किसानों को उनके गांव पर ही रोजगार मुहैया कराने के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मनरेगा के तहत हर प्रवासी श्रमिक को रोजगार देने का निर्देश अधिकारियों को दिया। इसके बाद पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग ने मनरेगा में रोजगार देने के लिए गांवों में विकास कार्य शुरू करवा दिया। लेकिन कुछ माह बाद काम करने के बाद श्रमिकों को फिर से शहर आकर्षित करने लगा और वे गांव छोड़ चले। सेवानिवृत्त सांख्यिकी और आर्थिक सेवा अधिकारियों और शिक्षाविदों की टीम की रिपोर्ट के अनुसार मप्र के 7,53,581 प्रवासी श्रमिकों में से करीब सवा पांच लाख गांव से वापस चले गए हैं। गांव छोडऩे वाले श्रमिकों का कहना है कि उनकी 85 फीसदी आय घट गई, इसलिए शहर आना पड़ा है।
फिर पलायन का डर
देश में एक बार फिर से कोरोना का संक्रमण विकराल रूप धारण करता जा रहा है। कोविड-19 महामारी के बढ़ते प्रकोप को देखते हुए फिर से महाराष्ट्र समेत कई जगहों पर लॉकडाउन लगाया जाने लगा है। ऐसे में श्रमिकों को एक बार फिर से पलायन का डर सताने लगा है। कोरोना महामारी और लॉकडाउन के प्रतिकूल असर को पूरे देश और दुनिया ने झेला लेकिन भारत के संदर्भ में प्रवासी मजदूरों की स्थितियां काफी अलग रही हैं। आठ फरवरी 2021 को केंद्र सरकार ने लोकसभा में बताया कि एक करोड़ 14 लाख 30 हजार 9 सौ 68 प्रवासी लॉकडाउन के दौरान अपने घरों को लौटे थे। इनमें से सबसे ज्यादा 32,49,638 प्रवासी उत्तर प्रदेश में लौटे तो दूसरे नंबर पर बिहार रहा जहां 15,00,612 प्रवासी शहरों से घर को लौटे, तीसरे नंबर पर पश्चिम बंगाल में 13,84,693 प्रवासी और चौथे नंबर पर मप्र में 7,53,581 प्रवासी मजदूर और कामगार शहरों से अपने गांवों को लौटे हैं। हजारों हजार मजदूर पैदल, ट्रक, साइकिल, रिक्शा और दूसरे साधनों से भूखे प्यासे और खाली जेब अपने घरों को लौटे थे। हालात बदलने पर इनमें से कुछ तो घर चलाने के लिए वापस लौट गए लेकिन एक बड़ी संख्या उनकी भी जो वापस नहीं गई। केंद्रीय श्रम एवं रोजगार राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) संतोष गंगवार ने प्रवासियों को उनके आसपास काम देने के एक सवाल के जवाब में लोकसभा में बताया कि ग्रामीण प्रवासी कामगारों के कौशल के आधार पर रोजगारपारिता बढ़ाने के लिए स्किल मैपिंग कराई जा रही है। ताकि वो अपने घरों के पास रहकर काम कर सकें। इस अभियान में 50 हजार करोड़ रुपए के संसाधनों के साथ ही 6 राज्यों के 116 जिलों में काम देने के लिए प्रयास जारी हैं। पहले ही इस अभियान में 50,78,68,671 कार्य दिवस सृजित किए जा चुके हैं।
