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कम्युनिस्ट आंदोलन और किसानों मजदूरों के मसीहा ज्योति बसु 

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मुनेश त्यागी

      भारत की कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी के महान नेता ज्योति बसु को शत-शत नमन वंदन और अभिनंदन। उनका जन्म 8 जुलाई 1914 को बंगाल में हुआ था। ज्योति बसु बंगाल के एक धनाढ्य परिवार से संबंध रखते थे। उच्च शिक्षा के लिए उन्हें वकालत की डिग्री लेने के लिए इंग्लैंड भेजा गया। इंग्लैंड में अपनी शिक्षा के दौरान ज्योति बसु इंग्लैड की कम्युनिस्ट पार्टी के संपर्क में आ गए थे और कम्युनिस्ट पार्टी की विचारधारा से प्रभावित हो गए थे। उन्होंने भारत में आकर कम्युनिस्ट पार्टी ज्वाइन की और भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए और किसानों, मजदूरों के आंदोलनों को उनकी मुक्ति के लिए दिशा देने के आंदोलन में शामिल हो गए और कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए। उन्होंने वकालत को अपनी जिंदगी का जरिया नहीं बनाया, बल्कि आजादी के आंदोलन में शामिल हुए और वहां पर भी हजारों साल पुरानी गरीबी, भुखमरी, अन्याय, शोषण, दमन उत्पीड़न और भेदभाव को खत्म करने के लिए, किसानों मजदूरों की मुक्ति को अहम स्थान दिया।

     ज्योति बसु भारतीय समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन के हामी थे। वे भारत में किसानों मजदूरों की पार्टी और उनकी सरकार कायम करना चाहते थे। 1964 में पार्टी के विभाजन के बाद, वे कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी में आ गए। 1967 में कम्युनिस्ट पार्टी एक बार उन्हें विभाजन का शिकार हुई और नक्सलवाद के नाम पर कम्युनिस्ट पार्टी का एक हिस्सा नक्सलवादी आंदोलन में चला गया। ज्योति बसु इस विभाजन से खुश नहीं थे, इसके समर्थक नहीं थे। उनका कहना था की व्यक्तिगत हिंसा के आधार पर कम्युनिस्ट दर्शन को भारतीय समाज में नहीं चलाया जा सकता, बल्कि इसके लिए किसानों मजदूरों के वर्गीय आंदोलन के आधार पर किसानों मजदूरों और जनता को एकजुट करना पड़ेगा और इस लुटेरी, किसान विरोधी, मजदूर विरोधी और जनविरोधी व्यवस्था को पलट कर, इसके स्थान पर किसानों मजदूरों की वर्गीय एकता की सरकार और सत्ता कायम करनी होगी।

     ज्योति बसु ने 70 के दशक में बंगाल में कांग्रेस के अर्ध्दफासीवादी और हिंसक आंदोलन का भी बखूबी मुकाबला किया और उन्होंने सरकारी दमन के सामने हथियार नहीं डाले, बल्कि अपनी विशेष राजनीति के तहत, हिंसा और मारकाट के बावजूद पार्टी के कार्यकर्ताओं को बचाए रखा। हालांकि कांग्रेसी शासन के दौरान सैकड़ों कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं की हत्या की गई। मगर ज्योति बसु ने हिम्मत नहीं हारी और पार्टी का झंडा बुलंद रखा।

     जब 1975 में एमर्जेंसी घोषित की गई तो इस इमरजेंसी का मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और ज्योति बसु ने खुलकर विरोध किया और इसे भारत के संविधान की आत्मा और चेतना को खत्म करने का अभियान बताया और तत्काल इसके खात्मे की बात की। उन्होंने लगातार संघर्ष करते हुए, इस दौरान अपने संघर्ष को आगे बढ़ाया, किसानों, मजदूरों और नौजवानों के हकों और अधिकारों की मांग की। इससे बंगाल की जनता उनके पीछे लग गई और वे जनता के चहेते नेता बनते चले गए।

