अग्नि आलोक
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मन्त्र विज्ञान

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       पुष्पा गुप्ता 

ध्वनि का आविर्भाव ‘नाद’ से होता है। इसी प्रकार नाद की उत्पत्ति ‘बिन्दु’ से होती है। ‘बिन्दु मनोमय और प्राणमय है। अर्थात् मन और प्राणों का लय बिन्दु में होता है। योग के अनुसार ‘बिन्दु’ ही अणु है। प्रत्येक अणु बिन्दु है। 

     इसी बिन्दु या अणु से यंत्र तन्मात्रा और सूक्ष्म तन्मात्रा आदि की सृष्टि होती है। शुक्र में कई अणुओं का समूह है। अणु अग्नितत्व होने के फलस्वरूप उसको ‘तेज’ भी कहा गया है।

अणु का मन और प्राण के साथ संपर्क होने के कारण वह हमेशा चंचल रहता है। चंचल होने के कारण ही मन को चित्त भी कहा जाता है।

     योग-साधना द्वारा उसे स्थिर किया जाता है। चंचल बिन्दु ‘संवृत बोधिचित्त’ और स्थिर बिन्दु ‘विवृत’  है। संवृत का अर्थ है-‘संकुचित’ और विवृत का अर्थ है-‘फैला हुआ’। बोधिचित्त जब विवृत हो जाता है तो वही महासुख में बदल जाता है। इसी को अणुवाद कहते हैं।

प्रत्येक शब्द और अंक अणुयुक्त है प्रत्येक शब्द और अंक अणुयुक्त है क्योंकि उनका जो नाद है उसकी उत्पत्ति अणु अथवा बिन्दु से होती है। तंत्र में बिन्दु के मूलरूप को ‘महाबिन्दु’ कहा है। ‘महाबिन्दु’ बिन्दु का अदिरूप है। बिन्दु गोचर(दिखलायी पड़ने योग्य) है लेकिन महाबिन्दु नहीं। वह अगोचर और दृश्यमान जगत से परे शब्दब्रह्म की सीमा से भी ऊपर है। 

    बिन्दु में मन और प्राण अवस्थित होकर महाबिन्दु में लय हो जाते हैं। बिन्दु में लय होना महत्त्व की बात नहीं है। महाबिन्दु ही चरम लक्ष्य है।

 सृष्टि-क्रम आठ महाबिन्दु के योग से एक ‘सूक्ष्मातिसूक्ष्म रेणु’ बना है। आठ सूक्ष्मातिसूक्ष्म रेणु से एक ‘सूक्ष्म रेणु’ निर्मित हुआ। आठ रेणु से एक ‘सूक्ष्मातिसूक्ष्म परमाणु’ बना। आठ सूक्ष्माति सूक्ष्म परमाणु से एक ‘सूक्ष्म परमाणु’ बना। आठ सूक्ष्म परमाणु से एक ‘परम अणु’ निर्मित हुआ। तीन परम अणुओं से एक ‘त्रसरेणु’ और नौ त्रसरेणु से एक ‘सूक्ष्मातिसूक्ष्म अणु’ बनता है।इसी सूक्ष्मातिसूक्ष्म अणु से स्थूल जगत का निर्माण हुआ है। 

    किन्तु वह भी इतना अस्पष्ट और धुंधला है कि इन चर्मचक्षुओं से शीघ्र पकड़ में नहीं आता। आठ सूक्ष्मातिसूक्ष्म अणु एक सूक्ष्म अणु की रचना करते हैं। इसी प्रकार आठ सूक्ष्म अणु से एक ‘अणु’ निर्मित होता है।

परमाणुओं का बोध तो होता है परन्तु बिना विज्ञान के यंत्रों के वे प्रत्यक्ष नहीं होते। यही परमाणु क्रमशः पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु में विद्यमान है जिनसे क्रमशः–गन्ध, रस, रूप और स्पर्श की उत्पत्ति हुई है। 

