प्रफुल्ल कोलख्यान
आदर्श आचार संहिता लागू है। देखना दिलचस्प होगा कहां-कहां, कौन-कौन, कितना-कितना और कैसे-कैसे इसका उल्लंघन करते हैं। चुनाव आयोग क्या-क्या कदम उठाता है। बहरहाल, विज्ञापन, प्रचार, सूचना, प्रस्ताव, वायदा, करार, घोषणा, संकल्प पत्र जैसे पवित्र शब्द तो अभी चुनाव के दौरान बहुत सुनाई देंगे बस सही और सच्ची खबर के मिलने की संभावना बहुत कम है।
लोकतंत्र के लिए लगभग निर्णायक राजनीतिक संघर्ष सामने है। 2024 चुनाव की दृष्टि से पूरी दुनिया में महत्वपूर्ण है, भारत में तो है ही। यह संघर्ष दक्षिण-पंथी राजनीति के साथ है। इसमें स्वाभाविक रूप से वाम विचार की एक बहुत बड़ी भूमिका हो सकती थी, लेकिन चुनावी हंगामे में उसका कोई स्वर सुनाई नहीं दे रहा! जीवन में नकारात्मकता का बोलबाला बहुत बढ़ गया है। जितनी चर्चा नकारात्मक बातों और घटनाओं की होती है, उसका शतांश भी उसी संदर्भ के सकारात्मक प्रसंग का नहीं होता है। जिस बात या घटना में शामिल रहने के लिए किसी की बहुत भर्त्सना की जाती है, उस बात या घटना से किसी के दूर रहने या शामिल होने से बचे रहने की जरा भी सराहना नहीं की जाती है। कभी उल्लेख हो भी जाता है तो इतने चलताऊ ढंग से होता है कि वह पूरे प्रकरण में कहीं दर्ज ही नहीं हो पाता है।
कहते हैं, लोकतांत्रिक भारत में एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) की पहल और सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर चुनावी चंदा (Electoral Bonds) के संदर्भ में जबरिया चंदा और गैरकानूनी धंधा के समीकरणों के बारे में भारत के राजनीतिक दलों की जो पोलपट्टी खुली है, उससे कमोबेश सभी राजनीतिक दलों का चाल-चरित्र-चेहरा का छिपा हुआ पक्ष सामने आ गया है। अपवाद केवल भारत की कम्युनिस्ट पार्टियां हैं। ऐसे माहौल में ऐसा अपवाद होना कोई कम बड़ी बात नहीं है। भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों की इस सकारात्मकता की न तो कोई चर्चा है और न ही उनको इस अपवादात्मक भूमिका के लिए किसी चुनावी लाभ की ही संभावना है। जो लोग जबरिया चंदा और गैरकानूनी धंधा को लोकतंत्र के लिए सचमुच खतरा मानते हैं, उन्हें प्रकारंतर से ही सही क्या भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों के प्रति सकारात्मक रुख नहीं अख्तियार करना चाहिए!
ऐसा नहीं है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टियां कभी सत्ता में रही ही नहीं है। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता में रही है। कम-से-कम कम पश्चिम बंगाल और केरल में तो प्रत्यक्ष रूप से और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) के शासन के पहले शासन काल में अप्रत्यक्ष रूप से ही सही डॉ मनमोहन सिंह सरकार के अस्तित्व का हिस्सा जरूर रही है। बहरहाल, जिस समय और जिस तरह से असैन्य परमाणु समझौते, 123 के मामले में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) सरकार से समर्थन वापस ले लिया, वह राजनीतिक रूप से सही कदम साबित नहीं हुआ, न संसदीय राजनीति की दृष्टि से और न ही गैर-संसदीय राजनीति की दृष्टि से।
याद किया जा सकता है कि 2008 में, चार वाम दलों (सीपीएम, सीपीआई, आरएसपी, और फॉरवर्ड ब्लॉक) ने भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के विरोध के कारण अपना समर्थन वापस ले लिया। कहना न होगा कि ये चारों वाम दलों का नेतृत्व सीपीएम कर रही थी। वाम दलों का समर्थन वापस लेने के साथ ही सरकार अल्पमत में आ गई। हालांकि, डॉ मनमोहन सिंह की सरकार को मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी का समर्थन मिल गया। सरकार अविश्वास प्रस्ताव से बचने में कामयाब रही। सरकार को विश्वासमत हासिल हो गया और वाम दल अपनी अविश्वसनीयता के दल-दल में फंसते चले गये।