     इमरजेंसी के बाद जब 1977 में चुनाव हुए तो बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी के नेतृत्व में “वामपंथी मोर्चा” बंगाल के चुनावों में विजय हुआ और ज्योति बसु को बंगाल का मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया। ज्योति बसु ने अपने शासनकाल में किसानों मजदूरों के हकों की, अधिकारों की रक्षा की, इन्हें विस्तार दिया और बंगाल में वास्तव में जनता की सरकार कायम की और जनता के हितों को आगे बढ़ाया। अपनी कार्यप्रणाली के कारण ज्योति बसु बंगाल के एक महापुरुष बन गए और बंगाल की जनता उन्हें पिता तुल्य समझने लगी। अपनी इन्हीं नीतियों के कारण वे 23 साल तक लगातार बंगाल के मुख्यमंत्री बने रहे।

     जनता उन्हें लगातार बार-बार चुनती रही। ज्योति बसु ने अपने पद और सत्ता का इस्तेमाल अपने परिवार के लिए या अपनी निजी संपत्ति बनाने और बढ़ाने के लिए नहीं किया, बल्कि उन्होंने पूरी दुनिया को दिखाया, पूरे देश की जनता को दिखाया कि किस तरह सत्ता का इस्तेमाल जनता के, किसानों के और मजदूरों के कल्याण के लिए किया जा सकता है, उनके विकास के लिए किया जा सकता है और उन्होंने लोगों की इस अवधारणा को बिल्कुल नकार दिया और परास्त कर दिया कि सत्ता आदमी को भ्रष्ट बनाती है। उन्होंने सिद्ध कर दिखा दिया कि किसानों, नौजवानों और मेहनतकशों के हितों को आगे बढ़ाने के लिए सत्ता का होना बहुत जरूरी है और सत्ता की लड़ाई ही सबसे बड़ी लड़ाई है, इसके बिना किसानों मजदूरों का राज्य कायम नहीं किया जा सकता, उनका विकास नहीं किया जा सकता, उनके हितों को आगे नहीं बढाया जा सकता।

     ज्योति बसु पार्टी की अनुशासन के मानने वाले थे। वे पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता थे। वे अपने वेतन का आधा भाग पार्टी को दे देते थे और आधे वेतन में ही अपना खर्चा चलाते थे। कई बार उनके साथियों ने उनके वेतन और भत्ते बढ़ाने की बात की, मगर ज्योति बसु ने स्पष्ट मना कर दिया। वे कई बार बंगाल के मुख्यमंत्री बने। उन्होंने मुख्यमंत्री बनने के बाद तीन सबसे महत्वपूर्ण काम किए और जिनकी वजह से बंगाल में 34 वर्षों तक मार्क्सवादी कम्युनिस्ट  पार्टी का शासन रहा। पहला हिंदू मुस्लिम एकता और सांप्रदायिक सद्भाव, दूसरा भूमि सुधार और तीसरा ग्राम सभाओं का जनतांत्रिकरण। ज्योति बसु की खूबी यह थी कि उन्होंने पूंजीवादी व्यवस्था के अंदर कम्युनिस्ट कैसे काम कर सकते हैं? यह बंगाल के अंदर करके दिखाया और किसानों, मजदूरों के हितों के मुद्दों को आगे बढ़ाया और उन्हें राष्ट्रीय स्तर के मुद्दे बनाने में एक बहुत बड़ी भूमिका अदा की। यह भारतीय समाज को और भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन को उनकी सबसे बड़ी देन और खूबी है। इससे हम बहुत कुछ सीख सकते हैं।

     पश्चिमी बंगाल में इंडिया में जितनी भूमि भूमिहीन किसानों को दी गई है, वह सबसे ज्यादा बंगाल में बांटी गई है, ज्योति बसु के शासनकाल में बांटी गई है। पार्टी के शासनकाल में कभी कोई दंगा नहीं हुआ। वहां 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कोई सांप्रदायिक दंगा नहीं हुआ। लालकृष्ण आडवाणी की दंगा यात्रा के बाद भी बंगाल के अंदर कोई हिंदू मुस्लिम दंगा नहीं होने दिया गया और तीसरे जब बाबरी मस्जिद ढायी गई तो बंगाल सरकार की जागरूकता के कारण, बंगाल के अंदर कोई सांप्रदायिक दंगा नहीं हुआ, जबकि सारा देश दंगे की विभीषिका में जल रहा था। ज्योति बसु शासन के सांप्रदायिक सौहार्द के ये सबसे बड़े और महान कारनामे हैं।