     गन्ध, रस, रूप और स्पर्श परमाणु के अंतर्गत होने के कारण बोधगम्य तो हैं मगर अगोचर हैं। जिनमें वे प्रकट होते हैं वे गोचर हैं। जहाँ जहाँ गोचर है, वहाँ वहाँ अणु है। परमाणु से लेकर अणु तक को बिन्दु कहते हैं। इसी बिन्दु को महाबिन्दु में लय करना ही तेज का लक्ष्य है।सूक्ष्मवाक् का स्थान नाभि है। उच्चारित शब्द नाभि मण्डल में हुए अणुओं के आपसी संघर्ष से उत्पन्न विस्फोट(नाद) का परिणाम है। यह संघर्ष तभी होता है जब मनतत्व और प्राणतत्व आपस में मिलकर दो विपरीत अणुओं का स्पर्श करते हैं। 

     यह अणुस्पर्श आकाशतत्व में होता है। प्राणों में जो विद्युत् चुम्बकीय शक्ति है, वह शब्द को बाहर प्रकट करने को प्रेरित करती है। प्राण की विद्युत् को ‘प्रभविष्णु’ कहते हैं। मन्त्र के शब्द और यंत्र के अंकों में प्राणतत्व, मनतत्व के आलावा अणु भी विद्यमान है। शब्द का उच्चारण होते ही परमाणु में परिवर्तित होकर पहले गन्ध, रस, रूप और अन्त में रूप आकार में प्रतिष्ठित हो जाता है। 

       यदि हम किसी मन्त्र का बार बार उच्चारण करते हैं अथवा किसी अंक को बार बार लिखते हैं तो उसके अणु परमाणुओं में स्थित होकर आकार बनाये रहते हैं, वे मन्त्र के अधिष्ठात्र देवता को प्रकट कर देते हैं। इसीलिए मन्त्र को अधिक से अधिक संख्या में जपने का विधान है। मन्त्रविज्ञान का यह स्पष्ट सिद्धांत है और देवता इसी सिद्धांत से बँधे हुए हैं। मन्त्र को जपने से और यंत्र को लिखने से सिद्ध होता है। यदि कोई मन्त्र या यंत्र कार्य नहीं करता तो हम उसे दोष देने लगते हैं और ‘सब बकवास है’ कहकर प्रयास बन्द कर देते हैं। लेकिन मन्त्र को विधि-विधान से और निर्धारित संख्या में जपें और यंत्र को निर्धारित संख्या में लिखें तो वह मन्त्र और यंत्र अवश्य फलीभूत होता है।

       जिस प्रकार हम एक छोटे से रेडियो यंत्र में केवल उसकी सुई घुमाने से या दूरदर्शन यंत्र में रिमोट चलाने से हज़ारों मील दूर के स्टेशन की आवाज सुन और दृश्य देख सकते हैं(उस समय दूसरे किसी स्टेशन से हमारा कोई सम्बन्ध नहीं होता है), उसी प्रकार जिस मन्त्र को, यंत्र को हम जपते या लिखते हैं और वह जिस देवता से सम्बंधित होता है, हमारे संकल्प के अनुसार वह दैवीय जगत की भूमि में उसके अणु-परमाणुओं में बदल कर उसी देवता के आकार का निर्माण करता है।

      इसीलिए किसी भी अच्छे कार्य या अध्यात्म जगत के कार्य करने से पहले हम शुद्ध-बुद्ध चित्त हो जाते हैं फिर सारी छोटी मोटी प्राथमिकताएं पूरी करने के बाद विधि-विधान पूर्वक संकल्प करते हैं। संकल्प में बहुत शक्ति होती है। समझ लें आधा कार्य संपन्न हो गया। हम कोई कार्य करते तो हैं पर बिना संकल्प के करते हैं। 

