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ध्यान : संभोग-जन्य संसार और मृत्यु-साधना 

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         डॉ. विकास मानव 

जितनी भी सृस्टि है, सब मैथुनी सृष्टि है। इसलिए कि मैथुनी जगत् में ‘काम’ प्रधान है। उसकी व्यापकता सर्वत्र है। उसका अस्तित्व कण-कण में है और एकमात्र यही कारण है कि उस पर विजय प्राप्त करना अथवा उससे परे होना अति कठिन कार्य है। कामवासना को हम जितना दबाएंगे, उतनी ही वह बढ़ेगी। 

    भले ही हम जननेंद्रिय या कामेन्द्रिय का उपयोग न करें लेकिन हमारा जो मन है, हमारा जो चित्त है, वह सदैव कामवासना से भरा ही रहेगा। इसका एकमात्र कारण है कि हम शरीर से पूर्णतया जुड़े हुए हैं। यदि हमें कामवासना से मुक्त होना है तो दो बातों को सदैव याद रखें :

     पहली बात–मैं शरीर नहीं हूँ। 

दूसरी बात–मेरे भीतर जीवन की कामना नहीं है।

    इन दोनों बातों के प्रति हमारी दृष्टि स्थिर होनी चाहिए।

कामवासना का विरोध मृत्यु से है। जन्म तो कामवासना से होता है, परन्तु मृत्यु कामवासना का अन्त है। मृत्यु कामवासना विरोधी है। भारतीय मनीषा का कहना है कि यदि वास्तव में कामवासना पर विजय प्राप्त करना है, कामवासना से विमुख होना है तो मृत्युसाधना करनी चाहिए। 

     मृत्युसाधना सबसे बड़ी साधना है। कामवासना से परे जाने के लिए मृत्यु साधना एक परम वैज्ञानिक प्रयोग है।

इसके लिए हमें मरघट पर, श्मशान पर अधिक से अधिक जाना चाहिए। ध्यान से देखना चाहिए कि जो कभी जीवित था, उसका अंग-अंग कैसे आग की लपटों में जल रहा है ! मरघट ही, श्मशान ही हमारा वास्तविक साधना स्थल है।

       मुर्दे आएंगे, बच्चों के, जवानों के, वृद्धों के, उनमें कुछ सुन्दर होंगे, कुछ विकृत होंगे, कुछ कुरूप होंगे, कुछ स्वस्थ होंगे और कुछ होंगे अस्वस्थ भी। इस प्रकार के शव आएंगे, मुर्दे आएंगे, उनको हमें देखना चाहिए, उनकी जलती चिताएं देखनी चाहिए, उन्हें मुट्ठीभर राख में बदलते देखना चाहिए। हमें उन पर अपने मन को एकाग्र करना चाहिए।

          मृत्युसाधना अध्यात्मसाधना की एक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक साधना है। क्योंकि मृत्यु हमारे सामने पूर्णतया स्पष्ट हो जाये तो हमारी कामवासना तुरंत नष्ट हो जायेगी। इसी तथ्य को एक उदाहरण के द्वारा समझाता हूँ–महात्मा महाव्रत बोले– एक अत्यंत सुन्दर तरुणी व्यक्ति के सामने हो और वह कामवासना से भरा हुआ हो।

       शारीरिक सुख को प्राप्त करने के लिए वह लालायित हो और उसी समय उसके किसी अपराध के दण्ड स्वरूप राज्य की ओर से यह सूचना मिले कि उसे आज शाम को मृत्युदण्ड दिया जायेगा। सोचिये–उस व्यक्ति की उस समय क्या स्थिति होगी ? वह सुन्दर कमनीय तरुणी उसके आँखों से खो जायेगी। वासना का प्रवाह बन्द हो जायेगा। वासना की सारी धारा तिरोहित हो जायेगी। 

     वासना का रस तत्काल समाप्त हो जायेगा क्योंकि उसके मन में एक ही बात स्थायी रूप से बैठ जायेगी कि आज सायंकाल हमें मृत्यु के मुख में हमेशा हमेशा के लिए समा जाना होगा।

