लोकसभा चुनाव के नतीजे आए अब एक सप्ताह से अधिक हो गये हैं। लेकिन चुनाव नतीजों को लेकर मंथन लगातार चल रहा है। विशेषकर उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल की सीटों के नतीजों को लेकर, जिसने न सिर्फ़ भाजपा को पीछे धकेल दिया, बल्कि उनकी राजनीतिक धार को भी भोथरा कर दिया।
पूर्वांचल में 25 जिले आते हैं। इनमें वाराणसी, जौनपुर, भदोही, मिर्ज़ापुर, गोरखपुर, सोनभद्र, कुशीनगर, देवरिया, महाराजगंज, संत कबीरनगर, बस्ती, आजमगढ़, मऊ, ग़ाज़ीपुर, बलिया, सिद्धार्थनगर, चंदौली, अयोध्या, गोंडा, बलरामपुर, श्रावस्ती, बहराइच, सुल्तानपुर और अंबेडकरनगर। यहां कुल 27 सीटें हैं, जिनमें से सपा-कांग्रेस गठबंधन ने 16 सीटें जीती, जबकि भाजपा और सहयोगी दल 11 सीटें ही जीत सके। जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा गठबंधन ने पूर्वांचल की 20 सीटें जीती थीं।
इस बार भाजपा और उसके सहयोगियों को नुकसान तब हुआ है, जबकि पूर्वांचल का जातीय समीकरण साधने के लिए भाजपा ने पूर्वाचंल का जातीय दलों जैसे कि ओम प्रकाश राजभर के नेतृत्व वाले सुभासपा, अनुप्रिया पटेल के नेतृत्व वाले अपना दल (एस) और संजय निषाद के नेतृत्व वाले निषाद पार्टी से गठबंधन किया हुआ था। गौरतलब है कि निषाद, केवट और मल्लाह समुदाय को निषाद पार्टी, कुर्मी समुदाय को अपना दल और भर व राजभर जाति को सुभासपा का कोर वोटर माना जाता है।
भाजपा को महंगा पड़ा बड़ी पार्टी होने की ऐंठन
हालांकि बड़ी पार्टी होने की ऐंठन में भाजपा ने सैंथवार मल्ल महासभा को दरकिनार कर दिया। आठ सीटों में से किसी एक पर टिकट मांग रहे गंगा सिंह सैंथवार की सैंथवार मल्ल महासभा को जब भाजपा ने एक भी सीट नहीं दी तो उसने बस्ती, संत कबीरनगर और कुशीनगर में सपा प्रत्याशी को समर्थन दिया। बस्ती और संत कबीरनगर में सपा जीत गई, जबकि कुशीनगर में अच्छा प्रदर्शन करने के बावजूद हार मिली। इसी तरह देवरिया, सलेमपुर, बांसगांव, बलिया, घोसी सहित कई क्षेत्र में सवर्ण समाज अपने अंतर्विरोधों के चलते भाजपा के बजाय ‘इंडिया’ गठबंधन की तरफ गया।
मसलन, प्रतापगढ़ के कुंडा से विधायक और जनसत्ता दल (लोकतांत्रिक) के मुखिया रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैय्या का अमित शाह से बेंगलुरु में मुलाकात के बाद मतदाताओं से मनचाहे दल को वोट देने की अपील करने और प्रतापगढ़ में अनुप्रिया पटेल का सीधे तौर पर राजा भैय्या पर हमला करने से ठाकुर मतदाताओं ने भाजपा के ख़िलाफ़ मतदान किया।
गैर-यादव उम्मीदवारों ने बदला खेल
गोरखपुर के सामाजिक कार्यकर्ता राजू साहनी कहते हैं कि पूर्वांचल की पूरी सियासत ओबीसी जातियों के इर्द-गिर्द घूमती है क्योंकि यहां ओबीसी वोटबैंक 50 प्रतिशत से ज्यादा है। भाजपा पिछले दोनों चुनावों में यादव बनाम गैर-यादव का विभाजन खड़ा करके गैर-यादव मतों को अपने पाले में खींचने में कामयाब हुई थी। भाजपा के इस विभाजन की काट इंडिया गठबंधन ने पीडीए फॉर्मूले को लागू करके निकाला। इस चुनाव में समाजवादी पार्टी ने पूर्वांचल में अपने कोटे के 22 सीटों में से 14 सीटों पर गैर-यादव ओबीसी उम्मीदवार और 4 सीटों पर दलित उम्मीदवार उतारे थे। बाक़ी चार सीटों पर एक यादव, एक मुस्लिम, एक ब्राह्मण और ठाकुर उम्मीदवार मैदान में था। बसपा के कमज़ोर होने से दलित मतदाताओं का वोट भी बहुत हद तक इंडिया गठबंधन के खाते में गया। इसी कारण पूर्वांचल की वो 6 सीटें सपा के खाते में गईं, जो पिछले चुनाव में बसपा के पास थी।
