10 साल के लंबे अंतराल के बाद जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव में मतदान करने के लिए बुधवार को लोग लंबी कतारों में खड़े थे. प्रधानमंत्री मोदी ने इसे ‘नया कश्मीर’ कहा और उन्होंने तीन खानदानों- कांग्रेस, जेकेएनसी और पीडीपी पर निशाना साधा है.
घाटी में पिछले दस साल काफी लंबे रहे हैं. इससे पहले भी कई दशक उथल-पुथल भरे रहे हैं, लेकिन पिछले दशक जैसा कोई नहीं रहा — यह परिवर्तनकारी बदलाव का दौर था, यह इस बात पर निर्भर करता है कि इस बारे में किससे पूछा जाता है.इन दस सालों का बहुत महत्व और महत्व है. 18 सितंबर को कश्मीरियों ने पहली बार राज्य के लिए नहीं बल्कि केंद्र शासित प्रदेश के लिए वोट किया. मोदी सरकार द्वारा अनुच्छेद-370 को निरस्त करने के बाद 2019 में इस क्षेत्र की स्थिति बदल गई.
इन चुनावों में कई अन्य पहली बार भी हो रहे हैं: स्थापित राजनीतिक दलों को कई स्वतंत्र उम्मीदवारों के खिलाफ खड़ा किया जा रहा है, जिन्हें प्रतिबंधित जमात-ए-इस्लामी जैसे संगठनों का समर्थन प्राप्त है; इंजीनियर अब्दुल राशिद का प्रवेश और महबूबा मुफ्ती जैसे दिग्गजों की अनुपस्थिति.इसने जम्मू और कश्मीर के राजनीतिक परिदृश्य को बेहद प्रतिस्पर्धी बना दिया है, यही वजह है कि जम्मू और कश्मीर में विधानसभा चुनाव दिप्रिंट के लिए न्यूज़मेकर ऑफ द वीक है.
इस चुनाव में मुख्य पार्टियां इंडिया ब्लॉक की नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) और कांग्रेस, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) हैं. पिछले चुनाव में भाजपा और पीडीपी ने गठबंधन किया था. इस चुनाव में 2008 के बाद से दूसरे सबसे ज्यादा निर्दलीय उम्मीदवार भी मैदान में हैं.
ये चुनाव भाजपा के लिए राजनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण हैं, यहां तक कि क्षेत्र से बाहर भी. मोदी सरकार अनुच्छेद-370 को हटाने को अपनी प्रमुख उपलब्धियों में से एक के रूप में पेश कर रही है.हाल ही में हुए परिसीमन के बाद कश्मीर में 47 और जम्मू में 43 सीटें हैं. बुधवार को सात जिलों की 24-विधानसभा सीटों पर मतदान हुआ.
परिसीमन के कारण हिंदू बहुल जम्मू में सीटों में वृद्धि हुई और अनुसूचित जनजाति समुदाय के लिए नौ सीटें आरक्षित की गईं. भाजपा को उम्मीद है कि वो जम्मू में एक मजबूत ताकत बनेगी. हालांकि, उसे इस क्षेत्र में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है.कश्मीर घाटी की बात करें तो भाजपा का प्रभाव बहुत कम है.
नेशनल कॉन्फ्रेंस के लिए भी ये चुनाव काफी अहमियत रखते हैं. कश्मीर के पूर्व सीएम और नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष उमर अब्दुल्ला लोकसभा चुनाव में इंजीनियर राशिद से हार गए थे. जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा बहाल किए जाने तक चुनाव न लड़ने के कई बयानों के बाद उन्होंने चुनाव लड़ने का फैसला किया है.बीजेपी ने भी कई बार राज्य का दर्जा का मुद्दा उठाया है.
इस साल सात मार्च को जम्मू-कश्मीर में ‘हजरतबल दरगाह के एकीकृत विकास’ की शुरुआत करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जम्मू-कश्मीर के लोगों से भावनात्मक रूप से एक मजबूत अपील की. उन्होंने अपने “जम्मू-कश्मीर परिवार” को गारंटी दी कि “किसी भी परिस्थिति में केंद्रशासित प्रदेश में विकास नहीं रुकेगा”.
मोदी ने गुरुवार को श्रीनगर के शेर-ए-कश्मीर स्टेडियम में बीजेपी उम्मीदवारों के समर्थन में रैली में भी यही बयानबाजी जारी रखी. उन्होंने जम्मू-कश्मीर के राज्य का दर्जा बहाल करने, सशक्तिकरण और विकास के बीजेपी के वादे के बारे में बात की.अनुच्छेद-370 को हटाना और राज्य का दर्जा इन चुनावों में प्रमुख मुद्दों के रूप में उभरा है. रोज़गार भी एक अन्य महत्वपूर्ण चिंता का विषय है.
बेशक, इस क्षेत्र के लोग अनुच्छेद-370 को लेकर विभाजित हैं. इसके निरस्तीकरण को लेकर कुछ हलकों में गहरा असंतोष है.और जैसे-जैसे उम्मीदवार इस क्षेत्र में प्रचार करते हैं, हवा में डर का माहौल बना रहता है.
फूलों के प्रिंट वाला बेज सूट और सिर पर ऑफ-व्हाइट दुपट्टा पहने 36-वर्षीय पीडीपी नेता इल्तिजा मुफ्ती अनंतनाग के एक छोटे से गांव में महिलाओं के एक समूह की ओर हाथ हिलाती हैं. एक बूढ़ी महिला उनका हाथ पकड़ती हैं और कहती हैं कि वे उनके कान में कुछ फुसफुसाना चाहती हैं — उनके परिवार का सदस्य यूएपीए के आरोप के कारण जेल में बंद है. अधिकांश राजनीतिक दलों ने यूएपीए और पीएसए के तहत कैद ‘निर्दोष कश्मीरियों’ के मुद्दे पर विचार करने का वादा किया है.
असंतोष की इस हवा ने लोगों को चुनाव प्रक्रिया से जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. जम्मू-कश्मीर में पहले चरण के मतदान में 61.38 प्रतिशत मतदान हुआ. इस साल लोकसभा चुनाव में रिकॉर्ड तोड़ मतदान 58.46 प्रतिशत रहा.
यह तथ्य कि बड़ी संख्या में लोग मतदान करने के लिए निकल रहे हैं, यह दर्शाता है कि मतदान अपने आप में प्रतिरोध और एकजुटता का कार्य बन गया है.
यह पिछले 30 से 40 वर्षों से काफी अलग है. पहले, इस तरह के असंतोष का इस्तेमाल अलगाववाद और उग्रवाद को बढ़ावा देने के लिए किया जाता था, जिसके कारण चुनाव का बहिष्कार करने की अपील, धमकियां और चेतावनियां दी जाती थीं, लेकिन इस बार मतदाताओं की लंबी कतारों ने ऐसा नहीं होने दिया.लेकिन इन चुनावों की सबसे बड़ी खासियत यह है कि ये काफी शांतिपूर्ण रहे हैं.