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लोकतंत्र की खातिर जरूर दें पहली बार वोट

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टीके अरुण: 

कई लोग राजनीतिक दल का चुनाव उसी तरह करते हैं, जैसे विश्व कप में किसी टीम को सपोर्ट करने का फैसला करना। परिवार और दोस्तों की पसंद-नापसंद बहुत बड़ी भूमिका निभाती है इसमें। किसी खास नेता का राष्ट्रीय या स्थानीय स्तर पर पैदा किया असर भी अंतर पैदा करता है। सत्ताधारी दलों के दावे और प्रतिदावे भी मायने रखते हैं।

भविष्य गढ़ने वाला
पहली बार वोट डालने वाला एक ऐसा विकल्प चुन रहा है, जो उसके भविष्य को आकार देने में मदद करेगा, एक ऐसी दिशा में आगे बढ़ेगा जो सभी के लिए अवसरों और स्वतंत्रता का विस्तार करेगा या उन्हें सीमित करेगा। इस तरह से किसी को वोट देना किसी टीम को सपोर्ट करने से बहुत अलग है।

चयन में सावधानी
हमारे सामने परफेक्ट राजनीतिक विकल्प नहीं हैं। उलटे, ये परफेक्ट से कोसों दूर हैं। इसलिए जरूरी है कि हम कम से कम खराब विकल्प न चुनें। हम ऐसा चुनाव करें, जिससे विकल्प और प्रयोग का रास्ता खुला रहे ताकि लोग नई सोच और खुद को संगठित करने के नए तरीके विकसित कर सकें। मेरा मानना है कि नए मतदाताओं को लोकतंत्र की खातिर वोट जरूर देना चाहिए।

हीरो की चाहत
हम आज मुश्किल हालात में जी रहे हैं। जिस हवा में हम सांस ले रहे हैं, वह प्रदूषित है। पानी को पीने के लिए फिल्टर करना पड़ता है। सड़कों पर भीड़ है। अच्छी नौकरियां मुश्किल से मिलती हैं। शिक्षा में खामी है, स्वास्थ्य सेवा खराब है या फिर बहुत महंगी। व्यक्तिगत अधिकार और स्वतंत्रता सीमित हैं। हर जगह भ्रष्टाचार का बोलबाला है। क्लाइमेट चेंज ने गर्मी, सूखे और बेमौसम बारिश के रूप में कहर बरपाना शुरू कर दिया है। इन सारी समस्याओं के सामने व्यक्ति खुद को बहुत लाचार महसूस करता है। ऐसे में संकटों से बचाने वाले ‘सुपरह्यूमन’ की लोकप्रियता बढ़ रही है, फिर चाहे फिल्में हों या राजनीति।

चाह के साथ राह
फिर भी सब कुछ निराशाजनक नहीं है। देश की डेमोग्राफी युवा ऊर्जा लेकर आती है और उम्मीद भी बंधाती है। हम सूचना युग में जी रहे हैं, जिसमें संपूर्ण मानव ज्ञान, रचनात्मकता और सौंदर्य उन लोगों के लिए अवेलेबल है, जो इसकी तलाश में हैं। उद्यमियों के पास मौका है कि वे अपने आइडिया और सपनों को पूरा कर सकें। इससे रोजगार मिलता है, आय के साधन पैदा होते हैं। किसी अच्छे आइडिया पर लोग ऑनलाइन चर्चा कर सकते हैं, फिर उस पर अमल किया जा सकता है।

कमाई कम, वादे ज्यादा
सच यह भी है कि समर्थन पाने के लिए राजनीतिक दल चुनाव प्रचार में चांद-तारे तोड़ने का वादा करते हैं। सभी के लिए सरकारी कल्याणकारी योजनाओं, सरकारी नौकरियों, शिक्षा और स्वास्थ्य पर ज्यादा खर्च, वंचित समुदाय के लोगों के लिए विशेष सहायता, भ्रष्टाचार के खात्मे, महिलाओं के सशक्तिकरण, सभी के लिए घर जैसे वादे किए जाते हैं। लेकिन सरकार की आमदनी सीमित होती है। इसका जरिया हैं टैक्स कलेक्शन, टेलिकॉम में लाइसेंस और स्पेक्ट्रम फीस, खनिज रॉयल्टी, प्रॉपर्टी की रजिस्ट्री, कुछ सरकारी सेवाओं पर यूजर चार्ज वगैरह।

