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राजनीति के झूठ के प्रसार को पहचानना होगा

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प्रफुल्ल कोलख्यान

भारत के लोगों को इस समय गहरे अर्थ में निष्कपट आत्मावलोकन की जरूरत है। राजनीतिक और आर्थिक रूप से भारत संक्रमण के दौर की चुनौतियों के सामने खड़ा है। न सिर्फ खड़ा है बल्कि अपने तरीके से जूझ रहा है। संक्रमण के दौर की चुनौतियों और पीड़ाओं को समझना जरूरी प्रसंग है। अ-नियंत्रित गैरबराबरी की जमीन पर हर तरह की गड़बड़ियों के भयानक विषाणु पनपते और पलते हैं। गैरबराबरी और गड़बड़ी से उत्पन्न व्यापक अ-संतुलन को दुरुस्त करने के प्रयासों के निष्फल होने के बाद संक्रमण का दौर शुरू हो जाता है।

समय की गतिशीलता का सीधा संबंध मनुष्य की सक्रियता से तय होती है। पहले जब मनुष्य की सक्रियता में अपेक्षाकृत धीमापन था, संक्रमण का दौर भी अधिक अंतराल से आया करता था। संक्रमण की प्रक्रिया की पूर्णता के बाद आम लोगों के व्यवहार में नई जीवन शैली अपनी नई नैतिक मान्यताओं के साथ शामिल हो जाती है। कहना न होगा कि भारत इस समय भारत भयावह विषमताओं से ग्रस्त और हर तरह की गैरबराबरी से पस्त है।

अ-नियंत्रित विषमताओं के कारण “हम भारत के लोग” कभी ‘एक होने’ का बोध और विश्वास हासिल नहीं कर सकते हैं। पता नहीं राष्ट्रवाद का वह कौन-सा संस्करण है जो इतनी भयानक विषमता के बावजूद आम लोगों में ‘एक होने’ का भाव जगने की प्रेरणा बन सकता है! अपने ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ का हल्ला मचानेवालों को क्या इतनी-सी बात समझ में नहीं आती है कि ‘धर्म’ या इस अर्थ में भाषा, सामाजिक परंपरा आदि में से किसी का एकाकी आधार कभी भी और किसी भी प्रकार के राष्ट्रवाद का आधार तैयार नहीं कर सकता है।

‘धर्म’ के एकाकी आधार पर विकसित कम-से-कम पाकिस्तान के राष्ट्रवाद का हाल दुनिया के सामने है। हिंदू धर्म तो वैसे भी लज्जास्पद सामाजिक विषमता से ग्रस्त और विभक्त है। भारत जैसे बहु-धार्मिक देश में तो धर्म आधारित राष्ट्रवाद का हो-हल्ला मचाने का लक्ष्य अ-शांति और अराजकता या किसी धर्म-विशेष के माननेवालों के खिलाफ घृणा और हिंसा का माहौल बनाने के अलावा कुछ नहीं सकता है। अ-शांति और अराजकता अपने-आप में लक्ष्य नहीं हो सकता है, तो फिर इस का वास्तविक लक्ष्य क्या हो सकता है? वास्तविक लक्ष्य है विभेदकारी वैचारिक अराजकता फैलाकर जनता के अपने हित के पक्ष में एक हो कर संघर्ष करने की भावना और संभावना को समाप्त करना।

जन-संघर्ष की अनु-उपस्थिति में जनता के निर्विरोध शोषण का वातावरण पूंजीपतियों और नव-धनाढ्यों को भीतर से प्रसन्न कर देता है! ढनाढ्यों को लगता है कि कुत्तों को पूंछ हिलाने के लिए और मनुष्य को सिर झुकाने के लिए प्रकृति ने दिया है। धनाढ्यों यह भी भूल जाते हैं कि वे भी मनुष्य ही हैं। प्रकृति के अनुसार वे अन्य मनुष्यों के तन-मन के समरूप होने के कारण ही मनुष्य हैं। विषमता सिर्फ धन में है। तन-मन की समानता मनुष्य के रूप में उन के अस्तित्व का आधार है। धन मनुष्य के अस्तित्व का आधार नहीं हो सकता है।