लेकिन चिंता की बात यह है कि सालों से शहर की आबोहवा में घुलमिल गए श्रमिकों को गांव में मन नहीं लगा। गांवों में रोजगार नहीं मिलने और कमाई घटने से प्रवासी मजदूर शहर की ओर रुख कर रहे हैं। सेवानिवृत्त सांख्यिकी और आर्थिक सेवा अधिकारियों और शिक्षाविदों के सर्वे से यह जानकारी मिली है। सर्वे से पता चला है कि नियमित वेतन या मजदूरी पाने वाले प्रवासी मजदूरों का गांव में मन ही नहीं लग रहा है। वहीं, गैर-कृषि क्षेत्र में सामयिक मजदूर सबसे कम प्रभावित थे। सर्वे के अनुसार, शहरों से पलायन करने के चलते मप्र में प्रवासी मजदूरों की आय 85 फीसदी कम हो गई। वहीं, उत्तर प्रदेश और झारखंड के प्रवासी मजदूरों की आय 94 फीसदी कम हुई। इसके चलते करीब 70 फीसदी प्रवासी मजदूर शहरों में वापस लौट गए हैं। वहीं, उत्तर प्रदेश और झारखंड में यह आंकड़ा 90 फीसदी से अधिक है।
किस राज्य में कितने मजदूर वापस लौटे थे
राज्य घर लौट मजदूर
उत्तर प्रदेश 32,49,638
बिहार 15,00,612
प. बंगाल 13,84,693
मप्र 7,53,581
झारखंड 5,30,047
छत्तीसगढ़ 5,26,900
असम 4,26,441
(स्रोत: लोकसभा में पेश आंकड़े के अनुसार)
आधी मजदूरी में कब तक गुजारा
सर्वे में यह बात सामने आई है कि शहरों से जो करोड़ों लोग अपने घरों को लौटे थे उनमें से एक बड़ी संख्या वापस नहीं गई। कुछ को दोबारा काम नहीं मिला तो कुछ दोबारा शहर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। जो लोग शहरों में 500-600 रुपए रोज कमाते थे उनमें से कईयों की कमाई आधे से कम हो गई है। चालीस साल के राम सिंह यादव गाजियाबाद की एक फैक्ट्री में काम करते थे। महीने में करीब 12000 रुपए कमाते थे लेकिन अब अपने गांव में रहते हैं और रोज के 200 रुपए की दिहाड़ी पर एक व्यापारी के यहां रात की चौकीदारी करते हैं। राम सिंह बताते हैं, लॉकडाउन में जैसे-तैसे घर लौटे। वहां फैक्ट्री मालिक ने पुराने काम के पैसे भी नहीं दिए बदकिस्मती से यहां एक एक्सीडेंट में पैर टूट गया। कुछ दिन घर में रखा राशन पानी बेचकर काम चला लेकिन बाद में खर्च चलाने के लए जमीन (खेत) गिरवी रखनी पड़ी। पड़ोस के एक व्यापारी ने तरस खाकर काम दे दिया है, 200 रुपए रोज पर बात तय हुई है। राम सिंह का घर मप्र के टीकमगढ़ जिले कुड़ीला गांव में है। लॉकडाउन के बाद यह गांव आबाद हो गया था। इस गांव में सैकड़ों प्रवासी श्रमिक लौट आए थे। कुड़ीला गांव ने अरसे बाद एकसाथ इतने लोगों को देखा था। इस गांव के तमाम लोग दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों में कमाने जाते हैं, राम सिंह के मुताबिक लॉकडाउन में वापस आने के बाद कई लोग दोबारा नहीं गए। इन लोगों को यहां आधी-अधूरी मजदूरी से काम चलाना पड़ रहा है।
भिंड जिले के अटेर क्षेत्र के बजरिया कनैरा के रहने वाले अजीत श्रीवास अहमदाबाद (गुजरात) में रंगाई पुताई का कार्य करते थे। उनकी पत्नी आरती, ढाई की बेटी गुड्डी और भाई धर्मेंद्र भी उनके साथ रहता था। लॉकडाउन के बाद वे अपने गांव आ गए। अब वे यहां दिहाड़ी मजदूर हैं। अजीत कहते हैं कि होली वाले दिन हमें दिल्ली से लौटे पूरा एक साल हो गया। अहमदाबाद में मैं 15 से 20 हजार रुपए महीने कमा लेता था लेकिन यहां दिन की मजदूरी 200-300 रुपए है। मैं रोज काम नहीं पाता हूं। अब किसी तरह अपने बच्चों को पाल रहा हूं। कोरोना से मिले दर्द और परेशानियों को लेकर अजीत श्रीवास कहते हैं, गांव के लोग परेशान हैं कि कहते हैं कि तुम कुदाल कैसे चला लेते हो? लेकिन मैं कहता हूं जब सिर पर पड़ेगी सब