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जनता को सस्ता और सुलभ न्याय देने के अनिवार्य महती जरूरत 

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मुनेश त्यागी 

       आज हम जनता को सस्ते और सुलभ न्याय के मार्ग में बहुत सारी बाधायें देख रहे हैं, बहुत सारी निराशाएं देख रहे हैं, बहुत सारी बेरुखी और खामियां देख रहे हैं, सरकार की हद दर्जे की बेरुखी, लापरवाही और हद दर्जे की असंवेदनशीलता देख रहे हैं। भारत के संविधान में भारत की जनता को सस्ता, सुलभ और सुगम न्याय देने का वादा किया गया है। आजादी के 77 साल बाद भी यह संवैधानिक गारंटी झूठी साबित हो रही है अधिकांश गरीब वादकारियों को न्यायपालिका और सस्ते और सुलभ न्याय से विश्वास उठता जा रहा है।

      टाइम्स ओफ इंडिया की लेटैस्ट रिपोर्ट के अनुसार भारत में इस समय पांच करोड़ से अधिक मुकदमें भारत के विभिन्न न्यायालयों में लंबित हैं और मुकदमों का बहुत बड़ा पहाड़ देश के सामने खड़ा हो गया है। निचली अदालतों में यह संख्या लगभग 4 करोड़ 50 लाख और विभिन्न उच्च न्यायालयों में 59 लाख मुकदमें लंबित हैं, सर्वोच्च न्यायालय में 83 हजार से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं। विभिन्न उच्च न्यायालयों में 42 लाख अपराधिक मुकदमें और 16 लाख दीवानी मुकदमे लंबित हैं, जिनके शीघ्र निस्तारण के आसार नजर नहीं आ रहे हैं। हालात इतने खराब हो गए हैं कि जैसे अदालतों में आना वादकारियों के लिए कोई बहुत बड़ा गुनाह हो गया है।

     भारत के कई मुख्य न्यायाधीश और कानून मंत्री अनेकों बार यह जानकारी दे चुके हैं। उन्होंने अनेकों सम्मेलनों में बताया है कि भारत में इस वर्ष इस समय पांच करोड़ से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं। आंकड़ों के अनुसार सरकारें, भारत में सबसे बड़ी वादकारी और मुकदमेबाज पक्षकार हैं। उन्होंने यह सच्चाई भी उजागर की है कि 50% लंबित मामलों में सरकारें पक्षकार हैं। भारत में हालात इतने खराब हो गये हैं कि कार्यपालिका और विधायिका की विभिन्न शाखाओं के पूरी क्षमता और प्रतिबद्धता के साथ काम न करने से भी लंबित मामलों का अंबार लग गया है।

     आज भारतीय न्यायपालिका के सामने प्रमुख समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है जैसे लंबित मामलों की लगातार बढ़ती संख्या, वर्षों से खाली पड़े जजों के हजारों पद, घटते न्यायाधीश, विशेषज्ञ न्यायाधीशों की नियुक्तियां न होना, मुकदमों के अनुपात में अदालतों की कमी, मुकदमों के अनुपात में न्यायाधीशों, स्टैनों, न्यायिक कर्मचारियों और अदालतों के बुनियादी ढांचे की अनेक कमियां और खामियां मौजूद हैं। आधुनिक सुविधाजनक न्यायालय नहीं हैं, मुकदमों के अनुपात में जज और कर्मचारी, स्टेनो आदि नहीं हैं। ये पद पिछले पंद्रह बीस सालों से खाली पड़े हुए हैं। वकीलों द्वारा लगातार मांग और आंदोलन करने के बावजूद भी केंद्र और राज्य सरकारें, इन बुनियादी न्यायिक मांगों को नजरअंदाज और अनसुनी करती चली आ रही हैं। हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि पर्याप्त संख्या में सरकारी न्यायिक कर्मचारियों के अभाव में बड़ी संख्या में “प्राइवेट न्याय कर्मी” यानी अंजीर” रखे जा रहे हैं।

     दरअसल सस्ता, सुलभ और सुगम न्याय सरकार के एजेंडे में नहीं है। हमारी न्यायपालिका का बजट राष्ट्रीय जीडीपी का केवल .02% है जो वैश्विक स्टैंडर्ड के हिसाब से जीडीपी का 3 परसेंट होना चाहिए। यहीं पर हमारा यह भी कहना है कि जब तक जनता की भाषा में न्याय प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती और निर्णय नहीं दिए जाते, तब तक वादकारी जनता को सस्ता, सुलभ और असली न्याय नहीं मिल सकता। 30 अगस्त 2024 टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार, इस समय देश में पांच करोड़ से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं जो शीघ्र न्याय की बाट जोह रहे हैं।