धन की विषमता उसे मनुष्य के रूप में उस के अस्तित्व के आधार से दूर ले जाती है। इसलिए मनुष्य बने रहने के लिए आर्थिक-विषमता पर एक हद के बाद विषमता पर नियंत्रण जरूरी हो जाता है। धन की विषमता के कारण ढनाढ्यों के देवता बनने की कोई संभावना नहीं होती है, धन-हीनता के चलते मनुष्य के अ-मानुष बनने की आशंका जरूर गहराती जाती है। इसलिए बेकाबू आर्थिक-विषमता मनुष्यता के खिलाफ बहुत बड़ा अपराध है। बेकाबू विषमता को किसी तरह से बढ़ावा देनेवाले मनुष्यता के अपराधी हैं।

यह अर्थ-प्रधान युग है। अर्थ-प्रधान युग यानी पैसा-प्रधान युग। हर तरफ पैसे की प्रधानता है। भारत के लोगों के लिए बेटी की शादी में पैसा की संवेदनशील जरूरत होती है। पैसा है तो ‘वर-कन्या’ की जोड़ी की उपयुक्तता पर कौन बात करे! खासकर जब वर-पक्ष बारातियों को भी उपहारों से मालामाल करने की हैसियत रखता हो, तब ‘वर-कन्या’ की जोड़ी की उपयुक्तता पर कौन बात करे! खैर, कहने का आशय यह है कि इस युग में सारे संबंध आर्थिक-संदर्भ से तय होते हैं। शक्ति का स्व-परिभाषित स्व-रूप भावना, श्रद्धा, आस्था और विश्वास में नहीं ‘अर्थ’ में निहित होता है। सारे प्रबंध अर्थ-संबंध को सुचारु और संपुष्ट करने के लिए होते हैं। जीवन में अर्थ की प्रधानता के बावजूद सिर्फ अर्थ आधारित एकाकी विचार भी राष्ट्रवाद का आधार नहीं हो सकता है।

राष्ट्रवाद भौगोलिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, जीवन-पद्धतियों आदि से संबंधित सत्य, तथ्य के संश्लेषण के स्वप्न और यथार्थ राष्ट्रवाद के बनने में जादुई भूमिका होती है। इस जादुई भूमिका की अवहेलना करते हुए किसी एकाकी आधार पर राष्ट्रवाद की किसी संकल्पना के विकास में धोखा के अलावा कुछ नहीं हुआ करता है। पिछले दिनों भारत में धर्म आधारित राष्ट्रवाद के विकास के प्रयास में यही धोखा छिपा हुआ था।

राष्ट्रवाद में निहित यही धोखा भारत के संविधान और लोकतंत्र को छलने की कोशिश करता रहा है। भारत के आम लोगों और मतदाताओं ने इस धोखा को पहचान लिया और इसी का नतीजा है कि लगभग सभी प्रमुख धार्मिक केंद्रों के आस-पास की सीटों पर भारतीय जनता पार्टी लोकसभा का चुनाव हार गई। भारतीय जनता पार्टी को अपने दम पर सरकार बनाने की ‘जादुई संख्या’ को नहीं छू सकी।

आम चुनाव 2024 के परिणाम आने के बाद भी भारतीय जनता पार्टी अपनी ‘हिंदुत्व की सांस्कृतिक जिद’ से पुष्ट धार्मिक राष्ट्रवाद पर टिकी हुई लग रही है। उदाहरण के लिए पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में ‘जीत का जश्न’ के अवसर से वंचित होकर ‘हार की समीक्षा’ में लगी भारतीय जनता पार्टी में मचे घमासान को देखा जा सकता है। उत्तर प्रदेश में संगठन बड़ा या सरकार बड़ी जैसे मुद्दों पर अधिक बात हो रही है।

‘हार की समीक्षा’ में सत्ता के अहंकार में सरकार के अ-लोकतांत्रिक कार्रवाइयों को उठाने का राजनीतिक साहस भारतीय जनता पार्टी के किसी नेता में तो दिखा नहीं! ‘हार की समीक्षा’ में भी पार्टी के ‘आंतरिक असंतोष’ पर ही चर्चा केंद्रित है, नागरिक-असंतोष की तो चर्चा भी नहीं सुनी गई! लग रहा है कि लोकतंत्र में सिर्फ संगठन और सांगठनिक शक्ति ही सत्ता का स्रोत है, जन-शक्ति की कोई भूमिका होती ही नहीं है।

