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 चुनाव के साथ ख़त्म नहीं हो गया है  संविधान बचाने का नारा

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सैयद जै़ग़म मुर्तजा

लोकसभा सचिवालय के रिकार्ड के मुताबिक़ 18वीं लोकसभा के पहले सत्र की कुल उत्पादकता तक़रीबन 103 फीसद रही। गत 24 जून, 2024 को शुरू हुआ यह सत्र 2 जुलाई तक चला। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर लाए गए धन्यवाद प्रस्ताव पर हुई चर्चा इस सत्र की उल्लेखनीय बात है। तक़रीबन 18 घंटे तक चली इस चर्चा में कुल 68 सदस्यों ने हिस्सा लिया। लेकिन इससे ज़्यादा अहम बात है कि दस साल बाद लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष का भाषण हुआ। और उससे भी ज़्यादा अहम बात यह है कि संविधान, मणिपुर, कश्मीर, पेपर लीक, महंगाई और बेरोज़गारी के साथ-साथ उन मुद्दों पर भी बात हुई, जो पिछले कई साल से राजनीतिक विमर्श से तक़रीबन ग़ायब कर दिए गए थे।

लोकसभा चुनाव जिस तरह की पिच पर लड़ा गया उसके बाद तमाम देशवासियों की नज़र संसद के पहले सत्र पर थी। लोग जानना चाहते थे कि मज़बूत विपक्ष के सामने सरकार का बर्ताव क्या रहता है। इसकी कई वजहें हैं।

दरअसल संसद में पार्टियों को बोलने का समय उनकी संख्या के अनुपात में आवंटित होता है। वर्ष 2014 और वर्ष 2019 में हुए चुनाव के बाद स्थिति यह थी कि लोकसभा में या तो सत्तापक्ष के लोग बोलते नज़र आते थे या उन दलों के सदस्य जो सत्ता और प्रतिपक्ष से बराबर की दूरी का दावा तो करते थे, लेकिन सरकार के ख़िलाफ उनकी आवाज़ कभी मुखर नहीं हुई। उल्टा इनमें से कई सरकार के साथ मिलकर कांग्रेस के पिछले शासनकाल पर हमलावर रहते थे। इस दौरान विपक्ष के सदस्यों के निलंबन, सदस्यता जाने और दल-बदल कराकर अस्तित्व ख़त्म करने की कोशिशें भी चलती रहीं। भाजपा और उसके सहयोगी दलों के 2014 और 2019 में मिले प्रचंड बहुमत के शोर में विपक्ष की आवाज़ तक़रीबन ग़ायब हो गई थी।

संसद के भीतर ही नहीं, संसद के बाहर भी दस साल तक विपक्ष तक़रीबन महत्वहीन ही बना रहा। सार्वजनिक मंचों से और मीडिया से भी लगातार एक ही तरह के सुर सुनाई देते थे। लेकिन 2024 में हुए लोकसभा चुनाव के बाद हालात बदले हुए नज़र आ रहे हैं। इसकी वजह है संसद में ऐसे तमाम चेहरे चुनकर आए हैं जो अपने-अपने वर्ग की नुमाइंदगी तो करते ही हैं, जनहित के मुद्दों पर मुखर भी रहते हैं। इसके साथ ही कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राजद, तृणमूल कांग्रेस, शिवसेना (यूबीटी) जैसी पार्टियां बढ़ी हुई सदस्य संख्या के साथ लौटी हैं। ऐसे में लोग उम्मीद कर रहे थे कि विपक्ष न सिर्फ इस बार मुखर होगा, बल्कि आमजन से जुड़े सवाल भी एक फिर से चर्चा के केंद्र में आएंगे। संसद के पहले सत्र में जिस तरह का प्रदर्शन विपक्ष के सदस्यों का रहा है, उसको देखते हुए इन लोगों को निराशा तो नहीं ही होगी। इस सत्र में विपक्ष ने न सिर्फ तमाम मुद्दों को ज़ोर-शोर से उठाया, बल्कि कई साल बाद दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक और उनसे जुड़े मुद्दे चर्चा में आए। यह इस सत्र की सबसे बड़ी उपलब्धि रही।

कहा जा सकता है कि विपक्ष मज़बूत हुआ है और कमज़ोरों की आवाज़ संसद में गूंज रही है। इस बात के पक्ष में कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। मसलन बतौर सांसद शपथ लेने के दौरान आज़ाद समाज पार्टी के सांसद चंद्रशेखर ने ‘जय भीम, जय संविधान, नमो बुद्धाय’ समेत कई नारे लगाए। उनको थोड़ा ज़्यादा समय लगा तो सत्ता पक्ष के किसी सदस्य ने टोका कि “पूरा भाषण देंगे क्या?” इसपर उन्होंने पलटकर कहा, “देंगे सर। इसीलिए यहां आए हैं। सुनने की आदत डाल लो।” इसी तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपना भाषण देकर सदन से जाने लगे तो टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा ने कहा, “सर सुनते हुए जाइए सर। डरिए मत।” इसी बीच टीएमसी सांसद कल्याण बनर्जी ने 400 पार नारे पर कटाक्ष मिमिक्री भरे अंदाज में सदन में की। ज़ाहिर है पिछली लोकसभा में यह सब सोचा भी नहीं जा सकता था। शायद ही कोई भूला होगा जब 2023 में संसद की सुरक्षा में चूक के मसले पर गृहमंत्री के बयान की मांग करने पर संसद से 146 सदस्यों को निलंबित कर दिया गया था। भाजपा सदस्यों के बहुमत वाली संसद की एथिक्स कमेटी ने महुआ मोइत्रा की संसद की सदस्यता ही ख़त्म करा दी थी। इसके अलावा तमाम ऐसी घटनाएं हुई, जिनसे लगा कि संसद में सरकार के विरोध में बोल पाना लगभग नामुमकिन है।