     मुकदमों का जल्दी न्यायिक निस्तारण न होने का एक कारण यह भी है कि बहुत सारे कानूनों को साफ, स्पष्ट और सरल रूप से और जनता की भलाई को ध्यान में रखकर नहीं बनाया गया है, जिस कारण मुकदमों के अनावश्यक भार से न्यायपालिका चरमरा गई है जो जनतंत्र की सेहत के लिए सही नहीं है। जनता को समय से न्याय न मिलने और मुकदमों के लगातार लंबित होने के लिए कार्यपालिका भी बहुत हद तक जिम्मेदार है। उपरोक्त परिस्थितियों के अनुसार जनता को सस्ता, सुलभ और सुगम न्याय न मिलने के कारण केवल न्यायपालिका ही अकेले जिम्मेदार नहीं है। बल्कि इसके लिए जनता को समय से सस्ता और सुलभ न्याय देने में सरकार की बेरुखी सबसे ज्यादा जिम्मेदार है।

    हमारे देश में 10 लाख जनसंख्या पर मात्र 20 न्यायाधीश हैं जो बेहद कम हैं। राष्ट्रीय कानून आयोग की सिफारिशों के अनुसार 10 लाख जनसंख्या पर कम से कम 50 न्यायाधीश होने चाहिएं। ऐसी ही सिफारिशें भारत के कई मुख्य न्यायाधीश भी कर चुके हैं, मगर सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगती। वह इन सिफारिशों को लगातार अनदेखा और अनसुना करती आ रही है। पश्चिमी देशों में यह संख्या 10 लाख जनसंख्या पर 110 न्यायाधीश हैं, मगर हमारी सरकारें इन सिफारिशों और तथ्यों पर ध्यान देने को तैयार नहीं है। अगर हमारे देश में तहसीलदार, पंचायतें, दीवानी संस्थाएं, रिवेन्यू अधिकारी और उप श्रमायुक्त और सहायक श्रमायुक्त प्रतिबद्धता, संवेदनशीलता और कानून के हिसाब से काम करें तो मुकदमों का बोझ काफी हद तक कम किया जा सकता है।

    इसी के साथ यदि पुलिस विवेचना सही, वास्तविक और कानूनी हो और गैर कानूनी गिरफ्तारियां नहीं की जाती हैं और श्रम कानूनों को सही और कानूनी तरीके से लागू किया जाता है और तमाम मजदूरों को श्रम कानूनों की सुविधाएं उपलब्ध कराई जायें तो बहुत से वाद न्यायालय तक नहीं पहुंच पाएंगे। इसी के साथ-साथ विधायिका को कानूनों को जनता का कल्याण, ध्यान में रखकर बनाना पड़ेगा और उनमें जरूरी संशोधन करने होंगे। इससे भी मुकदमों में कमी आएगी। 

      जनता को सस्ता, सुलभ और सुगम न्याय  मिलने के लिए हमारे देश की कार्यपालिका और विधायिका के विभिन्न विभागों द्वारा समयबध्द कार्यवाहियां न किया जाना और उनका लापरवाहीपूर्ण और गैरजिम्मेदाराना व्यवहार भी विशेष रूप से जिम्मेदार है। उनको पीड़ित वादकारियों से कोई प्यार, मोहब्बत, लगाव और भाईचारा नहीं है, जनता से कोई हमदर्दी नहीं है। इन दिनों भ्रष्टाचार भी एक बड़ी समस्या बनकर  सामने आ रही है, इसलिए मुकदमें लंबे समय तक लम्बित पड़े रहते हैं और जनता को समय से न्याय नहीं मिल पाता। जनता को सस्ता, सुलभ और सुगम न्याय न मिलने के लिए केवल और केवल भारत की केंद्र और राज्य सरकारें जिम्मेदार हैं।

     पिछले काफी समय से हम देखते चले आ रहे हैं कि केंद्र सरकार के कानून मंत्री सिर्फ आंकड़े पेश कर रहे हैं। वे जनता को सस्ता सुलभ न्याय कैसे मिले? इस तरह का कोई खाका पेश नहीं कर रहे हैं और अब तो यह लगने लगा है कि केंद्र और अधिकांश राज्य सरकारों की जनता को सस्ता और सुलभ न्याय देने की कोई योजना और मंशा नहीं है। हम यहां पर जोर देकर कहेंगे कि जनता को सस्ता और सुलभ न्याय देने के लिए भारत की जनता और अधिकांश पार्टियों को सरकार पर दबाव डालना होगा कि वह अदालतों में पेंडिंग 5 करोड़ से ज्यादा मुकदमों का समय से न्यायिक निस्तारण करने के लिए एक समय सीमाबध्द कार्यक्रम जनता के सामने पेश करें। इसके बिना जनता को सस्ता और सुलभ न्याय नहीं मिल सकता।