दस साल के शासन-काल में बढ़ी विषमता की भयानक और अ-नियंत्रित खाई, महंगाई, रोजी-रोटी के मसले, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक अन्याय, नफरती बयानों, सत्ता के शिखर से दिये गये जन-विरोधी बयानों, कुछ के बदले कुछ यानी क्विड प्रो क्वो quid pro quo का असर व्यापक स्तर पर भ्रष्टाचार, विपक्ष के अन्य राजनीतिक दलों के प्रति किया गया अ-लोकतांत्रिक ढंग से संवैधानिक संस्थाओं का व्यवहार, छात्रों की पढ़ाई, गरीबों की दबाई पेपरलीक सत्ता का व्यवहार भ्रमोत्पादक मीडिया की भूमिका के साथ अ-लोकतांत्रिक नजरिया आदि की कोई भूमिका थी ही नहीं!

भारतीय जनता पार्टी ‘हार की समीक्षा’ के बाद कुछ परिवर्तन करना चाहेगी भी तो क्या परिवर्तन करेगी, सांगठनिक परिवर्तन करेगी। चुनाव के समय दल के बाहर के लोगों से निपटा जाता है। ‘हार की समीक्षा’ की के बाद दल के भीतर के लोगों के साथ निपटा जाता है। नरेंद्र मोदी के शासन-काल में सरकार के सत्य और तथ्य से खिलवाड़ के चलते उत्पन्न जन-असंतोष और आक्रोश को समझना इन के लिए आज भी मुश्किल ही है!

योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। वे न राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की पृष्ठ-भूमि से निकले हैं और न भारतीय जनता पार्टी की पृष्ठ-भूमि से उन का कोई पूर्व-संबंध रहा है। वे जिस नाथ-परंपरा के योगी हैं वह भारत की अन्य सांस्कृतिक धारा है। उस अन्य सांस्कृतिक द्वंद्व और धारा पर फिर कभी। फिलहाल तो यह है कि उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव 2024 में भारतीय जनता पार्टी की हार का ठीकरा योगी आदित्यनाथ के माथे पर फोड़ने की तैयारी में भारतीय जनता पार्टी लगी है। यह निश्चय ही भारतीय जनता पार्टी का आंतरिक मामला है। लेकिन एक बात भारतीय जनता पार्टी अभी ठीक से समझ पाने में ना-कामयाब लग रही है कि योगी आदित्यनाथ भारतीय जनता पार्टी के आंतरिक व्यक्तित्व नहीं हैं।

मीडिया की मानें तो योगी आदित्यनाथ को भारतीय जनता पार्टी न अपनी खुशी से उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री नहीं बनाया था और न उनको निपटाने के लिए आतुर भारतीय जनता पार्टी के नेताओं की खुशी से वे इतने दिन इतने बड़े और महत्त्वपूर्ण राज्य के मुख्यमंत्री बने रहे हैं। विडंबना है कि देश को लगातार प्रधानमंत्री देने पर गर्व करनेवाला उत्तर प्रदेश जैसा बड़ा और महत्त्वपूर्ण राज्य पिछले दस साल से हिंदुत्व के अकल्पनीय उभार के दौर में अपने प्रदेश को अपने प्रदेश का मुख्यमंत्री न दे सका। कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है कि मूल रूप से झारखंड का रहनेवाला कोई नेता, किसी भी क्षेत्र में चाहे जितना भी सक्रिय हो, बिहार का मुख्यमंत्री बन सकता है। ध्यान में होना चाहिए कि योगी आदित्यनाथ मूल रूप से उत्तराखंड के रहनेवाले हैं! कहने का तात्पर्य यह है कि उत्तराखंड के रहनेवाले योगी आदित्यनाथ पिछले दस साल से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं तो, कोई तो बात है उन में!

