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भाजपा की शल्य-दक्षता पर किसी को संदेह नहीं होना चाहिए

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प्रफुल्ल कोलख्यान 

यह ठीक है कि इस बार खंडित जनादेश ने भारतीय जनता पार्टी के भारत सत्ता पर एकाधिकार को पंगु कर दिया है। लेकिन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के बड़ा सत्ता पर शासन अधिकार को सीमित नहीं किया है। यह ठीक है कि भारतीय जनता पार्टी अकेले मनमानेपन से काम नहीं कर पायेगी। उसे अनिवार्य रूप से तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) के और जनता दल यूनाइटेड के सांसदों के समर्थन की जरूरत बनी रहेगी।

यह भी ठीक है कि इस समय प्रतिपक्ष काफी मजबूत दिख रहा है और सत्ता पक्ष पर्याप्त टिकाऊ नहीं लग रहा है। जो दिख रहा है उसके परे भी बहुत कुछ है जो स्पष्ट रूप से अपने होने का एहसास तो करा रहा है, लेकिन साफ-साफ दिख नहीं रहा है। कितने समय तक सहयोगी दलों के ऊपर भारतीय जनता पार्टी निर्भर रहेगी और कितने दिन के बाद सहयोगी दल अपने अस्तित्व के लिए भारतीय जनता पार्टी की कृपा के सहारे हो जायेंगे, कुछ भी कहना मुश्किल है। गैर-सहयोगी दलों के बारे में भी यही सच है। कुल मिलाकर यह कि भारतीय जनता पार्टी की शल्य-दक्षता पर किसी को संदेह नहीं होना चाहिए।

लोकतंत्र में जनता और सत्ता के द्वैत के बीच एक तीसरा पक्ष भी है। इस तीसरे पक्ष का संयुक्त नाम कॉरपोरेट शक्ति है। यह वह अ-दृश्य शक्ति है जो लोकतंत्र की बुनियाद यानी समतामूलक समाज के सपना को तहस-नहस करता रहता है। पिछले दिनों से इस तीसरे पक्ष का भारत सत्ता से जबरदस्त मिलीभगत बन गई है। कॉरपोरेट और सरकार का ऐसा ताल-मेल लोकतंत्र के लिए बहुत खतरनाक और भयानक है। समझ में आने लायक बात है कि आज राजनीति को कॉरपोरेट की गतिविधि के विश्लेषण के बिना समझना बहुत मुश्किल है। यह दुखद है कि सत्ता-कॉरपोरेट-जनता के त्रैत में जनता सब से कमजोर पक्ष बन गया है। बहुत दुखद है मगर सच है कि लोकतंत्र का आधार लोकतंत्र का कमजोर पक्ष बन गया है। अभी की स्थिति में सत्ता-कॉरपोरेट-जनता के बीच जबरदस्त रस्साकशी होगी, होती रहेगी।

सरकार-कॉरपोरेट-जनता के बीच की रस्साकशी में जनता अपनी चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार से इतनी उम्मीद तो रखती ही है कि सरकार को जनता के पक्ष में होना चाहिए, कम-से-कम निष्पक्ष मध्यस्थ तो जरूर होना चाहिए। चुनाव जीतने के बाद जनता की इसी उम्मीद को सरकार समाप्त कर देती है और ‘चुनावी तानाशाही’ की ओर बेझिझक होकर कदम बढ़ा देती है। अंततः जनता के पक्ष में प्रतिपक्ष रह जाता है। लेकिन कॉरपोरेट का मायावी आकर्षण कब उसे अपने पक्ष में खींच ले, इस पर कुछ भी कहना मुश्किल होता है। मीडिया? क्या पता!

उदार-लोकतंत्र की पैरवी करते हुए रीगन जैसे दुनिया के नेताओं ने ‘शासन कम और सेवा अधिक’ का शुभ संकेत दिया था। ‘कम शासन’ का मतलब था बाजार पर सरकार का नियंत्रण कम और कॉरपोरेट की ‘सेवा’ में जनता अधिक। सेवादारी का मतलब गुलामी होता नहीं है, मगर हो गया है। पूर्ण गुलामी नहीं भी तो न्यूनतम आजादी तो जरूर हो गया है।

सत्ता के सहयोगी-द्वय क्या करेंगे! चंद्रबाबू नायडू की व्यक्तिगत छवि कॉरपोरेट-मित्र की रही है। नीतीश कुमार की छवि समाजवाद के ‘फिनिश्ड प्रोडक्ट’ की रही है। ‘फिनिश्ड प्रोडक्ट’ के ‘फिनिश्ड’ का मतलब नये निजाम में क्या बनेगा कुछ भी कहना मुश्किल है? जो लोग वर्तमान सत्ता के अपने ही अंतर्विरोधों के कारण बिखर जाने की उम्मीद करते हैं, वे गफलत में हैं। जो भले लोग हिंदुत्व की राजनीति के प्रति आकर्षण महसूस करते हैं उन्हें भी समझना चाहिए कि राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की भारतीय जनता पार्टी हिंदुत्व की राजनीति के उस एजेंडे पर अब काम नहीं कर रही है जो जनता के आध्यात्मिक, आर्थिक सहित किसी भी अंश को मजबूत करती है, बल्कि वह कॉरपोरेट हित की सेवा में लगी रहा करती है।

राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ को भी इस गफलत में नहीं रहना चाहिए कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में ‘उनकी’ भारतीय जनता पार्टी देश को ‘औपनिवेशिक स्मृति’ से बाहर निकालने की कोई कोशिश कर रही है और न ही इस गफलत में पड़ना चाहिए कि उनके ‘अपने लोग’ ‘हिंदू चिह्नों’ की नई पहचान बना रहे हैं। वे केवल और केवल कॉरपोरेट के हित की सेवादारी में लगे हैं। इस कॉरपोरेट-हित में जन-हित का कोई भी प्रसंग शामिल नहीं है। चंद्रबाबू नायडू की राजनीति में कॉरपोरेट-मैत्री की पुस्तक का कोई भी अध्याय भारत के असली हितधारक और आम लोगों के दुख पर कोई चर्चा नहीं करता है। असली इस अर्थ में कि नव-धनाढ्यों की तरह से वे भारत के अलावा दुनिया में कहीं नहीं बस सकते हैं।

अंततः राजनीति का मकसद क्या होता है। लोकतंत्र या सत्ता! जन-राजनीति का मकसद लोकतंत्र होता है जबकि सत्ता-राजनीति का मकसद सत्ता ही होता है। यह सही लगता है कि भारत में ही नहीं पूरी दुनिया की जन-राजनीति में खालीपन बढ़ा है। दुनिया भर के शासक इतिहास में अपने अच्छे काम के लिए याद किये जाने की मौलिक भावना से दूर हो गये हैं। आज उनमें इस बात को लेकर कोई फिक्र नहीं बची है कि जन-विश्वास के चलते सत्ता के शिखर तक की यात्रा में सफल रहने पर जन-विश्वास की रक्षा करना उनका मौलिक दायित्व है।

जन-विश्वास की रक्षा का मतलब होता है उन के नेतृत्व में जनता को सभ्य और बेहतर जीवनयापन की समाज व्यवस्था के लिए राज-व्यवस्था काम करे। जन-विश्वास की रक्षा करने की बात तो दूर वे पूंजी और कॉरपोरेट के भृत्य बनने की होड़ में लगे हुए दिखने से भी परहेज नहीं करते हैं। हां, यह भी ठीक है कि कभी-कभार लाज-लिहाज के चलते थोड़ा सहम जाया करते हैं।

जिस तरह से सरकार के नौकरशाह तैनाती-तरक्की-तबादला की साधना में लगे रहते हैं, उसी तरह से अधिकतर राजनीतिक दल सत्ता लोलुपता और हवस में कॉरपोरेट-मित्र और फिर खुद कॉरपोरेट बनने के लिए समर्पित होने की प्रतियोगिता में लगे रहते हैं। कॉरपोरेट की सत्ता राजनीति के नायकों को ताश के पत्ते की तरह से सजाती रहती है। कॉरपोरेट जगत के समझ में आने लायक यह बात होनी चाहिए कि लोकतंत्र का वर्तमान रूप पूंजीवाद के अंतर्ध्वंस से बचने का सबसे निरापद रास्ता है।

यह मानना बिल्कुल भी ठीक नहीं है कि तकनीकी ताकत, धन-शक्ति और राजनीतिक दलों के माध्यम से आम लोगों को भुलावे में रखकर नव-धनाढ्यों का स्वार्थ सब दिन सधता रहेगा। स्वतंत्रता मनुष्य की मौलिक वृत्ति है। मौलिक वृत्ति को बहुत दिनों तक दमित करना संभव नहीं होता है। लोकतंत्र के फेल होने के कगार पर पहुंच जाने के कारण यह संक्रमण का दौर है। संक्रमण के किसी भी दौर में पिछले दौर के अंतर्विरोधों की धमक बिल्कुल समाप्त नहीं हो जाती है। लोकतंत्र के अन्य संस्करण भी हैं दुनिया के अंतर्ज्ञान में।

भारत में खंडित जनादेश के बाद क्या स्थिति बनती है यह अभी देखने की बात है। अभी तो लोक सभा के अध्यक्ष के चुनाव की चुनौती सत्तासीन गठबंधन के सामने है। संसद सत्र में संसदीय गतिविधि चलनी है। पक्ष और प्रतिपक्ष के बीच संसदीय संवाद के तौर-तरीके से बहुत जल्दी कुछ-कुछ साफ हो जायेगा।

खंडित-जनादेश के बाद सत्ता का अति-दक्षिणपंथी रुख और रवैया अभी स्पष्ट होगा। वैसे लक्षण अच्छे नहीं दिख रहे हैं। भारत के आम लोगों को यह साफ-साफ समझना चाहिए कि राह आसान नहीं है लोकतंत्र की, तो आगे क्या कर्तव्य है!

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