भारत का मीडिया, भाजपा और इसके नेतृत्व में चल रही सरकार और खुद प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह भारत में ‘बांग्लादेशी घुसपैठियों’ के बारे में जिस तरह से बयान देते रहे हैं, वह मानवता को शर्मसार करने वाले रहे हैं। उन्हें ‘दीमक’ जैसा बताया गया। भारत एक ओर यह श्रेय तो लेता रहा है कि उसने बांग्लादेश को आजाद कराया। इसे एक और भाषा में ‘पाकिस्तान के दो टुकड़े’ कर देने की नीति के रूप में भी पेश किया जाता है। लेकिन, इससे पैदा हुई समस्या को हल करने के बजाय एक राष्ट्रीयता को शर्मसार करने वाले बयान दिये जाते रहे हैं। बांग्लादेशी शरणार्थियों के साथ हिंसा और बेहद अमानवीय व्यवहार, कानूनी कार्रवाइयां की जाती रही हैं।
अंजनी कुमार
नोबेल पुरस्कार से नवाजे गये प्रो. मुहम्मद यूनुस अब बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के मुखिया हैं। इस देश में आने वाला समय अब इनके नेतृत्व पर निर्भर करेगा। भारत के प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें बधाई दी है और आग्रह किया है कि वह वहां हिंदुओं और दूसरे अल्पसंख्यक समूहों की संरक्षा और सुरक्षा को सुनिश्चित करें। मुहम्मद यूनुस ने पेरिस से वापस बांग्लादेश आने के बाद देश के लोगों से अपील जारी किया था कि अल्पसंख्यक समुदायों की सुरक्षा एक जरूरी कदम है और हर हाल में हिंसा रोकना जरूरी है, जिससे कि आगे का रास्ता साफ हो सके।
जब बांग्लादेश में तानाशाही के खिलाफ बगावत चल रही थी और बदलाव की बयार बह रही थी उस समय भारत का मीडिया हिंदू-मुसलमान करने में लगा था। मीडिया के आर्थिक खबरों में यह उम्मीद जताई जा रही थी कि भारत का सुस्त पड़ा कपड़ा उद्योग संभावित तौर पर 10 से 20 प्रतिशत की उछाल ले लेगा। इसे विदेश नीति के नजरिये से देखने के बजाय एक घरेलू मसले की तरह देखा जा रहा था। जबकि दोनों ही मामले किसी पके फल का अचानक गिरते हुए हाथ में आ जाने जैसा नहीं है।
दोनों ही एक लंबी प्रक्रिया का हिस्सा होती हैं और यह बहुत कुछ राजनीतिक कारकों पर निर्भर करती है। भारतीय मीडिया के बताने से न तो वहां भारत की तरह हिंदू-मुसलमान होने जा रहा था और न ही भारत के सुस्त पड़े कपड़ा उद्योग में कोई उछाल आने की उम्मीद बन रही थी।
भारत का मीडिया, भाजपा और इसके नेतृत्व में चल रही सरकार और खुद प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह भारत में ‘बांग्लादेशी घुसपैठियों’ के बारे में जिस तरह से बयान देते रहे हैं, वह मानवता को शर्मसार करने वाले रहे हैं। उन्हें ‘दीमक’ जैसा बताया गया। भारत एक ओर यह श्रेय तो लेता रहा है कि उसने बांग्लादेश को आजाद कराया। इसे एक और भाषा में ‘पाकिस्तान के दो टुकड़े’ कर देने की नीति के रूप में भी पेश किया जाता है। लेकिन, इससे पैदा हुई समस्या को हल करने के बजाय एक राष्ट्रीयता को शर्मसार करने वाले बयान दिये जाते रहे हैं। बांग्लादेशी शरणार्थियों के साथ हिंसा और बेहद अमानवीय व्यवहार, कानूनी कार्रवाइयां की जाती रही हैं।
