श्रुति
कपकोट, उत्तराखंड
“बेडू पाको बारो मासा, नारायण ! काफल पाको चैता मेरी छैला” (बेडू तो बारह माह पकते हैं, लेकिन काफल तो केवल चैत माह में ही पकता है) उत्तराखंड के इस प्रसिद्ध कुमाऊनी लोकगीत को गाते हुए 95 वर्षीय बछुली देवी के चेहरे पर एक अलग ही मुस्कान तैरने लगती है. वह उत्साह के साथ बताती हैं कि ऐसे बहुत से कुमाऊनी लोकगीत हैं जिसे गाँव में रहने वाली कई बुजुर्ग महिलाएं और पुरुष अक्सर गुनगुनाते रहते हैं. लेकिन नई पीढ़ी अब कुमाउनी बोलना तो दूर, समझ भी नहीं पाती है. बछुली देवी उत्तराखंड के बागेश्वर जिला स्थित कपकोट ब्लॉक के कन्यालीकोट गांव की रहने वाली है. जहां बुज़ुर्गों द्वारा कुमाऊनी बोली जाती है जबकि यहां की नई पीढ़ी हिंदी में बात करती है.
दरअसल एक भाषा के रूप में कुमाऊनी साहित्य या अन्य दस्तावेज़ के प्रमाण बहुत कम मिलते हैं. जिससे यह केवल एक बोली के रूप में सीमित होकर रह गई है. हालांकि गढ़वाली की तरह कुमाऊनी भी उत्तराखंड की पुरानी भाषा और बोली मानी जाती है. इन्हीं दोनों भाषाओं के आधार पर 24 वर्ष पूर्व इस राज्य का गठन किया गया था. राज्य में कुल 13 जिले हैं. जिन्हें बोली के आधार पर गढ़वाली और कुमाऊनी मंडल में बांटा गया है. गढ़वाली बोलने वाले क्षेत्रों में जहां 7 जिले उत्तरकाशी, चमोली, रुद्रप्रयाग, टिहरी गढ़वाल, पौड़ी गढ़वाल, हरिद्वार और देहरादून आते हैं वहीं कुमाऊँ मण्डल में 6 जिले पिथौरागढ़, बागेश्वर, अल्मोड़ा, चंपावत, नैनीताल और उधम सिंह नगर शामिल हैं.
कन्यालीकोट की 87 वर्षीय खनौती देवी
कहती हैं कि “जीवन के लगभग नौ दशकों में मैंने स्थानीय स्तर पर जितना विकास होते देखा उतना ही कुमाउनी बोली और संस्कृति का ह्रास होते भी देखा है. एक जमाना था जब शादियों और तीज-त्योहारों में कुमाऊनी लोकगीत गाए जाते थे. लेकिन आज यह सब कहां देखने को मिलता है? आज जमाना बदल गया है. अब लोकगीत की जगह पर फिल्मी गाने बजाए जाते हैं. डीजे पर सब कुछ बदल गया है. स्वयं मेरे पोता पोती कुमाऊनी बोलते हुए शर्माते हैं. वो लोग गीत को कहां से गाएंगे? मुझे तो ठीक से हिंदी बोलनी भी नहीं आती है. बस थोड़ा समझ लेती हूं.” वह कहती हैं कि जो लोग गाँव छोड़कर शहर चले गए हैं, अपने बच्चों को अंग्रेजी मीडियम स्कूल में पढ़ा रहे हैं भला उनके बच्चे गाँव की भाषा क्या समझेंगे?बैसानी गांव की एक बुजुर्ग पानुली देवी कुमाऊनी में कहती हैं, जिसका अर्थ है “मैंने अपने जीवन के 70 बरस इसी बोली और संस्कृति के बीच गुजारा है. कभी सोचा नही था कि हमारी नई पीढ़ी को कुमाऊनी बोलना तो दूर, समझने में भी कठिनाई आएगी. मेरे दो पोता पोती हैं और दोनों प्राइवेट स्कूल में पढ़ने जाते हैं. पढ़ना अच्छी बात है, लेकिन अपनी बोली को नहीं पहचानना गलत बात है. जब मैं उनसे कुमाऊनी में बात करती हूँ तो वे हंसते हैं और बोलते हैं कि दादी क्या बोलती हो? हमें कुछ समझ में नहीं आता, हिंदी में बोलो हम से. मैं 70 साल की उम्र में हिंदी कहां से सीखूं? जब मैं उनसे कुछ मांगती हूं तो वह अपनी मां को आवाज लगाते हैं कि दादी कुछ मांग रही है. नई पीढ़ी में कुमाऊनी बोली और संस्कृति के प्रति उदासीनता देखकर मुझे चिंता होती है.”
