अग्नि आलोक
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लघुकथा:यों मिट्टी हो जाना! 

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 विवेक मेहता 

           संसार में मुकम्मल जहां किसी को भी नहीं मिलता। नहीं मिले। पर, ऐसे दिन भी देखने को तो ना मिलें। 

          वे बैंक में मैनेजर। अच्छी नौकरी, अच्छी प्रतिष्ठा। रिटायरमेंट की उम्र में पहुंच चुके थे। बच्चे हुए नहीं। मां और पत्नी के बीच कभी बनी नहीं। ताउम्र वे दो पाटों के बीच पिसते रहें। पिता के गुजर जाने के बाद मां पैतृक मकान में अकेली रहती। शहर में ही उससे सात आठ किलोमीटर दूर उन्होंने अपना मकान बना लिया। नौकरी के बाद के समय में पेंडुलम की तरह वे इस मकान से उस मकान के बीच डोलते रहते। कौन सही, कौन गलत- जैसे सवाल को टालते हुए अपना कर्त्तव्य पूरा करने में लगे रहते। 

           मां को ब्रेन स्ट्रोक आया। वह लकवाग्रस्त हो गयी। एक नौकरानी की जैसे तैसे व्यवस्था की। वह झाड़ू-पोछा, थोड़ी साज-संभल कर देती। रात में मां के पास सो जाती। नौकरी पर जाने से पहले और छूटने के बाद वे मां की देखरेख कर लेते।

         किसी काम से नौकरानी को दो दिन की छुट्टी चाहिए थी। पूरी जिम्मेदारी उन पर आ गई। शनिवार, रविवार की छुट्टियां थी इसलिए परेशानी कम थी।

        शनिवार को वे खाना लेकर गए। मां को खाना खिलाया, खुद भी खाया। रात को बाथरूम गए। हार्ड अरेस्ट हुआ। उनका शरीर बाथरूम के बंद दरवाजे के अंदर ही बंद रह गया। आत्मा बाहर निकल गई।

           रविवार गुजर गया। सोमवार आ गया। ऑफिस नहीं पहुंचे तो फोन बजने लगे। फोन उठाने वाला हो तो जवाब मिले! काम के आदमी थे इसलिए दौड़-भाग शुरू हुई।

         भाग-दौड़ के बाद मां के घर तक लोग पहुंचे। मुख्य दरवाजा, बाथरूम का दरवाजा तोड़ा गया। देखा तो बाथरूम में उनका अकड़ा शरीर पड़ा था। बाहर कमरे में सिलवटें भरे बिस्तर पर, गंदगी में लिपटी उनकी मां की देह पड़ी थी।

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