चला लोगे। मेरे कई साथी जो अन्य शहरों से वापस आए थे वो भी गांवों में कुछ न कुछ कर रहे। अजीत के मुताबिक लॉकडाउन के दौरान सरकार से मुफ्त राशन मिला लेकिन सिर्फ उससे काम नहीं चलता। सामाजिक कार्यकर्ता और मजदूर किसान संगठन के संस्थापक सदस्य निखिल डे गांव बताते हैं कि मोटे तौर पर सरकारी मजदूरी की स्थिति बिगड़ी है। उनको जितने दिन काम मिलता था वो कम हुआ है। जो पैसा मिलता था वो कम हुआ, उनके जो पक्के काम (परमानेंट) थे वो वो खत्म हुआ है। जो लोग अनौपचारिक अर्थव्यवस्था से जुड़े हैं उन्हें लिए बाजार में भी मांग उतनी नहीं है, यात्राएं लगातार मुश्किल हुई हैं और कई जगह फिर लॉकडाउन लगा है, कहीं रात का लॉकडाउन लगता है ये सब मजदूर और कामगारों के लिए मुश्किलें ही खड़ी कर रहा। निखिल के मुताबिक लॉकडाउन के बाद घर लौटे मजदूर कामगार किस हाल में हैं इस पर कोई शोध तो नहीं हुआ है, सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों से कहा था उसका भी कुछ नहीं हुआ। इसलिए अभी बड़ी तस्वीर सामने नहीं हैं।
मनमाफिक नहीं मिला काम
सर्वें के अनुसार प्रवासी श्रमिकों को उनके घर और उसके आसपास रोजगार देने के सरकारी दावे का दम निकल गया है। महीनों की उधारी वाली मनरेगा व पीएम गरीब कल्याण रोजगार योजना प्रवासी श्रमिकों को रास नहीं आ रही है। ऐसे में संक्रमण के खतरों के बीच भी रोजी रोटी की तलाश में वापसी करने को मजबूर हो रहे हैं। सरकारी आंकड़ों की ही मानें तो दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, तमिलनाडु सहित अन्य राज्यों से मप्र आए श्रमिकों में से बड़ी संख्या में प्रवासी श्रमिकों की वापसी हो चुकी है। मप्र सरकार ने मनरेगा के तहत जो रोजगार मुहैया कराया था वह उन्हें नहीं भाया। वहीं उधारी की दिहाड़ी से आजिज प्रवासी श्रमिकों को काम पर वापस बुलाने के लिए कंपनियों ने पहले से बढ़े हुए पैकेज को दिए जाने के डोरे डालकर उन्हें काम पर वापस बुला लिया है। मजदूरों व कामगारों को ले जाने के लिए अन्य प्रदेशों से वाहनों को भी भेजा गया था।
शहरों में फिर से पलायन करने वाले श्रमिकों के रिश्तेदारों का कहना है कि मनमाफिक काम नहीं मिलने के कारण अधिकांश प्रवासियों ने शहर का रूख किया है। वह कहते हैं प्रवासी श्रमिकों को रोजगार के नाम पर ग्राम पंचायतों में मनरेगा या गरीब कल्याण रोजगार योजना में काम मिल रहा है। इन योजनाओं में 201 रुपए की दिहाड़ी पाकर प्रतिदिन पांच सौ से हजार रुपए प्रतिदिन कमाने वाले प्रवासी श्रमिक संतुष्ट नहीं हैं। उस पर भी काम करने के सप्ताह बाद, कई बार कई-कई सप्ताह बीतने के बाद उनकी मजदूरी उनके बैंक खाते में पहुंच पाती है। ऐसे में घर वापसी करने वाले श्रमिक फिर से प्रवासी होने की राह पर चल दिए हैं। लॉकडाउन खत्म होने के बाद कारोबारियों ने श्रमिकों को वापस बुलाने के लिए उन्हें यात्रा भुगतान, वेतन बढ़ोतरी और एक-दो महीने का अग्रिम वेतन भी दिया। इतना ही नहीं कई व्यापारियों ने तो अपने राज्य से एसी स्पीपर बस, स्पीपर बस भी भेजा। इसी तरह कुछ व्यापारी श्रमिकों के लिए ट्रेन में एसी कोच की बुकिंग करा कर ले गए। इसके अलावा अधिकतर श्रमिकों को रहने और खाने की सुविधा का भी आश्वासन दिया गया। इससे प्रवासियों को फिर से शहर भा गए हैं।
