डॉ. विकास मानव
जीवनदायी औषधि रोगी को दी जाय और वह उसे मुख में ही रखे, पेट में न पहुँचाये तो क्या वह आरोग्यता को प्राप्त करेगा?
उस औषधि को वह निगल जाये और उसके पेट में पहुंचते ही उसे उल्टी के हो जाय तो क्या उसका जीवन बच पायेगा?
वह औषधि रोगी के पेट में पहुँच जाय किन्तु पचे न तथा दस्त होकर बाहर उत्सर्जित हो जाय तो क्या वह औषधि उसे लाभान्वित कर सकेगी?
इसी प्रकार, जो व्यक्ति ब्रह्म विद्या का मुखर वक्ता है/ ब्रह्म का उपदेशन करता है/ अपने को ब्रह्म कहता हुआ विचरता है तो क्या वह ब्रह्मज्ञानी है?
जो अपने को ब्राह्मण मान कर वेदाध्ययन करता है/ वेद को जान लेता है/ अपने को वेदविद कहता है तो क्या वह ब्रह्म है?
जिसे ज्ञान का दम्भ है/समस्त शास्त्रों का परायण करके भी अहमन्यता से मस्त है, लोकेष्णु है तो क्या उसे ब्रह्मवेत्ता कहा जा सकता है ?
नहीं।
ब्रह्मज्ञान सब को नहीं मिलता। यह चाहने से नहीं मिलता। यह उद्योग करने से भी नहीं मिलता। तो फिर मिलता है कैसे? प्रपत्ति से, सर्वतोभावेन शरणागति से इसका होना कठिन है। हो जाय तो पूछिये मत। आनन्द ही आनन्द है। द्वैत में अद्वैत है। यह सब कथन से परे है।
जिसमें जितनी पात्रता है, उसे उतना ही ज्ञान मिलेगा। यही गुरु कृपा है। अधिक से लाभ नहीं होता। उस ज्ञान को पचाने की क्षमता होनी चाहिये। पाचन क्षमता से अधिक खाने पर शरीर रोग ग्रस्त हो जाता है। भार वहन करने की क्षमता से अधिक भार अपने ऊपर लेने पर व्यक्ति चलने में अशक्त हो जाता है।
कूप में बहुत अधिक जल है, किन्तु मिलेगा उतना ही जितनी क्षमता का पात्र / बर्तन होगा। पात्रता/ योग्यता से अधिक चाहने वाला मूर्ख होता है। ऐसे मूर्ख को मैं नमस्कार करता हूँ।
माता अपनी रसोई में विविध प्रकार के व्यञ्जन बना कर रखे रहती है। भोजन प्रचुर मात्रा में होता है। वह अपने बच्चे से स्वाभाविक स्नेह रखती है। फिर भी वह सब भोजन अपने सुत को नहीं खिलाती । उतना ही देती है, जितना वह खाकर अच्छी तरह पचा सके। एक योग्य माता अपने रोगी बच्चे को भोजन ही नहीं देती।
उसे वह उपवास करा कर ठीक करती है। ऐसे ही जगन्माता मूल प्रकृति वा जगत्पिता विराट् पुरुष अपनी सन्तानों (समस्त जीवों/मनुष्यों) के साथ व्यवहार करता है। किन्तु मूर्ख बुद्धि मानव इसे समझता नहीं। वह हाय हाय। करता हुआ अपने भाग्य को कोसता है, ईश्वर को दोष देता है।
स्तुता मया वरदा वेदमाता प्रचोदयन्तां पावमानी द्विजानाम्।
आयुः प्राणं प्रजां पशु कीर्ति द्रविणं ब्रह्मवर्चसम्॥
मह्यं दत्वा वजत ब्रह्मलोकम्।।
~अथर्ववेद (१९ । ७१।१)
गम् गच्छति, यत् यः। गच्छति यः स गयः। गय कहते हैं, प्राण को। गय वह है, जो चलता रहता है। आण सतत चलता है। अतः गय= प्राण गय + अण् = गाय गयरस्य देवता गायः। गयानां समूहः गायः। गये भवः गायः। गये भवम् गायम्। गाय का अर्थ है, गो गायः = गौ गाय का अर्थ है, शरीर जिसमें प्राण रहता है। गाय जीवित देह प्राणी। जिसके द्वारा इस शरीर का उद्धार हो, वह है- गायत्री गायत्रीः सः येन त्रायते / सा यया त्रायते। किसके द्वारा इस देह का उद्धार संभव है? वा, मनुष्य को क्या करना चाहिये?
उत्तर है-धर्म।
धर्म क्या है? वर्ण, आश्रम सम्मत कर्मों को ईश्वरार्पण बुद्धि से करते रहना- धर्म है।
प्राणा वै गयास्तत्प्राणांस्तत्रे तद् यद् गयांस्तत्रे तस्मात् गायत्री नाम।
~बृहदारण्यक उपनिषद् (५।१४।४)
प्राणाः वै गयाः तत् प्राणान् तत्रे तद् यद् गयान् तत्रे तस्मात् गायत्री नाम.