काल्पनिक तौर पर सोचा जा सकता है। यदि सरकार गिर जाती तो वाम दलों को ताकतवर मान लिया जा सकता था और जिसका चुनावी लाभ भी मिल सकता था। लेकिन, ऐसा हुआ नहीं। वाम दलों से कांग्रेस की दूरी ने कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस को नजदीक ला दिया। 2011 में पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनाव में वामफ्रंट सत्ता से बाहर हो गई। आज की स्थिति पर तो क्या ही बात की जाये।
गौर से देखा जाये तो भारत की संसदीय राजनीति में वाम और कांग्रेस की निकटता का महत्व रहा है। मोटे तौर पर, चुनावी साथी नहीं होने के बावजूद इस निकटता से कांग्रेस को विश्वसनीयता और वाम दलों को संसदीयता को सीमित स्वीकृति मिलती थी। कहा जाता है कि ‘गलत समय पर सही निर्णय’ और ‘सही समय पर गलत निर्णय’ से वाम दलों का इतिहास भरा पड़ा है। वाम राजनीति अपने सैद्धांतिक आग्रहों और संसदीय राजनीति की व्यावहारिकता से कभी ठीक से तालमेल नहीं बिठा पाई। आज कि स्थिति यह है कि वाम दल चुनावी राजनीति से लगभग अपना अर्थ खो ही चुके हैं। ऐसा होना भारत की राजनीति के लिए किसी भी तरह से शुभ नहीं है। ध्यान देने की बात है कि वाम अंतर्वस्तु में ही विपक्षी राजनीति का प्राण-तत्व है। भले ही, वाम दलों की सांगठनिक उपस्थिति लगभग अदृश्य हो!
दक्षिण-पंथी रुझान की राजनीति से सही मायने में वाम अंतर्वस्तु ही मुकाबला कर सकती है। जिस विशिष्ट वैचारिक अर्थ में हम वाम विचारधारा को ग्रहण करते हैं उसका संबंध पाश्चात्य दार्शनिक परंपरा के विकास से है। संक्षेप में कहें तो जो कांट, हीगेल आदि से होते हुए मार्क्स तक पहुंचकर अपना आकार पा लेता है। इससे इतर भारत में समतामूलक या कहें तो समताकांक्षी मनोभावना का असर रहा है। इस समताकांक्षी मनोभावना का वाम अंतर्वस्तुवाली विचारधारा से सहमिलानी संबंध स्थापित होना था।
लेकिन यहां एक गड़बड़ी हुई। वर्ग और वर्ण के अंतर और समानता को समझकर उसका राजनीति सेट वाम रुझानवाले नेता और दल नहीं बना कम-से-कम शुरुआती दौर में, साम्यवादी विचारधारा के आग्रही लोगों ने जाने-अनजाने भारत की इस समताकांक्षी मनोभावना की न सिर्फ उपेक्षा की, बल्कि जानबूझकर अवहेलना भी की। सोचने की बात है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ!
जो कुछ बातें समझ में आती हैं उनकी ओर इशारा किया जा सकता है। समताकांक्षी मनोभावना की जो परंपरा हम भारत में देखते हैं उसका नाभि-नाल संबंध उन समान समूहों से रहा है जिनको असमान बनाने का काम बाह्मणवाद, आपत्ति हो तो कह लें वर्णवाद के जरिये हुआ। साम्यवादी विचारधारा के आग्रही लोगों में से अधिकतर उच्चवर्ण से जुड़े थे। वे इस समताकांक्षी भावना या चेतना के मुख्य स्वर के महत्व को पहचान पाने में विफल रहे। इशारा आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक एवं धार्मिक आधार पर, दलितों की अनुपस्थिति और इस अनुपस्थिति को दूर करने के प्रति उदासीनता से है। दूसरी बात यह कि साम्यवादी विचारधारा के राजनीतिक उपकरण में बदलकर महत्त्वपूर्ण हो जाने का संबंध औद्योगीकरण की प्रक्रिया से रहा है।
