~ नीलम ज्योति
व्यञ्जनाढ्यञ्च पयोदधिघृतान्वितम् ।
श्रद्धया दीयते यस्मात् श्राद्धं तेन निगद्यते॥
~पुलस्त्य.
किसी पदार्थ का वर्तमान रहते हुए , उसमें जो कुछ अन्य पदार्थ उसके आधार पर रखा जाता है उस सत् पदार्थ का आधार द्रव्य को सत्य कहते हैं। आश्रय प्रदान करने के कारण सत्यभाव को श्रत् कहते हैँ।
आप का ब्रह्ममय रूप सोम का प्रजनन करता है। श्रद्धारूप सूक्ष्म आपः आदित्य रूप अग्नि से परिताप योग से परिवर्तित हो कर छान्दोग्यउपनिषत् वर्णित पऋचाग्निविद्या प्रक्रिया से सोम में परिणत हो जाता है। श्रत् में सोम रखा जाता है , इसलिए उसे श्रद्धा कहते हैँ।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः।
~गीता (17-3)
पितृओं को शुद्ध व्यञ्जनादि श्रद्धापूर्वक समर्पण किया जाना श्रद्धया दीयते व्युत्पत्ति से श्राद्ध कहलाता है।
पितृ क्या है ?
ऋषिभ्यः पितरो जाताः पितृभ्यो देवमानवाः।
देवेभ्यस्तु जगत्सर्वं चरं स्थाण्वनुपूर्वशः॥
~मनुस्मृति (3-201)
लोकभेदसे पितृगण तीन रूपोंमें विभक्त होजाते हैं। सांसारिक पदार्थ उष्म, शीत, अनुष्णाशीत भेद से त्रेधा विभक्त है। समग्र उष्म पदार्थ को अग्नि, शीत पदार्थ को सोम तथा अनुष्णाशीत पदार्थ को यम कहते हैं। अग्नि का स्वरूप ऊर्ध्वगामी होने से, वह सदा अवाची (दक्षिण) से उदीची (उत्तर) की दिशा में जाता रहता है। सोम अधोगामी होने से, सदा उदीची (उत्तर) से अवाची (दक्षिण) की दिशा में जाता रहता है। इन दोनों के मध्य में इस चक्र का नियन्त्रण (अवसान) करने वाला यम प्राण रहता है.
यमयति नियमयति – य॒मँ उपर॒मे, यमोऽप॑रिवेषणे – विरतिर्निवृत्तिः, यमो ह वा ऽअस्या अवसानस्येष्टे.
~शतपथब्राह्मणम् (7-1-1-3)
अग्निमें सर्वदा सोम की आहुति होती रहती है। उसीसे विश्व की उत्पत्ति तथा उत्पद्यमान वस्तुओं की स्थिति रहती है। इसलिए अग्निषोमात्मकं जगत् कहा जाता है। मध्यस्थ यम जब इस सोमाहुति को प्रतिबन्धित कर देता है, तो उस अग्नि-सोम चक्र का अवसान हो जाता है, जिसे मृत्यु कहते हैं। इसलिए यम को मृत्युलोक का अधिपति कहते हैं।
इन तीन प्राण के भेद से पितृओं का तीन भेद हो जाता है, जिन्हे पर, मध्यम, अवर कहा जाता है ।
पर, मध्यम, अवर पितृओं को क्रमशः नान्दीमुख, पार्वण एवं प्रेत पितर कहा जाता है। परपितर प्रसन्नमुख होने के कारण उन्हे नान्दीमुख कहा जाता है। अन्य पितरों के अपेक्षा इनका ऊर्ध्वस्थिति है।
अतः ये ऊर्ध्वमुख और अमूर्त है। मध्यम और अवर पितर अश्रुमुख है। द्यौलोकस्थ दिव्यपितर अन्नविधाः, अन्नादविधाः, तथा अनुभयविधाः भेदसे त्रिधाविभक्त हैं। इनमें अन्नविधाः भी तीन प्रकारके हैं। अग्निमें आत्त (अरिणा गृहित) रहनेवाला अग्निष्वात्त, औषधि-वनष्पति आदि वाह्य पदार्थ में रहनेवाला वहिर्षद, जल-सोम आदि सौम्य पदार्थ में रहनेवाला सोमसद्।
इनका वैभ्राज-सोमपद-सनातन – यह तीन लोक, अग्नि-यम-सोम – यह तीन देवता, भृगु-अङ्गिरा-अत्रि – यह तीन ऋषि (भृगु अग्निष्वात्त, अङ्गीरस वहिर्षद्, अत्रि सोमपा/सोमसद् (ऋषिभ्यः पितरो जाताः) तथा दक्षिण-मध्य-उत्तर – यह तीन दिशायें होते हैं।
ये पौलस्त्य-मारीच-वैराज कहे जाते हैं तथा देव-देवयोनी-साध्य – इन का जनक है (पितरो देवमानवाः)। वहिर्षद पितरों का संख्या 86000 तथा अग्निष्वात्त पितरों का संख्या 64000 है।
विराज प्रजापति से उत्पन्न होने से इन्हे वैराज कहा जाता है। योगभ्रष्ट होने के कारण कल्पान्त में ये मुक्त नहीं हो पाते। अतः पर कल्प में प्रजापति से ऋषि रूप में जात होकर सोम को पुष्ट करते हैं।