यहाँ तत्रे = त्रायते। प्राण ही गय हैं; उन प्राणों की, उन गयों की जिससे रक्षा होती रही है, वह गायत्री नाम है।
तस्या उपस्थानं गायत्रयस्येकपदी द्विपदी त्रिपदी चतुष्पदी अपद् असि न हि पद्यसे।
~बृहदारण्यक उपनिषद् (५।१४।७)
वह गायत्री एकपदी है, द्विपदी है, त्रिपदी है, चतुष्पदी है, अपदी है। उसे नहीं जाना जा सकता। यह उसका दर्शन है। इस अज्ञेय तत्व का निदर्शन भला मैं कैसे कर सकता हूँ ? इस गायत्री का, अग्नि ही मुख है। यदि अग्नि में लोग बहुत सा ईधन रख दें तो वह उस सभी को जला डालता है। इस प्रकार ऐसा जानने वाला बहुत सा पाप करता हो तो भी वह उस सबको खाकर शुद्ध, पवित्र, अजर, अमर हो जाता है।
अर्थात् गायत्री पापनाशक है। इस तथ्य का प्रवचन राजा जनक ने अश्वतराश्वि के प्रति कहा था। जो इसे है जानता है, वह गायत्री विद है।
तस्या अग्निरेव मुखं। यदि ह वा अपि बह्निव अग्नी अभ्यादधति सर्वमेव तत् संदहति एवं ह एवं एवंविद् यद्यपि वह्निव पापं कुरुते सर्वमेव तत् संप्साय शुद्धः पूतः अजरोऽमृतः संभवति।
~बृहदारण्यक उपनिषद् (५।१४।८)
गायत्री ही ब्रह्म है। जो गायत्रीविद् है, वह ब्रह्मविद है। वाक् ब्रह्म वेदमाता है।
जो ब्रह्म अपने को दो भागों में विभक्त कर क्रीडायमान हो रहा है, शब्दों में उसका प्रकथन करना सम्भव नहीं। एक रूप से वह पुरुष है। दूसरे रूप से वह मूल प्रकृति है। हैं, दोनों ही ब्रह्म। पुरुष पिता है, निष्क्रिय है। प्रकृति माता है, सक्रिय है। धर्म में क्रिया है। पुरुष तो बन्ध मोक्ष से परे है। बन्धन से मुक्त होने के लिये त्रिगुणात्मिका प्रकृति की स्तुति करनी ही होगी। माँगना भी होगा तो सगुणा महामाया से हो।
पुरुष न सुनता है, न बोलता है। क्यों कि वह निर्गुण है। क्रिया तो गुणों में गुणों द्वारा होती है। यह प्रकृति ही सगुण ब्रह्म है। पुरुष निर्गुण ब्रह्म है। सगुण ब्रह्म की स्तुति सगुण ब्रह्म ही करता है। निर्गुण में स्तुति आदि सम्भव नहीं। वह निर्वाच्य ही नहीं।
अनिर्वचनीय तत्व की स्तुति कैसे की जा सकती है? त्रिगुणात्मिका मूलाप्रकृति की स्तुति करते हुए अंत में कहा जाता है-
मया स्तुता द्विजानां पावमानी वरदा वेदमाता प्रचोदयन्ताम्। (सा) मह्यां आयुः प्रजां पशु प्राणं कीर्ति द्रविणं ब्रह्मवर्चसं दत्वा ब्रह्मलोकं व्रजत।
आयुः जीवन, पुष्टता, स्वास्थ्य।
प्राणं= चेतनाशक्ति।
प्रजा = सन्तति, उत्पादन, लोग।
पशु = दृष्टि, विवेक, पश्यण क्षमता।
कीर्ति = विस्तृत/विस्तार, प्रकाश,अनुग्रह।
द्रविणं= द्रवणशीलता (उदारता, दया, गति), स्वर्ण, धन।
ब्रह्मवर्चस्= ब्रह्मतेज, आन्तरिक पवित्रता, √•अमित शक्ति।
ब्रह्मलोकं = ब्रह्मदर्शन, ब्रह्मज्ञान ब्रह्मानन्द।
व्रजत = व्राजयत (णिच् का लोप) पहुँचाये, ले चले।
पावमानी = पवमान + अण् + ङीप् पवित्रकर्त्री।
द्विजानां = द्विजों को पवीतियों को संस्कारवानों को।
वरदा = उपकारी, श्रेष्ठप्रदा, निस्श्रेयस्करी।
प्रचोदयन्ताम् = प्र + चुद् आत्मने लोट् प्रथमपुरुष बहुवचन।
स्तुता= स्तु + क्त + टाप् । प्रशंसित । अर्चित सेवित, पूजित।
मह्यं= मेरे द्वारा, मुझ से अस्मद् तृतीया एक वचन।
मां = मुझको, मेरेलिये, अस्मद् चतुर्थी एक वचन।
दत्वा = दा + क्त्वा। देकर प्रदान कर।
मैंने महामाया की स्तुति कर लिया। द्विजों को पवित्र करने वाली निश्श्रेयस्दात्री मूलाप्रकृति मुझे प्रेरित करती रहे। वह देवी मुझे आयु प्राण प्रजा कीर्ति औदार्य ब्रह्मतेज देकर ब्रह्मदर्शन की ओर ले चले।
वेदमाता (विद्वता की अवस्था, कथित देवी नहीं) का तमोप्रधान रूप महाकाली, रजो प्रधान रूप महालक्ष्मी तथा सत्व प्रधान रूप महासरस्वती है. वेदमाता ही वाक् ब्रह्म गायत्री है। इसे ही वेदत्रयी कहते हैं। गायत्री डपोरशंख कर्मकांडियों द्वारा पैदा की गई कोई देवीमाता नहीं है.
इसी तरह द्विज का मतलब कथित ब्राह्मण नहीं होता. द्विज का अर्थ है –दोबारा जन्मा. यह जन्म आत्मबोध का उदय होने पर होता है.