 महाबिन्दु तक ही शब्दब्रह्म की व्यापकता है। महाबिन्दु से लेकर बिन्दु(अणु) की सीमा में नौ खण्ड विद्यमान हैं। 

     नौ अंकों के बाद जिस अंक की स्थिति है, वह है–शून्य। महाबिन्दु के बाद फिर शून्य ही है। बिन्दु या अणु ऊपर से नीचे की और नवम और अन्तिम खण्ड है। ये खण्ड क्रमशः स्थूल और सूक्ष्मतर जगत है।

 इन नौ जगतों में से जिस जगत से सम्बंधित मन्त्र-यंत्र होता है, इसका ज्ञान मन्त्र या यंत्र से हो जाता है। उसके अणु वहाँ के परमाणुओं में परिवर्तित होकर उस लोक के अधिष्ठात्र देवता के रूप की रचना करने लग जाते हैं और जब यह उद्यम अपनी चरम सीमा पर पहुँचता है तो उस अवस्था में हमारा सम्बन्ध उस लोक और वहाँ बने रूप-आकार से स्थापित हो जाता है। 

      जब वह सम्बन्ध स्थिर और दृढ हो जाता है तो उस आकार में उस देवता की शक्ति प्रतिष्ठित हो जाती है जो पहले से उस लोक में विद्यमान रहती है। इस रूप और आकार को निर्मित करने में शब्द-शक्ति का ही चमत्कार है जिसका गूढ़ रहस्य मंत्रविज्ञान में छिपा है। इसी प्रकार यंत्र को निश्चित संख्या में लिखने से वह सिद्ध हो जाता है और उस सिद्ध यंत्र को यदि हम अपने शरीर में बांध लेते हैं तो वही शक्ति उस यंत्र के माध्यम से हमारे पास हर समय सुरक्षित रहती है और संकल्प की सिद्धि करती है। 

       यंत्र और मन्त्र दोनों जिस देवता से सम्बंधित होते हैं, उनकी शक्ति उनमें निहित होती है, उनके प्राकट्य का जो विधान है, उसी को तंत्र कहा जाता है।

शब्द-शक्ति और मन्त्र-विज्ञान जिन नौ लोकों या खण्डों की चर्चा हुई है, उनमें सूर्य से लेकर अन्य सभी ग्रहों की स्थिति है। सूर्य नक्षत्र ब्रह्म की सीमा पर और सूक्ष्म जगत की सर्व प्रथम भूमि में स्थिति है। यहाँ से सात लोक पर्यन्त उसकी किरणें अगोचर रहती हैं। आठवें लोक में आकर वे प्रकट होती हैं और नवें में अर्थात् भूलोक में वे रश्मियाँ प्रकाशमयी होती हैं। रश्मियाँ विविध रंगों की हैं–श्वेत, पीत, श्याम, हरित आदि। इसका कारण विभिन्न लोकों विभिन्न अणु ही हैं जिनका स्पर्श कर वे धरातल पर अवतरित होती हैं। 

      ग्रहों के जो भिन्न भिन्न वर्ण है, वे विविध वर्ण रश्मियों के कारण ही हैं। प्रत्येक लोक में ग्रहों के अतिरिक्त क्रम से नक्षत्रों में भी स्थित है। वे सभी ग्रह और कुछ नक्षत्र सूर्य की रश्मियों के कारण प्रकाशित और वर्णमय हैं, फिर भी अंतरिक्ष में अनेक ऐसे नक्षत्र हैं जो स्वयं प्रकाशित और वर्णमय हैं उनमें स्वयं का प्रकाश है। 

यंत्र के निर्माण और सिद्धि के समय उनसे सम्बंधित ग्रह-नक्षत्रों का महत्त्व है। सूर्य की विभिन्न रश्मियाँ विभिन्न लोकों, ग्रहों और नक्षत्रों के अणुओं का स्पर्श करती हुई पृथ्वी पर जब अवतरित होती हैं तो उनके प्रभाव से वहाँ नाना प्रकार की औषधियों और वनस्पतियों का निर्माण होता है। जिस नक्षत्र में जिस औषधि का निर्माण होता है, उस नक्षत्र से युक्त तिथि को उस औषधि का सेवन लाभप्रद बतलाया गया है।