अनुप्रिया पटेल से लेकर नरेंद्र मोदी तक को जीत के लिए करना पड़ा संघर्ष
पूर्वांचल में सपा के नेतृत्व वाले इंडिया गठबंधन ने जिन सीटों पर जीत दर्ज़ की है, उनमें सुल्तानपुर, प्रतापगढ़, मछलीशहर, बलिया, बस्ती, संत कबीर नगर, चंदौली, लालगंज, जौनपुर, ग़ाज़ीपुर, श्रावस्ती, घोसी, अंबेडकर नगर, आजमगढ़, राबर्ट्सगंज लोकसभा सीटें शामिल है। पूर्वांचल में भाजपा ने सिर्फ़ वाराणसी और गोरखपुर मंडल की सीटों पर ही जीत दर्ज़ की। गोरखपुर मंडल का नेतृत्व मुख्यमंत्री योगी और गोरखनाथ मठ तथा वाराणसी मंडल का नेतृत्व प्रधानमंत्री मोदी कर रहे थे। वाराणसी सीट पर खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जीत का अंतर तीन गुना कम हो गया। मिर्जापुर सीट जीतने में केंद्रीय मंत्री और अपना दल (सोनेलाल) चीफ अनुप्रिया पटेल को बहुत संघर्ष करना पड़ा। उनके जीत का अंतर महज 37,810 मतों का रहा। बांसगांव से भाजपा 4,540 मतों से और सलेमपुर से 3573 मतों से, फूलपुर में 4,332 मतों से जीत हासिल की। इन सीटों पर देर रात तक मतगणना की गई और मतगणना के दौरान बिजली कटौती हुई, जिससे इन सीटों पर भाजपा की जीत को लोग बेईमानी बता रहे हैं। इसी तरह डुमरियागंज से भाजपा का जीत का अंतर 42,728, महाराजगंज से जीत का अंतर 35,451, देवरिया से 34,842 और भदोही से 44,072, गोंडा में 46,224 मतों का है।
बनारस की सबसे नजदीक की सीट चंदौली से केंद्रीय मंत्री रहे महेंद्र नाथ पांडेय चुनाव हार गये। सुल्तानपुर से केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी चुनाव हार गईं। पूर्वाचंल की कई परंपरागत सीटों पर भी भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा है। जैसे बलिया लोकसभा सीट से पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के बेटे नीरज शेखर भाजपा प्रत्याशी के तौर पर मैदान में थे, पर उन्हें सपा के सनातन पांडेय ने हरा दिया। जबकि चंद्रशेखर 8 बार बलिया लोकसभा सीट से सांसद चुने गए थे। इसी तरह घोसी सीट पर ओम प्रकाश राजभर के बेटे अरविंद राजभर चुनाव हार गए।
स्थानीय लोगों की राय
गोरखपुर न्यूज़लाइन वेबसाइट के संपादक मनोज सिंह कहते हैं कि लोगों में बेरोज़गारी, महंगाई, अग्निपथ योजना, पेपर लीक, ग्रामीण संकट, खेती-किसानी के साथ-साथ संविधान व लोकतंत्र के सवाल को लेकर मोदी-योगी सरकार के ख़िलाफ़ तीव्र आक्रोश था, जो सपा-कांग्रेस गठबंधन, पीडीए के प्रयोग, बसपा के अलग-थलग पड़ने सहित कई फैक्टर से मिलकर एक सत्ता विरोधी लहर में बदल गया।
बलिया जिले के फेफना विधानसभा क्षेत्र के बैरिया गांव के राजनीतिक विशेषज्ञ शशि शेखर राय बताते हैं कि स्थानीय मुद्दों ने भी चुनाव पर असर डाला। नेपाल के त्रिकोण पर नारायणी नदी के गोद में बसे सोहगीबरवां गांव में आज भी जाने के लिए कोई रास्ता नहीं है। यह गांव छह महीने तक टापू बना रहता है। लोग नदी की कई धाराओं को नाव से पार कर जाते हैं, फिर रेत में चार-चार किलोमीटर तक पैदल चलते हैं, तब जाकर अपने घर पहुंच पाते हैं। राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा की खुशी में इस गांव के लोगों ने भी जुलूस निकाला था, लेकिन दो महीने बाद ही चुनाव की घोषणा के पहले अपने गांव में चुनाव बहिष्कार के बैनर लगाकर कहा कि पुल नहीं बना, तो हम वोट नहीं देंगे। इसके बाद गोरखपुर के उन 26 गांवों में भाजपा के बहिष्कार के बैनर टंगने शुरू हो गए, जिनकी ज़मीन बाईपास बनाने के लिए सात साल पुराने सर्किल रेट पर ले ली गई थी।