    कहने का तात्पर्य यह है कि कामवासना से मुक्त होने के लिए सदैव मृत्यु का स्मरण करते रहना चाहिए। हमें समझना चाहिए कि मृत्यु कभी भी आ सकती है। सच भी है–मृत्यु कब आ जाये किसे पता है ? मृत्यु किसी भी पल आ सकती है। हो सकता है जो पल हम जी रहे हैं, वही आखीरी पल हो। हमारा शरीर हमेशा हमेशा के लिए छूट जाने वाला हो। 

     मृत्यु की धारणा जितनी गहरी होगी, कामवासना उतनी ही कमजोर होती जाएगी और एक समय ऐसा आएगा जब हमें कामवासना से निजात मिल जायेगी। यह मुक्ति न कामवासना के दमन से उपलब्ध् होती है और न ही उपलब्ध् होती है उसके भोग से।

व्यक्ति को समझ लेना चाहिए कि सभी इंद्रियों का केंद्र कामेन्द्रिय है। व्यक्ति के नेत्रों के माध्यम से कामवासना रूप-सौन्दर्य खोजती है। कानों से मधुर ध्वनि, कामोत्तेजक आवाज, संगीत सुनती है। संगीत से कामवासना ही तृप्त होती है। सुन्दर चित्र, सुन्दर वातावरण, प्राकृतिक सुंदरता, पक्षियों का मनमोहक कलरव, गगन में खिला हुआ पूनम का चाँद, हरे-भरे लहलहाते खेत, हवा में लहराते हुए रंग-विरंगे फूल–ये सब क्या हैं ? 

     कानों और नेत्रों के द्वारा जगत् के साथ एक प्रकार का सम्भोग ही तो है।  नाक के द्वारा सुमधुर  कामोत्तेजक् गन्ध, जीभ के द्वारा मधुर स्वाद, त्वचा के द्वारा कोमल कमनीय काया का स्पर्श –ये सब मैथुन का ही एक प्रकार है। इन सब कामोद्दीपक साधनों से मन में कामवासना ही तो पुष्ट होती है जिनका माध्यम बनती हैं व्यक्ति की ज्ञानेन्द्रियाँ और उपभोग का माध्यम बनती हैं व्यक्ति की कर्मेन्द्रियाँ। 

     बस, इस प्रसंग के अंत में हमें केवल इतना ही कहना है कि कामवासना जीवनवासना का पर्याय है। जीवन वासना ही जीवेषणा है। इससे बड़ा पागलपन जीवन में और क्या है ? क्योंकि जीवन में इससे क्या उपलव्धि होती है? हमारे हाथ क्या लगता है ? फिर भी हम जीना चाहते हैं। जीवन को हम छोड़ने के लिए कदापि तैयार नहीं होते। 

     हमें यह बात ज्ञात होनी चाहिए कि यदि हम स्वेच्छा से जीवन त्यागने के लिए तैयार हैं तो एक नया जीवन हमें उपलब्ध् हो जाता है। मृत्यु– जिसका एक विश्रामस्थल होता है और उस विश्राम के बाद हम पुनः एकबार महाजीवन की यात्रा पर निकल पड़ते हैं। जो व्यक्ति जीवन को दरिद्र की भांति पकड़े रहता है, एक भिखारी की तरह जीवन की भीख मांगता है, उसके हाथ क्या लगता है सिवाय एक पश्चाताप के ? इसके अलावा और कुछ भी नहीं।

मनुष्य जिस स्थिति में होता है, जहाँ भी होता है और स्वयम् जो भी होता है, उसके अनुसार तर्क खोज लेता है। ईश्वर् का अस्तित्व है या नहीँ ?–यह प्रश्न बड़ा नहीं है, महत्व भी नहीं है उसका। जो व्यक्ति ईश्वर् के अस्तित्व को स्वीकार करता है और उसके अस्तित्व के नाम पर शीश झुकाता है, उसका महत्व है। 

     ईश्वर् का महत्व उतना नहीं है जितना उसके नाम् पर झुकने का महत्त्व है। संसार में ऐसे अनेक लोग हैं जो भौतिकवादी हैं और ईश्वर् के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते हैं। यदि थोड़ी देर के लिए उनके विचार को ही मान लिया जाय और ईश्वर् का अस्तित्व नहीं है–ऐसा स्वीकार कर लिया जाय तो भी उसके नाम् पर मात्र झुक जाने से ईश्वर् का अस्तित्व स्वतः प्रमाणित हो जायेगा।