निश्चित ही इसमें धर्म एक निर्णायक भूमिका निभाता रहा है, जो सीएए और एनआरसी में और भी साफ हो गया। मीडिया में जिस तरह से ‘घुसपैठियों’ को रोकने के लिए बांग्लादेश की सीमा पर भारत की तैयारियों को दिखाया जा रहा था, वह दो देशों के बीच के रिश्तों के कत्तई अनुरूप नहीं था। इस तरह की खबरें अभी जारी हैं। प्रधानमंत्री मोदी का मुहम्मद यूनुस से की गई अपील इन्हीं खबरों की एक प्रतिध्वनि सी लगी।
भारत और बांग्लादेश के बीच एक फर्क है जिसे हमें जरूर देखना होगा। बांग्लादेश में तानाशाही के खिलाफ राजनीतिक बदलाव की लड़ाई किसी धर्म या जाति समूह के खिलाफ नहीं थी। ऐसा संघर्ष कर रहे छात्रों या अन्य समूहों की ओर कहा भी नहीं गया। यह लड़ाई वहां फैले भ्रष्टाचार और रोजगार को लेकर था। इसकी लोकप्रियता बढ़ने के पीछे वहां शहरों में काम के हालात, लंबी श्रम-अवधि, दशकों से स्थिर और बेहद कम वेतन, बढ़ती महंगाई और आवास की भीषण समस्या थी।
वहां अधिकतम पूंजी निवेश के लिए उन पर न्यूनतम नियंत्रण की पद्धति लागू थी। इस बुरे हालात को ठीक करने के लिए किसानों पर और अधिक भार लादने की नीति भी चल रही थी। इसका नतीजा यह था कि एक ओर बाढ़ से तबाह हुए किसानों के लिए कोई विकल्प नहीं बच रहा था और दूसरी ओर उत्पादन का लाभकारी मूल्य भी हासिल नहीं हो रहा था। ऐसे में वहां बड़े बैंक निवेश करने से बच रहे थे। ऐसे में खेती में महिला श्रमिकों की निरंतरता और गांव में बने रहने की परिघटना सामने आ रही थी।
यहां इसे भारत के संदर्भ में न देखा जाये। भारत की स्थिति थोड़ी भिन्न है। प्रो. मुहम्मद यूनुस द्वारा गांव में किया गया प्रयोग कोई स्वतंत्र घटना नहीं थी। उनकी छोटे पूंजी निवेश के पीछे विश्व बैंक की नीतियां भी थीं। लेकिन, निश्चय ही ठोस स्थितियों का ठोस अध्ययन उनका ही था, जिसमें उन्होंने पूंजी की सुरक्षा को बनाये रखने के लिए महिलाओं को ही केंद्र में रखा।
खालिदा जिया के समय में जो नीतिगत और निर्णायक फैसलों में अक्षमता दिख रही थी वह निश्चय ही शेख हसीना के समय में सुधरा और ‘कड़े निर्णय’ लिये गये। ऐसे निर्णय एक खास वर्ग को ध्यान में रखकर ही लिए जाते हैं। शेख हसीना ने पूंजी निवेश, संरचनागत विकास और सार्वजनिक क्षेत्र में वेतनमान को ठीक किया, जिससे वह वहां के पूंजीपति वर्ग और मध्यवर्ग के नौकरशाह समूहों को अपने पक्ष में रख सकें। उनके शासनकाल में बांग्लादेश की मैक्रो-अर्थव्यवस्था भारत से बेहतर प्रदर्शन कर रही थी। जबकि माइक्रो की स्थिति बद से बदतर होने की ओर थी।
यहां समाज का विभेदीकरण ‘प्रभुत्व’ का रूप ले रहा था और इसके लिए शेख हसीना ‘राष्ट्रवाद’ का सहारा ले रही थीं। वह अपने ही देश की जनता को धर्म या जाति या विचारधारा के आधार पर नहीं, देशप्रेम के नाम पर देशभक्त और देशद्रोही के खतरनाक खेल पर उतर आईं।