आजमगढ़ और बलिया का बेल्ट अपने बाग़ी तेवर के लिए जाना जाता है। समाजवाद की उपजाऊ ज़मीन रहे इस क्षेत्र में समाजवादी चेतना आज भी मौजूद है। आजमगढ़ के राम प्रकाश राही कहते हैं कि यूपी में बसपा का नेशनल नॅरेटिव से अपने को अलग कर लेना और अकेले चुनाव लड़ने का फैसला आत्मघाती साबित हुआ। मतदाताओं को भी पता होता है कि कोई भी पार्टी केवल एक जाति के वोटबैंक पर या अकेले दम पर चुनाव नहीं जीत सकती। अतः बसपा के कोर मतदाताओं का बड़ा हिस्सा ‘इंडिया’ गठबंधन की ओर चला गया।
दरअसल लगातार भाजपा उम्मीदवारों द्वारा दलितों और पिछड़े वर्गों में यह संदेह पुख्ता होता गया कि भाजपा 400 से अधिक सीटों को बहुमत इसलिए चाहती है ताकि संविधान को बदला जा सके। फ़ैज़ाबाद के भाजपा प्रत्याशी लल्लू सिंह, मेरठ से अरुण गोविल, नागौर में ज्योति मिर्धा, कर्नाटक में अनंत हेगड़े, राजस्थान की डिप्टी सीएम दिया कुमारी, तेलंगाना से धर्मपुरी अरविंद ने चुनाव के दौरान संविधान बदलने की बातें की या संविधान बदलने की बात को दुहराया। दूसरी ओर सपा और कांग्रेस चुनावी मंचों से लगातार यह नॅरेटिव बनाने में कामयाब रहे कि ये संविधान और लोकतंत्र बचाने का चुनाव है। ये (भाजपा) संविधन बदल देंगे तो सबसे ज़्यादा नुकसान हमारे दलित-बहुजन परिवारों को होगा।
फ़ैज़ाबाद के प्रदीप शुक्ला कहते हैं कि इस चुनाव में भाजपा द्वारा 2014 में तैयार की गई सोशल इंजीनियरिंग में बड़ी दरार पैदा हो गई थी। भाजपा पिछले दस वर्ष से सवर्णों के अलावा अति पिछड़ों के बड़े हिस्से को अपने साथ लाने में कामयाब हुई थी, क्योंकि इन हिस्सों को राजनीतिक भागीदारी सपा, बसपा व कांग्रेस नहीं दे पा रही थी, लेकिन यह समन्वय धीरे-धीरे दरकना शुरू हो गया था। भाजपा में आए अति पिछड़े समाज के मतदाताओं को ये एहसास होने लगा कि वे वोट तो भाजपा को दे रहे हैं, लेकिन भाजपा उन्हें राजनीतिक प्रतिनिनिधित्व नहीं दे रही है। दूसरी ओर इंडिया गठबंधन ने पीडीए (पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक) का प्रयोग किया और गैर-यादव पिछड़ी जातियों के नेताओं को अधिक टिकट दिया। इससे भाजपा से अति पिछड़ा समाज छिटककर विपक्षी गठबंधन में आ गया।
जौनपुर के रवींद्र धर दूबे कहते हैं कि भाजपा द्वारा पूर्वांचल में बाहरी लोगों को चुनाव लड़ाने से भाजपा के कार्यकर्ताओं में मायूसी थी। कई बार से जीतते आ रहे भाजपा सांसदों की अकर्मण्यता और कार्यशैली से लोगों में आक्रोश था। वहीं सपा बदली हुई रणनीति के साथ उतरी। सपा ने जिस तरह से इस बार यादव और मुस्लिम का सरपस्त होने के टैग को हटाते हुए गैर-यादवों और दलितों पर अधिक दांव लगाकर नए सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला दिया था, उसका भी व्यापक असर पड़ा। इसके अलावा संविधान बदलने और आरक्षण खत्म करने के मुद्दे को हर ओबीसी और दलितों तक पहुंचाने में भी विपक्षी गठबंधन कामयाब रहा, इसी का असर चुनाव नतीजों में बदल गया।