अब जबकि भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ हिंदुत्व और मंदिर जैसे मुद्दों का चुनावी लाभ लेने की स्थिति में नहीं है तो योगी आदित्यनाथ उन के साथ क्यों बना रहना चाहेंगे। योगी आदित्यनाथ को हिंदुत्व और राम मंदिर के मुद्दों से जितना राजनीतिक लाभ मिलना था मिल चुका। अब यदि वे सिद्ध-नाथ परंपरा के सांस्कृतिक प्रभाव के राजनीतिक इस्तेमाल की तरफ बढ़ जायें तो वह समाज के शोषित-वंचित-प्रताड़ित समाज के लिए अधिक महत्व के होंगे और उन की राजनीतिक संभावनाओं का यह दरवाजा अधिक बुलंद है। छोटे-छोटे ओझा-गुनी के सामने चिरौरी करनेवाले लोगों की असलियत योगी पहचानते ही होंगे। लक्षण दिख रहे हैं कि ‘हिंदुत्व की सांस्कृतिक धारा’ के राजनीतिक परिप्रेक्ष्य से भिन्न ‘अन्य सांस्कृतिक धारा’ के परिप्रेक्ष्य से नई राजनीतिक शक्ति या नये राजनीतिक दल का उद्भव होनेवाला है; कोई माने-न-माने, लक्षण साफ-साफ दिख रहे हैं।

इसी तरह से पश्चिम बंगाल राज्य विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष शुभेंदु अधिकारी के ताजा राजनीतिक बयान को देखा जा सकता है। शुभेंदु अधिकारी पहले अखिल भारतीय तृण मूल कांग्रेस के बड़े नेता थे। इन दिनों वे भारतीय जनता पार्टी के सम्मानित सदस्य हैं। पश्चिम बंगाल के विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं। आम चुनाव के परिणाम के बाद भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता यह नहीं मान रहे हैं कि उस की हार हुई है। मीडिया में चर्चा के दौरान ऐसा न मानने के पीछे भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ताओं के पास अपने तर्क होते हैं। प्रवक्ताओं में पहले जैसी ही उत्तेजना है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में हड़कंप मचा हुआ है। ‘जीत का जश्न’ मनाने का अवसर खो चुकी भारतीय जनता पार्टी ‘हार की समीक्षा’ में लगी हुई है। इस बीच शुभेंदु अधिकारी का राजनीतिक बयान मीडिया में झलक रहा है।

असल में तृणमूल कांग्रेस ने राज्य की 42 में से 29 सीटें जीत ली जबकि भारतीय जनता पार्टी को सिर्फ 12 सीटें ही मिल पाई। संदेशखाली मुद्दा को जोर-शोर से उठाकर भारतीय जनता पार्टी भारी जीत की उम्मीद कर रही थी, लेकिन 6 सीट का नुकसान ही हो गया। ‘हार की समीक्षा’ के लिए 17 जुलाई 2024 को प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक हुई। इस बैठक में पश्चिम बंगाल विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष और भारतीय जनता पार्टी के सम्मानित नेता शुभेंदु अधिकारी ने जो कहा वह संसदीय राजनीति के लिए लज्जास्पद तो है ही चिंताजनक भी कम नहीं है।

शुभेंदु अधिकारी ने ‘हिंदू बचाओ, संविधान बचाओ’ का नारा दिया। ये नेता प्रतिपक्ष हैं! आगे कहते हैं कि आप सभी ने भी कहा था कि ‘सब का साथ, सब का विकास’ लेकिन मैं इसे अब और नहीं कहूंगा, बल्कि अब हम कहेंगे जो हमारे साथ हम उनके साथ। सब का साथ, सब का विकास बंद करो। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नारे को भी बदल दिया है। हालांकि प्रधानमंत्री ने खुद शायद ही कभी इस नारे पर अमल किये जाने का कोई वास्तविक उत्साह दिखाया हो। बल्कि अधिकतर मामलों में इस नारा के विपरीत ही राजनीतिक आचरण किया है। प्रधानमंत्री के नारों और उन के राजनीतिक आचरण को समझना अब बहुत मुश्किल नहीं रह गया है। लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी कहते हैं कि प्रधानमंत्री कुछ बड़े पूंजीपतियों के लिए का ही विकास कर रहे हैं।

भारतीय जनता पार्टी ने हमेशा यही माना है कि मुसलमान उन्हें कभी वोट नहीं देते हैं। यह सच है या नहीं इस पर कुछ भी कहना मुश्किल है। लेकिन सच हो तो भारतीय जनता पार्टी के नेता कभी यह भी समझने की कोशिश क्यों नहीं करते हैं कि मुसलमान उन्हें वोट क्यों नहीं देते हैं! मुसलमान भारतीय जनता पार्टी को वोट दें, न दें उन के मुसलमानों के प्रति भारतीय जनता पार्टी के अधिकतर नेताओं के रुख और रवैया में कोई फर्क नहीं पड़ता है। उन के लिए वोट लेना और बदले में कुछ नहीं देना राजनीतिक चतुराई है। किसी भी तरफ से इस चतुराई को चुनौती नहीं दी जा सकती है। वे बात ‘मन’ की करते हैं लेकिन देते ‘छटांक’ भी नहीं!