   हम यह निश्चित रूप से कह सकते हैं कि दुनिया में सबसे बड़ी मुकदमेबाज भारत और राज्यों की सरकारें हैं और कोई नहीं। जब तक ये सरकारें समयबद्ध तरीके से, सस्ते और सुलभ न्याय को एजेंडे में रखकर काम नहीं करेंगी, तब तक भारत की जनता को सस्ता, सुलभ, असली और वास्तविक न्याय नहीं मिल सकता और लगातार बढ़ते जा रहे मुकदमों का यह पहाड़ और ऊंचा होता जाएगा। सरकार की न्याय देने की मंशा के बिना मुकदमों का यह लगातार बढ़ता जा रहा पहाड़ नहीं हटाया जा सकता।

       यहीं पर यह बताना जरूरी है कि हमारे देश की अधिकांश जनता, जन प्रतिनिधियों, वकीलों और सरकार को यह जानकारी ही नहीं है कि मुकदमों के इस बढ़ते संख्या को कैसे रोका जाए, कैसे इनका शीघ्र निस्तारण किया जाये और जनता को कैसे सस्ता और सुलभ न्याय दिया जाए? वादकारियों को सस्ता, सुलभ और सुगम न्याय देने के लिए हम निम्नलिखित सुझाव इस देश की जनता, जनप्रतिनिधियों, केंद्र और राज्य सरकारों के सामने रख रहे हैं। 

    हमारा यह भी कहना है कि क्योंकि सरकार जनता को सस्ता और सुलभ न्याय देने के लिए कोई कार्यवाही नहीं कर रही है, वह न्यायिक प्रक्रिया में उदारीकरण की नीतियों को लागू नहीं कर रही है, उसे इसकी कोई चिंता ही नहीं है और सस्ता और सुलभ न्याय उसके एजेंडे में शामिल ही नही है तो इन कष्टकारी और अन्यायी परिस्थितियों में भारत का सर्वोच्च न्यायालय आगे आए और अपनी विशेष शक्तियों का प्रयोग करके निम्नलिखित आदेश पारित करे। हमारा स्पष्ट रूप से मानना है कि अगर भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इन सुझावों पर अमल किया जाएगा और इन्हें धरती पर उतारा जाएगा तो जनता को सस्ता और सुलभ न्याय मिल पाएगा। भारत का सर्वोच्च न्यायालय अपनी विशेष असाधारण शक्तियों का प्रयोग करके जनता को सस्ता और सुलभ न्याय देने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को निम्नलिखित विशेष निर्देश दे। जनता को सस्ता और सुलभ न्याय देने के लिए हमारे सुझाव इस प्रकार हैं,,,,

1. मुकदमों के अनुपात में सारे देश में नयी अदालतों का शीघ्रता के साथ निर्माण किया जाए,

2. मुकदमों के अनुपात में पूरे देश में हजारों/लाखों की संख्या में विशेष न्यायाधीश नियुक्त किए जाएं, और जब इन मुकदमों का निस्तारण हो जाएगा तो इन विशेष न्यायाधीशों और कर्मचारियों की नियुक्तियां स्वत: ही खत्म हो जाएगी,

3. हर एक न्यायालय में समय से स्टेनों की नियुक्तियां की जाएं और 

4. लंबित मुकदमों के अनुपात में न्यायालय में न्यायिक कर्मचारियों की नियुक्तियां की जाए,

5. रेवेन्यू कोर्ट्स और लेबर कोर्ट्स और इंडस्ट्रियल ट्रिब्यूनल्स और अन्य समस्त अदालतों और सरकारी संस्थाओं में, सम्बंधित कानूनों के एक्सपर्ट जजिज की नियुक्ति की जाए, कार्यपालिका के अधिकारियों की नही, ताकि मुकदमों का निर्धारित समय सीमा में न्यायिक निस्तारण हो सके।

5. वकीलों के संगठनों और बार काउंसिल आफ इंडिया, सर्वोच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर करें जिसमें मांग की जाए कि मुकदमों के अनुपात में केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को आदेश दिया जाए कि मुकदमों के अनुपात में नये न्यायालय, विशेष न्यायिक अधिकारी/जज, स्टेनों और सरकारी कर्मचारी नियुक्त किए जाएं ताकि जनता को समय से सस्ता, सुलभ और सुगम न्याय प्राप्त हो सके।

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