कुछ गांव आकर बन गए आत्मनिर्भर
कोरोना ने बहुत सारे लोगों को आजीविका छीनकर उन्हें वापस गांव लौटने पर मजबूर कर दिया। जो गांव लौटे उनकी कमाई भी शहरों की तुलना में कई गुना कम हुई है। लेकिन इस बीच कुछ लोगों ने आपदा में अवसर तलासते हुए खुद आत्मनिर्भरता की तरफ कदम भी बढ़ाए हैं। मप्र के सतना जिले के बाबूपुर गांव के दो दोस्त शुभम पुणे तो विशाल नागपुर में नौकरी करते थे। उनका सालाना पैकेज ढाई लाख से तीन लाख रुपए के करीब था। कोरोना लॉकडाउन में फैक्ट्रियां बंद हुई तो दोनों को वापस अपने गांव आना पड़ा। इस दौरान दोनों ने मिलकर खुद के फूड पैकेजिंग का काम शुरु किया है। इसके लिए एलआईसी बंधकर बनाकर बैंक से 5 लाख रुपए का लोन भी लिया है। शुभम के मुताबिक साल 2020 में शुरु किया गया उनका फरसान पैकेजिंग का छोटा काम चल निकला है और आज वो गांव के तीन अन्य लोगों को रोजगार भी दे रहे हैं। तीनों कर्मचारियों को वो 6000 रुपए महीने की सैलरी देते हैं।
मप्र में कई ऐसे युवा हैं जिन्होंने शहर न जाने की ठानी है और वे आत्मनिर्भर बनने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। कुछ बटाई में खेती लेकर उसमें फसल उगाकर अपनी किस्मत अजमा रहे हैं तो कुछ ने खुद की दुकान खोलकर रोजी रोटी कमाने की जुगत में लगे हुए हैं। पलमेर महाराष्ट्र की मिठाई की दुकान में कारीगर रहे सीहोर जिले के ओमप्रकाश सुथार कहते हैं कि वहां काम करते हुए पर्याप्त कमाई हो जाती थी जिससे घर परिवार का खर्चा चलता था लेकिन कोरोना संकट काल में परदेश में कोई अपना नहीं दिखा। मुसीबत उठा कर किसी तरह से घर लौटे हैं तो दोबारा नहीं जाएंगे। बटाई में खेती कर रहे हैं। खरीफ में कोई अधिक लाभ नहीं हुआ, लेकिन गेहूं की उपज देखकर लगता है कि खेती मेरे लिए लाभदायक बनेगी। सूरत में कपड़ों की प्रिंटिंग का काम करने वाले इटारसी के जयबीर सिंह कहते हैं कि जहां इतने दिनों से काम कर रहे थे वहां संकट आने के बाद वहां कोई मदद करने वाला नहीं रहा। किसी तरह से अपने गांव पहुंचे तो छोटी किराने की पुरानी दुकान को चलाते हुए इसे ही बड़ी दुकान बनाने का इरादा है। इसी से रोजी-रोटी कमाएंगे। मप्र में ऐसे हजारों लोग हैं जिन्होंने अपने गांव या शहर में आत्मनिर्भर बनने की दिशा में कदम बढ़ाया है।
पलायन रोकने के लिए मजबूत आधार जरूरी
पिछले साल के लॉकडाउन के बाद हुए पलायन से सबक लेते हुए राज्य सरकारों ने पलायन रोकने की कार्ययोजना पर काम शुरू कर दिया है। लेकिन उसके बाद भी बड़ी संख्या में लोगों ने गांवों से मुंह मोडऩा शुरू कर दिया है। दरअसल, जब तक रोजगार का मजबूत आधार विकसित नहीं होगा, पलायन रूकने वाला नहीं है। पिछले साल पलायन को लेकर मप्र के करीब दर्जनभर जिलों में शोध संस्थानों ने सर्वे शुरू किया था। इनमें बुंदेलखंड-बघेलखंड के गांवों से लेकर शिवपुरी, महाकोशल का बड़ा इलाका शामिल है। सर्वे से सामने आई प्रारंभिक जानकारी थोड़ा हैरान करने वाली, या यूं भी कह सकते हैं कि उम्मीद बढ़ाने वाली है। 