अभी अयोध्या के लोगों ने भी भारतीय जनता पार्टी को जीतने लायक वोट नहीं दिया है तो क्या भारतीय जनता पार्टी अयोध्या को अपने विकास कार्यक्रम के नक्शा से बाहर कर देगी? कल को अपनी ‘हार की समीक्षा’ करते हुए ऐसे नेता इस नतीजा पर पहुंचें कि आदिवासी, दलित या किसी अन्य समुदाय के लोगों ने उन के पक्ष में वोट नहीं दिया है तो क्या उन समुदायों के सभी लोगों को विकास कार्यक्रम के नक्शा से बाहर कर देंगे? ‘जिस ने वोट दिया, उसी का काम करेंगे’ की तार्किक परिणति तो यही हो सकती है कि सभी 543 सीटों पर शत-प्रतिशत वोट मिलने पर ही देश की शत-प्रतिशत आबादी को उन के विकास कार्यक्रम के नक्शा में शामिल किया जायेगा! संविधान और संसदीय लोकतंत्र को मजाक बनाकर रख दिया है भारतीय जनता पार्टी की राजनीतिक मनःस्थिति ने।

‘हिंदू बचाओ, संविधान बचाओ’ का मनोभाव ही अपने-आप में संविधान विरोधी और लोकतंत्र विरोधी है। पश्चिम बंगाल विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष शुभेंदु अधिकारी के बयान को कहीं अधिक गंभीरता से पढ़ा और समझना होगा। इस के लिए पश्चिम बंगाल के राजनीतिक मिजाज को भी समझना जरूरी है। पश्चिम बंगाल की राजनीति केंद्र से तनाव में रहकर संगठित और विकसित होती रही है, इस के छोटे-बड़े कई कारण हैं। अखिल भारतीय तृण मूल कांग्रेस वस्तुतः कांग्रेस पार्टी से अलग हुए बिना कभी अपना राजनीतिक वजूद कायम नहीं कर पाती। ‘बाहरी ताकत’ के द्वारा पश्चिम बंगाल के लोगों को बंगाली जातीयता और नेताओं की उपेक्षा या अवहेलना किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं हो सकती है, जी किसी भी कीमत पर!

पश्चिम बंगाल से सीपीआई (एम) को वोट नहीं मिलने के कई बड़े कारण रहे होंगे जिन कारणों का विश्लेषण भी राजनीतिक विशेषज्ञों और विश्लेषकों ने किया ही है, आगे भी विश्लेषण करते रहेंगे। सीपीआई (एम) के नेता सोमनाथ चटर्जी के साथ सीपीआई (एम) के केंद्रीय नेतृत्व के व्यवहार से पश्चिम बंगाल के लोगों को बहुत जबरदस्त ठेस लगी थी। इस ठेस का सीपीआई (एम) की संसदीय राजनीति पर क्या असर का कभी ठीक से आकलन नहीं हुआ। सीपीआई (एम) की पश्चिम बंगाल राज्य इकाई के सदस्यों ने जरूर इस ठेस को सांगठनिक अनुशासन के नाम पर बारी मन से स्वीकार लिया। जनता ने सीपीआई (एम) को इस के लिए कभी माफ नहीं किया। खैर, यह तो हुई इतिहास की बात।