बांग्लादेश में तानाशाही के खिलाफ उठी बगावत को जिस तरह से भारत का मीडिया पेश कर रहा है, उससे उसका कोई लेना देना नहीं है। यह एक लोकप्रिय आंदोलन है और इसने अपने बीच के एक ऐसे लोकप्रिय व्यक्ति को अपना नेता चुनने का एलान किया जिसे वे उसकी समझदारी और कार्य की खातिर प्यार करते हैं। यह कोई क्रांतिकारी चुनाव नहीं है। लेकिन, यह धर्म के नजरिये का चुनाव भी नहीं है। इसने गांव के लोगों को प्यार किया और सबसे गरीब लोगों के लिए नीति बनाई और उसे लागू करने के लिए खुद उतर गया।
उनका यह कार्य निश्चित ही विश्वबैंक से प्रेरित एक सुधारवाद ही है। बांग्लादेश के युवाओं और वहां के आम लोगों ने अपनी तबाह हालत में प्रो. मुहम्मद यूनुस के व्यक्तित्व में एक सांस लेनी की जगह देखी है और उसमें भरोसा किया है कि यही है जो दरअसल उसे समझ सकता है और प्यार कर सकता है, कोई रास्ता निकाल सकता है।
आज भारत की स्थिति बांग्लादेश से बेहद अलग है। बड़े उद्योगों में मंदी का असर दिखना शुरू हो चुका है। छोटे उद्यमों में अभी कोई हलचल नहीं दिख रही है और जिस तरह का उपभोक्ता मूल्य सूचकांक का उछाल है, उसके सामने ये उद्योग स्थिर न्यूनतम वेतनमान भुगतान पर भी पूंजी के अनुरूप बढ़ सकेंगे, उम्मीद कम ही दिख रही है। खेती की स्थिति बद से बदतर है। सार्वजनिक उद्यमों और क्षेत्रों में रोजगार रुका हुआ है। बेरोजगारी एक भयावह समस्या बनी हुई है, और महंगाई आम लोगों की कमर तोड़ रही है।
यहां भी बाकायदा कानून, एक्ट लाकर ‘आतंकवाद’ और ‘देशद्रोही’ को बार-बार परिभाषित किया जा रहा है। छात्रों के आंदोलन को कुचला जा रहा है। किसानों पर भयावह दमन किया गया। खुद सरकार के मंत्री, जिसमें प्रधानमंत्री से लेकर राज्य मंत्री तक इन आंदोलनों को कभी धर्म, कभी देश के प्रति भक्ति के नजरिये से बयान देते रहे हैं। भारत में पिछले 30 सालों से, और खासकर पिछले 10 सालों से हरेक लोकप्रिय आंदोलन का धर्म, नस्ल और आतंकवाद के नजरिये से देखने, दिखाने और उसी के अनुरूप व्यवहार का नतीजा है कि आंदोलन लगातार विभाजित होता गया है।
मणिपुर की घटना एक प्रतिनिधिक उदाहरण है। दरअसल, भारत में आंदोलनों के प्रति शासन कर रही पार्टी और उसकी सरकार आंदोलन और कई बार सामान्य दौर में सामान्य मसलों पर भी, धर्म और जातीयता का नजरिया अख्तियार करती हुई दिखती है। इसमें भारत के प्रधानमंत्री मोदी भी शामिल हैं। ऐसे में, बांग्लादेश में बनी नई अंतरिम सरकार के मुखिया के बारे में हिंदू और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और संरक्षा के लिए बयान देना बेहद बेतुका लगा। विदेश नीति के तौर पर बांग्लादेश के संदर्भ में यह बयान अटपटा है और संदर्भ के उपयुक्त नहीं है।
मीडिया की खबरों से अधिक वहां की राजनीतिक व्यवस्था और उसके राजनय का ख्याल करना मुख्य प्राथमिकता होनी चाहिए। बगावत के समय पैदा हुई स्थितियां आकार लेने में समय लेती हैं। स्थितियों के आधार पर ही कोई बयान या निर्णय देना एक मजबूत राजनय की हार है। खासकर, तब जब शीर्ष नेतृत्व हिंदुओं और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की अपील और इस संदर्भ में निर्णय बेहद ठोस शब्दों में सुना चुका है।