सर्वहारा की बात बहुत हुई लेकिन सर्वहारा का अर्थ उस व्यक्ति से जुड़ गया जो अपना सब कुछ हार या खो चुका है। यह अर्थ ठीक से कभी सामने ही नहीं आया कि सर्वहारा वह है, जिसकी आजीविका का माध्यम व्यक्तिगत हुनर के अलावा कुछ नहीं होता है। हुनर का होना अपने आप में ही बड़ी बात है। इस अर्थ में देखें तो सर्वहारा न दीन होता है और न हीन होता है। भारत में सर्वहारा की छवि दीन, हीन ही नहीं बल्कि मलीन की भी बनी रही और इस छवि को बदलने का उपाय तो नहीं ही किया गया, बल्कि उलटे इस छवि को ही ‘महिमा मंडित’ किया गया या होने दिया गया।
खेतिहर व्यवस्था में लगे लोगों को पारंपरिक रूप से मजदूर नहीं जन या जोन कहा जाता रहा है।
मजदूर और जन या जोन में एक बारीक अंतर कि ओर ध्यान दिलाना लाजिमी है। जन या जोन उत्पादन के साथ ही उत्पाद में भी भागीदार होते थे। मजदूर उत्पादन की प्रक्रिया में तो भागीदार होते हैं, लेकिन उत्पाद के भागीदार नहीं होते, अधिकतर मामलों में सीधे उपभोक्ता भी नहीं होते। जो हो, भूमि संबद्धता को भूमिदास मानने का भी बड़ा असर हुआ। ध्यान में रखना चाहिए कि संबद्धता सिर्फ स्वामित्व की स्थिति से तय नहीं होती है।
भारत में असमानता एक सामाजिक सवाल भी था, आर्थिक सवाल भी था और लोकतंत्रात्मक व्यवस्था में यह गहन राजनीतिक सवाल के साथ ही सांस्कृतिक सवाल बनकर भी उभरा। यह बहुत जटिल स्थिति है। जटिल इसलिए कि ऊपर से सामाजिक दिखनेवाला सवाल अपने मूल रूप में धार्मिक कट्टरताओं से जुड़ा रहता है। यह धार्मिक कट्टरता असल में उतना धार्मिक नहीं है जितना कि पुरोहितवादी होता है। पुरोहितवाद किसी एक जाति के ही रोजगार से जुड़ा नहीं था। समाज में विभिन्न जातियों की जजमनिका का अस्तित्व रहा है। विडंबना यह कि यह पुरोहितवाद किसी एक जाति या समुदाय से ही जोड़कर देखा-समझा गया। प्रसंगवश, आज ‘बंधु’ लोग ही नव-पुरोहित हैं।
असल में पुरोहितवाद जाति की सेवा नहीं करता, बल्कि यह राज की सेवा करता रहा है। आज चुनावों के माध्यम से राजसत्ता पर दखल जमाने के चक्कर में पड़े लगभग सभी राजनीतिक दल इस पुरोहितवाद का सेवन कर रहे हैं। जातिवाद पर आधारित कोई भी प्रक्रिया पुरोहितवाद का सेवन करने के लिए बाध्य है। लेकिन पुरोहितवाद या ब्राह्मणवाद किसी एक जाति या समुदाय से जुड़ा दिखने के कारण यह साम्यवादी विचारधारा के आग्रही लोगों को अपनी वास्तविक व्याप्ति की तुलना में बहुत छोटा दिखकर छलता रहा। अधिक कड़ाई से कहा जाये तो वाम विचार के आग्रही लोग इस छल के छांव में शरणागत होते रहे।
भारत मूलतः कृषि आधारित अर्थव्यवस्था के सामंती अवशिष्टों और वह भी निकृष्ट अवशिष्टों के चंगुल में फंसा रहा। तत्काल जो सता रहा है उससे मुक्ति की बात न कर अप्रकट भय की बात करनेवाले लोगों पर स्वाभाविक रूप से जनता ने विश्वास नहीं किया। खुद मार्क्स के चिंतन के हवाले से भी समझा जा सकता है कि साम्यवादी व्यवस्था की स्थापना की शुरुआत सघन औद्योगिक वातावरण में ही हो सकता है। जहां सघन औद्योगिक वातावरण नहीं है वहां यह स्थानीय विशिष्टताओं के अनुसार अपना रूप बदलकर आगे बढ़ सकता है। उदाहरण, चीन और रूस का है; मार्क्सवाद और माओवाद, मार्क्सवाद और लेनिनवाद। कुल जमा यह कि भारत में साम्यवादी दर्शन का समताकांक्षी सामाजिक मनोभावना की आकांक्षाओं में निहित स्थानीय विशिष्टताओं के साथ संयोग विकसित न हो सका।