कहां से आएगा पैसा
अब जान लेते हैं कि सरकार का खर्च क्या है। पड़ोसी मुल्कों के साथ रिश्ते तनावपूर्ण हैं। ऐसे में देश को डिफेंस पर इच्छा से ज्यादा खर्च करना पड़ता है। केंद्र और राज्यों का पिछले उधारों पर ब्याज GDP के 5% से भी ज्यादा है। सैलरी और पेंशन पर GDP का 1.5% खर्च होता है। ऐसे में कुल मिलाकर केंद्र और राज्य सरकारों के पास GDP का 20% से कम हिस्सा बचता है, चुनावी वादों को पूरा करने के लिए। एजुकेशन पर GDP का 6% और स्वास्थ्य देखभाल पर 4% खर्च करने के वादे को इस सचाई के आईने में देखना चाहिए।

सवाल बनते हैं
वहीं, क्या एक नागरिक के रूप में हमारा इस पर कोई अधिकार है कि यह पैसा कैसे खर्च किया जाता है? क्या गांव के स्कूलों और शहरों के सीवरेज सिस्टम को सुधारने से ज्यादा अच्छा है न्यूनतम समर्थन मूल्य को लगातार बढ़ाना, अनाज की सरकारी खरीद करना? क्या स्थायी घर बनाकर देने से बेहतर है कि प्रवासी मजदूरों के लिए किराये पर घर बनाए जाएं? क्या सरकारी हेल्थ इंश्योरेंस से बेहतर होगा कि स्टेट हॉस्पिटल्स में सीधे स्वास्थ्य देखभाल का प्रावधान हो? उद्योगपतियों को सबसिडी के बजाय क्या यह अच्छा रहेगा कि वही पैसा विश्वविद्यालयों में रिसर्च में लगाया जाए? शासन संबंधी निर्णयों के लिए उस विशेषज्ञता की जरूरत होती है, जो सीधे तौर पर निर्वाचित प्रतिनिधियों के पास नहीं होती। फिर भी, हमारे प्रतिनिधियों का काम है कि वे विशेषज्ञों को बुलाएं, उनकी बात सुनें और लोगों के हित में विकल्प चुनें।

गलत प्रथा
वर्तमान सरकार में बिना बहस के कानून पास करना, विधायी सत्रों को छोटा करना और विपक्षी सदस्यों पर प्रतिबंध लगाना आम हो गया है। ये चीजें लोकतंत्र के विपरीत हैं और उस मॉडल को सूट करती हैं जहां एक व्यक्ति सबकुछ जानता है और विधानमंडल तो बस औपचारिकता निभाने के लिए होता है।

आदर्श विरासत
जाति व्यवस्था लोकतंत्र के लिए दमनकारी बाधा है। लेकिन, यह भारतीय परंपरा की एकमात्र विरासत नहीं। आध्यात्मिकता के प्रति एक दृष्टिकोण जो मुक्ति के हर मार्ग को समान रूप से मानता है, वह भी हमारी विरासत का हिस्सा है। धार्मिक विविधता को स्वीकार करने की संस्कृति के साथ भारत पूरी दुनिया के लिए एक मिसाल कायम कर सकता है।

सांप्रदायिकता के खतरे
इसके बजाय भारत में राजनीति अल्पसंख्यकों के बहिष्कार की ओर बढ़ रही है। सांप्रदायिक राजनीति स्पष्ट तौर पर अल्पसंख्यकों को नुकसान पहुंचाती है, लेकिन इससे बहुसंख्यकों पर भी असर पड़ता है। अल्पसंख्यकों को दबाने के लिए राज्य की मनमानी बहुसंख्यकों के कमजोर हिस्से को भी प्रभावित करती है। यहां तक कि बहुसंख्यकों में से सबसे सशक्त लोगों के लिए भी उत्पीड़न बाघ की सवारी करने जैसा है। किसी भी वक्त बाघ पलट सकता है और आपको खा सकता है।

सबका सशक्तीकरण
युवा भारतीयों के लिए लक्ष्य होना चाहिए कि वे एक इंसान के रूप में अपनी संभावनाओं को पहचानें। व्यक्तिगत प्रयास प्रॉजेक्ट का एक हिस्सा है, लेकिन अच्छी स्कूलिंग या गांव से स्कूल तक सड़क सामूहिक सशक्तीकरण से ही संभव है।

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