55 प्रतिशत श्रमवीरों का कहना था कि वे पलायन करना नहीं चाहते हैं। वे चाहते हैं कि प्रदेश में ही रहकर कुछ काम करें। करीब 27 प्रतिशत का कहना है कि मौजूदा हालात में फिलहाल वे अनिर्णय की स्थिति में हैं। 18 प्रतिशत मजदूर अपने कार्यक्षेत्र में लौटना चाहते हैं। आज स्थिति यह है कि लाखों श्रमिक शहर लौट चुके हैं। सवाल उठता है कि जो श्रमिक दूसरे राज्यों के आर्थिक विकास में भागीदारी निभाते हैं, वे अपने प्रदेश में रहकर स्थानीय अर्थव्यवस्था को मजबूत करने में योगदान क्यों नहीं दे सकते हैं? विशेषज्ञ भी मानते हैं कि मजदूरों के कौशल के हिसाब से मप्र में चार क्षेत्र विकसित करने चाहिए। हैंडलूम, कपड़ा उद्योग, कृषि-खाद्य प्रसंस्करण और ग्रामीण पर्यटन के साथ लुप्त होता हर्बल उद्योग।
28 साल ग्रामीण विकास और आजीविका के क्षेत्र में काम कर चुके रिटायर आईएएस रवींद्र पस्तोर कहते हैं कि मजदूरों की घर वापसी का जो दृश्य उभरकर आया था, वो सामान्य नहीं था। सरकारों को पलायन रोकने के लिए ठोस और मजबूर आधार तैयार करना होगा। फिर भी शत प्रतिशत पलायन रोकना असंभव है। यह व्यक्ति और समाज के विकास में भी बाधक है। वैसे भी मध्य प्रदेश में परिवारों के पास जमीन की औसत उपलब्धता 1.17 हेक्टेयर है। बंटवारे के बाद एक परिवार के लिए यह पर्याप्त नहीं, इसलिए सिर्फ खेती के भरोसे पलायन करने वाली आबादी को प्रदेश में रोककर नहीं रखा जा सकता। इसके लिए वैकल्पिक योजनाएं चाहिए।’ दरअसल जो मजदूर वापस आए हैं, वे अपने साथ तीन विशेषताएं लेकर लौटे हैं। कौशल, व्यापार की बुनियादी समझ और महत्वाकांक्षा। पलायन रोकने और अपने श्रम का उपयोग अपने प्रदेश में करने के लिए इन्हीं तीन बिंदुओं को ध्यान में रखकर रोजगार उपलब्ध करवाना होगा। उदाहरण के लिए कृषि श्रमिकों की जरूरत बनी हुई है। खेती संबंधी कामों के लिए हैंड-टूल विकसित कर, उन्हें इस काम के लिए रोका जा सकता है। मालवा-निमाड़ इलाके के 42 हजार हेक्टेयर में आलू, 32 हजार हेक्टेयर में प्याज, 22 हजार हेक्टेयर में मिर्च का रकबा है। सब्जियां और टमाटर सहित सोया और मूंग भी बड़े इलाके में बोया जाता है। यहां फसल के साथ फल-सब्जियों से जुड़ी हुई छोटी-छोटी खाद्य प्रसंस्करण इकाई लगाई जाएं। यहां की खेती, प्रदेश के दूसरे इलाकों की तुलना में 70 प्रतिशत उन्नत है, इसलिए मजदूरों को आवश्यकतानुसार कुशल बनाया जाए। पलायन रोकने के लिए यह बहुत बड़ा कदम होगा। समग्र एप की संरचना तैयार करने वाली आइएएस डॉ. अरुणा शर्मा लंबे समय तक मप्र में पदस्थ रहीं। देश के 10 राज्यों ने इस प्रयोग को अपनाया है। डॉ. शर्मा का मानना है कि यदि पलायन रोकना है तो सरकार को हर घर को चिन्हित कर रोजी-रोटी की व्यवस्था करनी पड़ेगी। मप्र में 100 से ज्यादा ऐसे प्रोजेक्ट्स चल रहे हैं, जिसमें स्थानीय मजदूरों को काम मिल रहा है। जैसे पुदीने की खेती के साथ-साथ खांसी और खराश दूर करने वाले मेंथॉल का छोटा प्लांट भी पास में लगा लिया जाए। प्रदेश में बड़ी संख्या में वनोपज मिलते हैं। उसके लिए निर्यात बाजार तलाशना होगा।