लेकिन इस बार हालात बदले हुए नज़र आ रहे हैं। हालांकि सरकार और स्पीकर के रुख़ में कितना बदलाव है, इसपर अभी भी बहस की गुंजाइश है। लेकिन सदन में कश्मीर का मुद्दा उठा। अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और मॉब लिंचिंग जैसे मसलों पर आवाज़ बुलंद हुई। दलितों के घोड़ी न चढ़ने देने और मूंछ रखने पर हत्या कर देने जैसे मुद्दों को ज़ोरशोर से उठाया गया। मणिपुर का मुद्दा लगातार गर्म रहा। महंगाई, बेरोज़गारी और पेपर लीक जैसे सरकार की विफलताओं से जुड़े प्रश्नों पर विपक्ष मुखर नज़र आया। विपक्ष ने सरकार को घेरने की कोई कोशिश हाथ से जाने नहीं दी। अयोध्या से जीतकर आए अवधेश प्रसाद के ज़रिए प्रधानमंत्री औऱ भाजपा को निशाने पर लेने की कोशिश इसी की नतीजा नज़र आती है।

लोकसभा में संविधान की प्रति लेकर शपथ ग्रहण करते चंद्रशेखर व अखिलेश यादव

संसद में दस साल बाद नेता प्रतिपक्ष बना है। राहुल गांधी हाथ आए इस मौक़े को किसी भी क़ीमत पर गंवाना नहीं चाहते हैं। बतौर नेता प्रतिपक्ष उनके पहले भाषण से यह साबित भी होता है। उन्होंने अपने भाषण में मुसलमान, दलित, कश्मीर, मणिपुर समेत वो तमाम शब्द बार-बार इस्तेमाल किए जो पिछले दस साल में सियासी तौर पर तक़रीबन अछूत मान लिए गए थे। हालांकि कुछ जगह उनका भाषण सुनकर लगा कि वो पिछले दस साल की भड़ास भी निकाल रहे हैं, लेकिन जिस तरह उनके भाषण के बीच टोका-टाकी हुई, कृषि मंत्री, रक्षा मंत्री, गृह मंत्री और फिर ख़ुद प्रधानमंत्री उत्तेजित होकर खड़े हुए उससे लगा कि वह पूरी तैयारी के साथ आए हैं और उनके भाषण में उकसावा विशेष रणनीति का हिस्सा है।

प्रधानमंत्री और नेता प्रतिपक्ष के भाषण की तुलना की जाए तो लगता है कि उसमें अधिकांश हिस्सा एक-दूसरे को निशाना बनाने में ख़र्च हो गया है। अकाली दल की सदस्य हरसिमरत कौर ने इसे मुद्दा भी बनाया। उनका कहना है कि “राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री को निशाना बनाने में और फिर बदले में प्रधानमंत्री ने कांग्रेस और राहुल गांधी को निशाना बनाने में अधिक समय ख़राब कर लिया। इस समय का इस्तेमाल जनहित के मुद्दे उठाने में किया जा सकता था।” लेकिन विवाद के बावजूद इसमें जीत विपक्ष की ही नज़र आती है। अगर प्रधानमंत्री विपक्ष की बातों का जवाब देने को मजबूर हैं और उनकी पिच पर जाकर खेलना पड़ रहा है तो यह विपक्ष की सफलता ही है। अपने तक़रीबन 200 मिनट के भाषण में प्रधानमंत्री व्यक्तिगत आक्षेप लगाने तक आ गए। अगर ये नॅरेटीव गढ़ने की लड़ाई थी तो विपक्ष इसमें कामयाब रहा।

इस बीच सदन में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी के नेता अखिलेश यादव का जाति जनगणना, ईवीएम, कश्मीर, पिछड़ों और बेरोज़गारों के सवाल पर बोलना चर्चा का विषय बना। नगीना से सांसद चंद्रशेखर आज़ाद के अलावा फैज़ाबाद के सांसद अवधेश प्रसाद पहले सत्र में छाए रहे। इसके अलावा राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे का बदले हुआ रूप भी चर्चा में रहा। हालांकि लोकसभा के शोर-शराबे में राज्यसभा की चर्चाएं लगभग दब-सी गईं लेकिन मल्लिकार्जुन खड़गे जिस तरह लगातार हमलावर रहे वह सरकार के लिए परेशानी का सबब ज़रूर बना है। इसकी एक वजह ये भी है कि सरकार और इससे जुड़े लोगों को सुनने की आदत नहीं रही है। पिछले दस वर्षों में उन्होंने सिर्फ सुनाया ही है। शायद इसीलिए जबतक सरकार के लोगों ने सुना विपक्ष ने जमकर सुनाया। जब सरकार ने सुनने से इंकार किया तो विपक्ष ने वॉकऑउट कर दिया। इस बीच एक अहम घटना और हुई। अभी तक भाजपा को परोक्ष-अपरोक्ष मदद करती रही बीजू जनता दल के राज्य सभा सदस्य विपक्ष के साथ खड़े नज़र आए।

बहरहाल, इस सत्र से यह भी पता चला कि संविधान अभी भी सर्वोपरि है। अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान कोई घंटा ख़ाली नहीं गया जब संविधान का ज़िक्र न हुआ हो। इस दौरान यह बात भी सिद्ध हुई कि संविधान बचाने का नारा चुनाव के साथ ख़त्म नहीं हो गया है। जितना इस मुद्दे पर सरकार सफाई देगी, विपक्ष को इसका उतना ही फायदा होगा। यह बात सरकार के रणनीतिकार अभी तक समझने में नाकाम रहे हैं। शायद आने वाले समय में यह बात उनको समझ आ जाए।

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