     अध्यात्म वेत्ताओं ने वाणी के चार रूप बतलाये हैं–परा, पश्यन्ति, मध्यमा और बैखरी। जो जीभ, ओष्ठ, दन्त, तालु, कण्ठ आदि से उच्चारण कर बोली जाती है और जिसे कान सुनते हैं, उसे ‘बैखरी’ वाणी कहते हैं। परिष्कृत मन की वाणी को ‘मध्यमा’ कहा जाता है और जिसे नेत्र सुनते हैं। हृदय की वाणी को ‘पश्यन्ति’ कहते है जिसे केवल हृदय ही सुनता है। ‘परावाणी’ आत्मा की वाणी है। उसे आत्मा सुनती है। 

      आत्मा के अंतरंग क्षेत्र में जो ‘अनहद’ ध्वनि उत्पन्न होती है, उस सन्देश को दूसरी आत्माएं सुनती हैं। यह सन्त, महात्माओं, सिद्ध, साधकों और योगियों की वाणी है। देववाणी भी इसी को कहते हैं जो सीधे मनुष्य के अंतःकरण में प्रवेश कर जाती है। ‘बैखरी’ के आलावा अन्य सूक्ष्म वाणियों को शास्त्रकारों ने इन्द्रियातीत अनाहद ‘शब्दब्रह्म’ और ‘नाद ब्रह्म’ के रूप में प्रस्तुत कर उनकी शब्द-शक्ति की महिमा का वर्णन किया है। 

      अब जबकि विज्ञान ने ‘पराध्वनि’ के रूप में अश्रव्य (न सुनने योग्य) ध्वनियों को खोज निकला है तो हमारे ऋषियों का प्रतिपादन सत्य प्रतीत होने लगा है कि इस सृष्टि की उत्पत्ति ही ‘शब्द-शक्ति से हुई है। विज्ञान कहता है कि हम ध्वनि तरंगों के अनन्त सागर में तैर रहे हैं। हम जो भी बोलते हैं, उसका कभी विनाश नहीं होता। वह सूक्ष्म ध्वनि तरंग के रूप में हमारे चारों ओर चक्कर काटता रहता है और अनन्त काल तक अस्तित्व में बना रहता है।

इस संसार में शब्दरूप में अबतक जितने  नियम प्रकट किये गए हैं, उन सबकी सूक्ष्म तरंगें हमारे मस्तिष्क की पकड़ में आकर हमें नए विचार दे जाती है लेकिन इसके लिए मस्तिष्कीय तरंगों की फ्रीक्वेंसी ब्रह्माण्डव्यापी सूक्ष्म तरंगों से समरस होना आवश्यक है। 

       सापेक्षवाद का सिद्धान्त ऐसे ही एक अवसर की देन है। पाश्चात्य  विद्वान ‘लायन वाटसन’ का मानना है कि गहन चिन्तन की स्थिति में ‘आइंस्टीन’ के मस्तिष्क से ‘अल्फ़ा’ तरंगे निकला करती थीं। ज्ञातव्य है कि अलग अलग स्थिति में से मानवीय मस्तिष्क से ‘अल्फ़ा’, ‘वीटा’ ,’थीटा’ और ‘डेल्टा’ तरंगे निकला करती हैं। ये सारी मस्तिषकीय तरंगें हैं। ध्यान और गहनतम चिन्तन की स्थिति में प्रायः ‘अल्फ़ा’ तरंगे निकला करती हैं। 

     ऐसी स्थिति में योगी और साधक सूक्ष्म जगत से संपर्क स्थापित कर लेते हैं। ऐसी ही गहन स्थितियों में ऋषियों को वेद उपलब्ध हुए थे।

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