वहीं दूसरी ओर कुमाऊनी बोलने के संबंध में नई पीढ़ी बहुत अधिक गंभीर नज़र नहीं आती हैं. स्थानीय बोली को छोड़ नई भाषा को अपनाती किशोरियां इस बारे में खुलकर बात करती हैं. 12वीं में पढ़ने वाली बैसानी की कुमारी पूजा का कहना है कि “मुझे कुमाऊनी बोलनी आती हैं. लेकिन यह बात सच है कि इसमें बात करना हमें ओल्ड फैशन लगता है और कई बार शर्म भी महसूस होती है. जब हम कहीं शहर जाते हैं और कुमाऊनी में बात करते है तो लोग हमें अजीब नज़रों से देखते हैं उन्हें पता चल जाता है कि हम गांव से आए हैं और फिर हमें ऐसा लगता है कि वो हमें गंवार समझ रहे हैं. वो हमें ऐसा न समझे इसलिए हम हिंदी में ही बोलना ज्यादा पसंद करने लगे हैं.”
गांव की एक अन्य किशोरी 17 वर्षीय ज्योति का कहना है कि “जैसे जैसे हम बड़े हो रहे हैं हमारी मानसिकता ऐसी बन गई है कि हमारे लिए हिंदी और अंग्रेजी ही दैनिक दिनचर्या के लिए ज़रूरी हो गया है. हम नई पीढ़ी यह मानती हैं कि जब हम नौकरी करने जायेंगे तो हमसे इंग्लिश या हिंदी में ही बात की जाएगी, हमारी गांव की भाषा में हमसे कोई बात करने नही आएगा। इसलिए भी हम कुमाऊनी बोलना नहीं चाहते हैं. 11वीं में पढ़ने वाली
पिंकी का कहना है कि “अक्सर घर में माता-पिता हमसे हिंदी में बात करते हैं. वहीं स्कूल में भी शिक्षक हिंदी में ही पढ़ाते हैं. ऐसे परिवेश में अब हम केवल बुज़ुर्गों को ही कुमाऊनी बोलते देखते हैं तो हमें उनकी बोली बहुत अधिक समझ में नहीं आती है. हम तो फिर भी गांव में रहने के कारण थोड़ा बहुत इसे समझ भी लेते हैं, लेकिन जो परिवार शहरों की ओर पलायन कर चुका है, उनके बच्चे जब गांव आते हैं तो वह बिलकुल भी इसे समझ नहीं पाते हैं.”
कन्यालीकोट के 65 वर्षीय केदार सिंह कहते हैं कि “एक समय था जब गांव में केवल कुमाऊनी बोली जाती थी. स्कूलों में भी शिक्षक इसी में बच्चों को पढ़ाया करते थे. लेकिन आज नई पीढ़ी को कुमाऊनी बोलने में हिचक होती है. कहीं ना कहीं इसमें दोषी हम भी हैं. हम उनके साथ घर में कुमाऊनी में बात नहीं करते हैं. जबकि यह हमारी संस्कृति और हमारी पहचान है. मैं हमेशा से यही चाहता हूं कि चाहे दुनिया के किसी भी कोने में हमारे बच्चे चले जाएं, लेकिन वह अपनी भाषा को हमेशा इस्तेमाल करें और बोले ताकि जहां भी जाए वहां हमारी पहचान कायम रहे.
वहीं समाजसेवी ज्योति का विचार है कि “कुमाऊनी बोली लगभग सीमित हो चुकी है. नई पीढ़ी द्वारा इसे नाममात्र बोली जाती है. इसके लिए दो कारण विशेष रूप से ज़िम्मेदार हैं एक कुमाऊनी का लिपिबद्ध नहीं होना और दूसरा बड़ी संख्या में पलायन.” ज्योति के अनुसार भाषा के रूप में कुमाऊनी साहित्य नाममात्र पढ़ने को मिलती है. जिसकी वजह से नई पीढ़ी तक इसे पहुंचाया नहीं जा सका है. वहीं गांव से जो लोग शहरों की ओर पलायन कर चुके हैं अब उनके बच्चे कुमाऊनी बोलने से पूरी तरह वंचित हो चुके हैं. हालांकि मनोरंजन के रूप में ही सही, फिल्म इंडस्ट्री द्वारा कुमाऊनी में तैयार किये जाने वाले गानों ने नई पीढ़ी को इससे जोड़ने का काम ज़रूर किया है. लेकिन जब तक इसे भाषा और साहित्य के रूप में दर्जा नहीं मिलता है, किताबें और कहानियों के रूप में इसे प्रकाशित नहीं किया जाता है, उस वक़्त तक कुमाऊनी को नई पीढ़ी तक पहुंचाना और इसे ज़िंदा रखना कठिन होगा. इसके लिए सामाजिक स्तर पर भी प्रयास करने की ज़रूरत है. (चरखा फीचर)