    ज्योति बसु कहा करते थे कि सरकार की मिलीभगत के बिना कोई दंगा नहीं हो सकता। उन्होंने करके दिखाया कि यदि सरकार नहीं चाहती, तो कोई दंगा नहीं हो सकता। इसलिए उस कठिन दौर में भी वहां कोई भी दंगा नहीं होने दिया गया। उन्होंने हिंदू मुस्लिम ताकतों को नियंत्रण में रखा, साम्प्रदायिक दंगईयों के खिलाफ समय से कानूनी कार्रवाई की और बंगाल और वहां की जनता को दंगों की विभीषिका से बचा लिया। इसका पूरा श्रेय वहां कि कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार और ज्योति बसु के नेतृत्व को जाता है।

      कामरेड ज्योति बसु का जीवन बेदाग रहा। उन पर भ्रष्टाचार के कोई आरोप नहीं है, कोई आरोप नहीं लगे, उन्होंने अपने शासनकाल में या अपने जीवन में अपने लिए या परिवार के लिए कभी कोई व्यक्तिगत संपत्ति अर्जित नहीं की। उनका एक लड़का था, जिसके बारे में उन्होंने पूरी कम्युनिस्ट पार्टी को यह निर्देश दे रखा था कि उनका लड़का होने की वजह से, उसे कोई छूट या अहमियत न दी जाए। ज्योति बसु ने मजदूर वर्ग को बल प्रदान किया और उन्हें यूनियन बनाने का मौका दिया। सरकार ने निश्चित किया था मजदूरों का न्यूनतम वेतन वेतन देना पड़ेगा। इससे उद्योगपति जगत कामरेड ज्योति बसु से नाराज हो गया और उन्होंने बंगाल के अंदर कोई भी उद्योग धंधे की स्थापना नहीं की, जिस वजह से बंगाल उद्योग विहीन रहा। ये कुछ तथ्य और सच्चाईयां हैं कामरेड ज्योति बसु के बारे में।

   बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने के बाद हुए दंगों के बाद ज्योति बसु ने भारतीय जनता पार्टी को दंगाई, हिंसक, असभ्य और “बर्बर” बताया था। ज्योति बसु की इस बात से अटल बिहारी बाजपेई बहुत नाराज हुए थे। इस पर उन्होंने ज्योति बसु से मुलाकात की और उनसे पूछा कि आपने भारतीय जनता पार्टी को “बर्बर” क्यों कहा? तो इस पर ज्योति बसु ने जवाब दिया था कि हिंसा और दंगा करने वाली पार्टी को क्या कहा जाए? तो इस पर अटल बिहारी वाजपेई के पास कोई जवाब नहीं था और वे चुप हो गए और ज्योति बसु की बात का कोई जवाब ना दे सके।

      ज्योति बसु को पार्टी अनुशासन सबसे प्रिय था। वे पार्टी के अनुशासन को मानने वाले थे। जब उन्हें भारत का प्रधानमंत्री बनाने की बात आई तो इस पर ज्योति बसु राजी थे, मगर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सेंट्रल कमेटी इसके पक्ष में नहीं थी और उन्होंने ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनने से मना कर दिया। ज्योति बसु ने सेंट्रल कमेटी के इस निर्णय को स्वीकार कर लिया और इस निर्णय के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठाई। मगर बाद में उन्होंने पार्टी की इस नीति को “ब्लंडर मिस्टेक” बताया था। हालांकि यह उनकी अपनी राय थी।

      कामरेड ज्योति बसु भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन के नवरत्न थे। वे मजदूरों और किसानों के सबसे बड़े मसीहा थे। उनसे हमें बहुत कुछ सीखने की जरूरत है और भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन को और मजबूत बनाने की और वामपंथी मोर्चे की जनकल्याणकारी नीतियों को और आगे बढ़ाने की सबसे ज्यादा जरूरत है। इसके बारे में हम ज्योति बसु से बहुत कुछ सीख सकते हैं। दुनिया में ऐसे महान और युगपुरुष कभी-कभी पैदा होते हैं। ज्योति बसु उनमें से एक ही थे। एक बार फिर कामरेड ज्योति बसु को शत-शत नमन, वंदन और अभिनंदन और क्रांतिकारी सलाम।

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