अभी भारतीय जनता पार्टी के सम्मानित नेता शुभेंदु अधिकारी की बात करें, तो लक्षण कुछ और ही दिख रहे हैं। शुभेंदु अधिकारी खुद कांग्रेस से अलग होकर अखिल भारतीय तृण मूल कांग्रेस के गठन और विकास की भीतरी कहानी के साक्षी रहे हैं। वे जानते ही होंगे कि भारतीय जनता पार्टी में रहते हुए उन का राजनीतिक कद नहीं बढ़ सकता है। इस समय जबकि भारतीय जनता पार्टी केंद्रीय स्तर पर कमजोर होकर संवैधानिक संस्थाओं के राजनीतिक दुरुपयोग करने की स्थिति में नहीं रह गई है। ऐसे में भारतीय जनता पार्टी में बने रहने का कोई राजनीतिक लाभ उन्हें है नहीं। तृणमूल कांग्रेस में लौटना न संभव है न लाभकर है, वहां ममता दीदी के रहते किसी के लिए कोई स्कोप है नहीं और कमान संभालने के लिए अभिषेक बनर्जी तैयार हो गये हैं।

भारत की राजनीति की इस समय जो स्थिति है उसे भी वे देख ही रहे हैं। एक संसदीय सीट जीतकर संसद में आनेवाला नेता भी केंद्र या संघ-सरकार में मंत्री पद पा जाता है! कम-से-कम दो-तीन संसदीय सीट जीतने-जिताने का जुगाड़ तो उन के पास अभी भी है। साफ-साफ देखा जा सकता है कि आनेवाले दिनों में किसी बड़े दल का कार्यकर्ता या कार्यकारिणी सदस्य बनने के बनिस्बत छोटे-छोटे दल बनाकर दो-चार संसदीय सीट जीतने का जुगाड़ कर लेनेवाले नेताओं को अधिक राजनीतिक महत्व और अधिक सत्ता-सुख मिलने की संभावना बनी रहेगी। लक्षण दिख रहे हैं कि शीघ्र ही पश्चिम बंगाल में एक नई राजनीतिक हिंदू पार्टी का जन्म हो सकता है।

राजनीतिक महत्व और सत्ता-सुख के सामने जनसेवा और जन-हित में त्याग का क्या मोल है! कुछ भी तो नहीं! एक बड़ी बहु-राष्ट्रीय कंपनी के सीईओ मुख्य कार्यकारी अधिकारी ने चौबीस-पच्चीस साल पहले कहा था कि भारत के युवाओं के आदर्श अब न भगत सिंह हैं और न गांधी ही हैं! एक को फांसी पर चढ़ा दिया गया और एक को गोली मार दी गई! भारत के युवाओं के आदर्श का तो पता नहीं लेकिन अधिकतर पके हुए राजनीतिक लोगों में जन-हित और जन-सेवा में किसी भी प्रकार के त्याग की कोई भावना नहीं रह गई है। जाहिर है कि दल-त्याग अपवाद है! सच बोलने तक का साहस खो चुके लोग लोकतंत्र का भोग कर सकते हैं, भला नहीं कर सकते हैं।

ऐसे में अ-नियंत्रित विषमताओं को नियंत्रित करने की राजनीतिक रस्साकशी में कौन बेकाबू पूंजीवाद की तरफ होगा कौन ‘जन-कल्याण’ की तरफ, कुछ भी कहना मुश्किल है। विषमता की बेकाबू प्रवृत्ति को काबू में नहीं ला पाने की स्थिति में सत्ता की राजनीति आपाद-मस्तक मानवता के प्रति किये जा रहे अपराध में शामिल मानी जायेगी। विषमता को काबू में करने का एक कारगर उपाय है श्रम का सम्मान और साथ में श्रमिक का भी सम्मान। यह सच है कि भारत में ऐन वक्त पर शुभ-बुद्धि का उदय होता है। उम्मीद की जा सकती है।

इंडिया अलायंस के घटक दलों से उम्मीद तो है, खासकर नेता प्रतिपक्ष ‘न्याय योद्धा’ राहुल गांधी से। लेकिन राहुल गांधी ‘गांधी परिवार’ की शहादत की जिस परंपरा में हैं, उस परंपरा के प्रति जैसी-जैसी बातें भारतीय जनता पार्टी के हिताकांक्षी लोगों के बीच चल रही है और जैसा माहौल बनाया रहा है वह एक भिन्न दृष्टि से अधिक चिंताजनक है। भारत के लोगों को खुद अपनों से अपनों की रक्षा के लिए सावधान और तत्पर रहना होगा। सत्य तथ्य और यथार्थ के संश्लेषण-विश्लेषण से निकलते राजनीति के झूठ के प्रसार को मुख्य धारा की मीडिया की मदद के बिना ही पहचानना होगा।(

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