असल में साम्यवादी दर्शन जीवन की किसी एक चर्या से संबंधित नहीं होता है। एक तरह से साम्यवाद समग्र जीवन दर्शन और सभ्यता के मानवीय होने की अनिवार्य भौतिक शर्त है। एक उदाहरण के माध्यम से समझा जा सकता है। मनुष्य के सामाजिक जीवन का आधार है परिवार। परिवार में संसाधनों और आर्थिक भागीदारी के लिए जिस सिद्धांत को अपनाया जाता है, वह निश्चित रूप से साम्यवादी सिद्धांत है। परिवार के सभी सदस्य अपनी योग्यता के अनुसार देते हैं और जरूरत के अनुसार लेते हैं। योग्यता के अनुसार देने और जरूरत के अनुसार लेने की स्थिति के टूटते ही परिवार टूटकर बिखर जाता है। लेकिन भारत के चिंतन और निजी-सार्वजनिक जीवन में यह सिर्फ वर्ग चेतना या बोध के रूप में ही लागू हो सका और अब तो खैर। परिवार की संरचना में ही बदलाव और टूटन है।
विडंबना है कि राजनीतिक और दलीय गतिविधियों के बाहर, साम्यवाद का कोई भारतीय संस्करण या विलक्षण प्रस्ताव तैयार न हो पाया। यह एक सचाई है और इससे मुंह चुराना आत्मघाती साबित हुआ है। “भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (Communist Party of India)” के “भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (Indian Communist Pary) बनने के महत्व और उसकी राजनीतिक जरूरत को समझा नहीं गया। प्रगतिशील कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, फिल्म आदि के माध्यम से राजनीतिक परिसर से बाहर साम्यवादी दर्शन और वाम विचार को सामाजिक विलक्षणताओं से जुड़ने का अवसर बन सकता था लेकिन वे तो राजनीति का आनुषंगिक बनकर रह गये। प्रसंगवश, लेखक संगठन अन्य वर्ग संगठन की ही तरह समझ लिये गये।
यह सच है कि शुरुआती दौर में लेखकों और संस्कृति कर्मियों को थोड़ा बहुत महत्व मिला। लेकिन बाद के दिनों में यह महत्व छीजता चला गया। साम्यवादी विचारधारा से जुड़े राजनीतिक लोगों ने बुद्धिजीवियों, लेखकों, नाटककारों के महत्त्व को न सिर्फ भुला दिया बल्कि उन्हें अपना पिछलग्गू बना दिया। उदाहरण के लिए, शुरुआती दौर में उस समय के लगभग सभी महत्त्वपूर्ण लोगों ने प्रगतिशील लेखक संघ के घोषणापत्र को पढ़ा समझा उस पर चर्चा की और सहमति में हस्ताक्षर भी किया। बाद में दृष्टि की इस व्यापकता में खतरनाक सिकुड़न आती गई। यह कैसे हुआ, इस पर बहुत सारी बातें हैं।
उदाहरण के तौर पर एक प्रसंग। प्रगतिशील लेखक संघ से जैनेंद्र का भी जुड़ाव था। वस्तुतः दोनों की रचनाशीलताएं परस्पर भिन्न हैं, विपरीत नहीं। यह सच है कि प्रेमचंद और जैनेंद्र की रचनाशीलता में अंतर है, लेकिन ये परस्पर विरोधी रचनाशीलता नहीं है। फिर भी बाद में जैनेंद्र की रचनाशीलता को विरोधी माना गया। साहित्य और संस्कृति कर्म को संगठनों और मंचों के माध्यम से राजनीति का उपनिवेश ही बनाने की आत्मघाती कोशिश की।
‘विरुद्धों में एकता’ के बदले ‘अविरुद्धों में विभेदकता’ पर अधिक जोर दिया गया। असल में जैसा कि सर्वविदित है, उत्पादन और उपभोक्ता के स्वरूप का राजनीति पर बहुत गहरा असर पड़ता है। आज जिस प्रकार की स्थिति है उसमें वाम अंतर्वस्तु का महत्व तो निरंतर बना रहेगा लेकिन वाम दर्शन और संगठन फिलहाल परिसर से बाहर ही रहेंगे। ‘दलीय निष्ठा’ और प्रकट राजनीतिक महत्वाकांक्षा से बाहर निकल कर ‘वाम योगी’ यदि समाज में मानवीय और लोकतांत्रिक चेतना के प्रसार और सामाजिक स्वीकार के लिए कुछ करें तो राजनीति और लोकतंत्र का भला हो सकता है। सांगठनिक अनुपस्थिति के बावजूद वाम विचार में ही विपक्ष का प्राण है।
सामने 2024 का आम चुनाव है। लक्षण तो ऐसे नहीं दिख रहे हैं कि लगातार तीसरी बार भारतीय जनता पार्टी सत्ता में प्रतिष्ठित होने जा रही है, फिर भी यदि ऐसा हो गया तो इसके बहुत दूरगामी नतीजे होंगे। अब सारा दारोमदार आम मतदाताओं पर है। देखा जाये क्या फैसला आता है, या फैसले को किस रूप में बाहर आने दिया जाता है।