रोजगार के लिए स्वरोजगार को बढ़ावा
कोरोना लॉकडाउन के बाद से ही मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मप्र में रोजगार को बढ़ाने की कार्ययोजना पर काम करना शुरू कर दिया। इसके लिए औद्योगिक विकास के साथ ही स्वरोजगार को बढ़ावा देने की नीति पर जोर दिया गया। इसके परिणाम काफी सुखद आए हैं। 8 अप्रैल को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने वीडियो कांफ्रेंसिंग के माध्यम से 1,891 सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों का प्रदेशव्यापी शुभारंभ किया। इसके माध्यम से 50 हजार से ज्यादा व्यक्तियों को रोजगार मिलेगा। सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम विभाग के अधिकारियों ने बताया कि नवंबर 2020 से अब तक 1,891 इकाइयां या तो स्थापित हो चुकी हैं या स्थापना की प्रक्रिया में हैं। इन इकाइयों में 4,221 करोड़ रुपए का निवेश किया गया है। प्रदेश में पिछले एक साल में औद्योगिक विकास की दिशा में कई महत्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं। प्रदेश के विभिन्न अंचलों में मांग के अनुरूप 1575 से अधिक हेक्टेयर भूमि पर 20 नवीन औद्योगिक क्षेत्र विकसित करने की योजना तैयार की गई है। इन औद्योगिक क्षेत्रों के विकास से प्रदेश में लगभग 15,000 करोड़ रूपए के निवेश के साथ 10 हजार व्यक्तियों को रोजगार भी मिल सकेगा। वित्तीय वर्ष 2020-21 में 5 औद्योगिक क्षेत्रों में कुल 1 हजार 325 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्रफल का विकास कार्य पूर्ण किया गया। साथ ही 6 विद्यमान औद्योगिक क्षेत्रों में 1 हजार 323 हेक्टेयर क्षेत्रफल में भी उन्नयन कार्य पूर्ण किया गया है। इससे औद्योगिक इकाइयों को विकसित अधोसंरचना प्राप्त होने के साथ ही प्रदेश में निवेश को प्रोत्साहन मिलेगा।
स्थानीय उत्पादों को राष्ट्रीय एवं वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाने और अंतर्राष्ट्रीय बाजार में उनकी ब्राण्डिंग तथा विपणन हेतु प्रदेश के प्रत्येक जिले का एक विशिष्ट उत्पाद चिन्हित करने का कार्य प्रारंभ किया गया है। इस संकल्प पर अमल के लिए अंतर्राष्ट्रीय व्यापार इन्टेलीजेन्स तथा निर्यात सुविधा केंद की स्थापना के लिए कन्सल्टेट का चयन किया गया है। कोविड-19 के दौरान भी पिछले एक वर्ष में प्रदेश में 7 बड़े उद्योग स्थापित हुए। इनमें लगभग 1563 करोड़ रूपए का पूंजी निवेश एवं 5705 व्यक्तियों को रोजगार प्राप्त हुआ। औद्योगिक क्षेत्रों में विभिन्न श्रेणी की 372 इकाइयों को 251 हेक्टेयर से अधिक भूमि आवंटित की गई। इनमें लगभग 4336 करोड़ 82 लाख रूपए का पूंजी निवेश तथा 12 हजार 509 व्यक्तियों को रोजगार संभावित है। यानी आने वाले कुछ वर्षें में मप्र रोजगार का एक बड़ा हब बनकर सामने आएगा। इससे उम्मीद की जा सकती है कि रोजगार की तलाश में पलायन कर दूसरे राज्यों में गए लोगों को अब यहीं रोजगार मुहैया कराया जाएगा।