       ईश्वर् हो या न हो, लेकिन जो व्यक्ति यह कहता है कि ईश्वर् है ही नहीं, वह आसुरी वृत्ति का व्यक्ति है। ईश्वर् होते हुए भी उसके लिए ईश्वर् नहीं है। स्वर्ग, मुक्ति, मोक्ष, कैवल्य, परमपद आदि के द्वार बन्द हैं उसके लिए। भगवान् श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं–ऐसे व्यक्ति को मैं बार-बार आसुरी योनि में ही भेजता हूँ। वह आसुरी योनि का ही अधिकारी रहता है।

      काम, क्रोध, लोभ, अहंकार, निन्दा, पापकर्म, क्रूरकर्म, इनसे ईश्वर् को तो बचाना चाहिए, रक्षा करना, दया करना चाहिए, कृपा करना चाहिए क्योंकि कोई कैसी भी वृति वाला व्यक्ति क्यों न हो, वह प्रार्थना और स्तुति तो करता ही है। वह कहता है–हे पतित पावन, हे कृपानिधान, हे करुणानिधान ! मझ पर दया करो, मुझे क्षमा करो, मेरी रक्षा करो। मैं पापी हूँ, मैं नराधम हूँ। 

      फिर श्रीकृष्ण ऐसा क्यों कहते हैं कि मैं उसे बार-बार आसुरी योनि में भेजता हूँ। बड़ा विपरीत प्रतीत होता है यह। समझ में नहीं आता। तथ्य को समझने में आपको कठिनाई हो रही है। लेकिन जब ईसाई या इस्लाम धर्म को मानने वाले लोग इस प्रकार की प्रार्थना करते हैं और इस प्रकार के वचन बोलते हैं तो उनको भी भारी कठिनाई होती है। परमात्मा के जितने भी नाम् हैं–राम, रहीम, करीम, अल्ला, गॉड आदि–वे सब दया, कृपा, करुणा के पर्याय हैं। 

     जीसस ने भी कहा है–तुम प्रार्थना करो, ईश्वर् तुम्हें क्षमा कर देगा। तुम उसे पुकारो, वह तुम पर अवश्य दया करेगा। लेकिन भगवान् श्रीकृष्ण का वचन भारतीय प्रज्ञा की सबसे बड़ी खोज है, सबसे बड़ी उपलब्धि है जिसका अर्थ है–ईश्वर् कोई व्यक्ति नहीं है कि आप उसे पुकारें और वह दौड़ा हुआ आपके पास चला आये। आप प्रार्थना कर, स्तुति कर और पूजा-अर्चना कर उसे प्रसन्न कर दें और वह आपकी सारी पीड़ा, सारी व्यथा, सारी समस्या एकबारगी दूर कर दे। इसे ठीक से समझ लेना चाहिए।

      परमात्मा एक नियम, एक सिद्धान्त है, एक व्यवस्था है, व्यक्ति नहीं। 

    भारतीय मनीषा की जो सबसे बड़ी खोज है, वह है–कर्म का सिद्धांत। यह खोज इतनी गहरी है, इतनी प्रभावशाली है कि जैन धर्म ने, बौद्ध धर्म ने तो परमात्मा को बिलकुल अस्तित्वहीन ही कर दिया। उन दोनों के लिए परमात्मा का अस्तित्व है ही नहीं। उनका कहना है कि कर्म का सिद्धांत ही सबकुछ है। उससे ही सबकुछ स्पष्ट हो जाता है। परमात्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करने की भी कोई आवश्यकता नहीं क्योंकि परमात्मा ही वह महानियम है जो इस जीवन और जगत् को चला रहा है।

     उसे आप कर्म का नियम कहें या कहें परमात्मा, दोनों एक ही बात है। परमात्मा का अर्थ ही महानियम है। उस नियम को समझकर, स्वीकार कर उसके अनुकूल चलने का नाम ही धर्म है।

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