इन वैराज पितरों के मानसी कन्या मेना है, जो अपर्णा (पार्वती) की जननी है। अग्निष्वात्त पितर मरीचि प्रजापति से उत्पन्न और सनातन लोक के निवासी है। इनका मानसी कन्या का नाम अच्छोदा है, जो योगभ्रष्ट हो कर महाभिष शान्तनु के पत्नी सत्यवती वनी थी। वहिर्षद् पितरों का मानसी कन्या पीवरी शुकदेव के जननी है।
समग्रविश्व अग्नि और सोम – यह अनुभवगम्य दो तत्त्वोंसे बना हुआ है । जिस स्थितियोंमें सौम्यप्राण प्रबल होकर आग्नेयप्राणोंका अपमर्दन करते हैं, जिससे वायु में अग्निसंयोग क्रमशः कम (अथवा बृद्धि) होता रहता है तथा शीत (अथवा उष्म) वायु का प्रभाव में वृद्धि होने लगता है और ऋतुभेद स्पष्टतया अनुभवगम्य होने लगता है , उसी निरन्तर चलने वाली चक्रवत् प्राण के वृद्धिक्षयरूप क्रम को ऋतुपितर कहते हैं।
प्रत्येक सम्वत्सरमें छह मास सूर्य विषुवद् वृत्तके उत्तर में दिखायी देता है जिसे उत्तरायण तथा अन्य छह मास विषुवद् वृत्तके दक्षिणमें दिखायी देता है जिसे दक्षिणायन कहते हैं। जिस समयसे सोमतत्त्व अग्नितत्त्वको अपमर्दन करना आरम्भ करता हैं, उस कालप्रभात को शरद् (शॄ हिं॒साया॑म्) ऋतु (ऋ॒ गतिप्राप॒णयोः॑) कहते हैं।
उस ऋतुके आरम्भको पितृपक्ष कहते हैं। उसीमें पितरों के लिये विशेषरूपसे श्राद्ध, दान, तर्पण आदि किया-कराया जाता है।
शरत् ऋतुके आरम्भको पितृपक्ष क्यों?
प्रत्येक ऋतु में भी प्रातः , माध्यन्दीन तथा सायं सवन रूपसे तीनबिभाग होते हैं, जिनमें पितरोंकी स्थिति तत्कालीन विशेषताओं से यरक्त होती है। सोमतत्त्वकी आहुती से अग्नितत्त्व प्रबल से प्रबलतर होता है , इसलिये ग्रीष्मादि ऋतुओंमें प्रचण्ड रौद्रताप अनुभूत होते हैं।
पुनः हवनीकृत सोम जब अपने मूलस्वरूपसे प्रकट होता है तब वायुमण्डलमें उष्मता का ह्रास होता है। प्रकृति ही यह यज्ञ करती है।
वसन्तोऽस्यादीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद् हविः.
~ पुरुषसुक्त
जिससे ऋतुभेद अनुभूत होता है। जीवन के प्रादुर्भाव के लिए उष्मा तथा शीतल जल आवश्यक है। गर्भधारणके दिन ऋतुमती का शरीर अपेक्षाकृत गर्म रहता है। उसके आग्नेय शोणित में रेत रूपी सोम का आहुति होने से रयिप्राणात्मक गर्भोत्पत्ति होता है। इस कारण शरत् ऋतु के आरम्भ से विविध यज्ञ किया जाता है।
अग्नि-सोमका योगक्षेमसे समस्त नैसर्गिक प्रक्रिया चलते रहते हैं तथा कालभेदसे विविध प्राणीयों का उत्पत्ति तथा विकास होता रहता है। पितर तथा देवों के अनुग्रहसे संसार चक्र का विवर्त्त होता रहता है।
अतः इस प्राकृतिक कार्य के अनुरूप मनुष्य भी उनका सन्तुलन रक्षा करने में सहायक कार्य करते हैं। श्राद्धके अङ्गीभूत तर्पण आदि आधिदैविक तथा श्रद्धाभाव समन्वित श्राद्ध आदि आध्यात्मिक सन्तुलन रक्षा करने में सहायक होते हैं।
पितरो वाक्यमिच्छन्ति भावमिच्छन्ति देवता।
सौर आत्मसम्बन्धी पार्वण को पर्व, चान्द्र मनसम्बन्धी पार्वण को उत्सव तथा लोक/शरीर सम्बन्धी पार्वण को समागम कहते हैं। अतः शरदृतुके आरम्भमें दुर्गोत्सव आदि पालन कियाजाता है, जो चान्द्र तिथि के अनुसार होते हैं। आधुनिक समाजमें इस प्राकृतिक सहभावन के क्रमशः अभाव के कारण, समाज आत्मकेन्द्रिक हो कर केवल उपभोग के पीछे भागता रहता है। अतः प्रकृतिमें सन्तुलनके अभाव से अनेक विकार सृष्टि होते हैं।
पार्वण पितर नान्दीमुख पितरों के नीचे रहते हैं। अतः ये अधोमुख और मूर्तिमान् है। इनके चार भेद है। इनमें अन्नादविधाः पितर तीन प्रकारके हैं – हविर्भुजः, आज्यपाः, सोमपाः। अनुभयविधाः पितर सुकाली अथवा सुस्वधा नामसे जानेजाते हैं। इनमें (अङ्गीरस अथवा) पुलह हविर्भुज्, पौलस्त्य आज्यप, काव्य अथवा वैराज सोमप, तथा वसिष्ठ सुकाली कहेजाते हैं।
जो द्रव्य अग्निसंयोग से नहीं जलता (जैसे जल, दुध आदि), सोम कहते हैं। सोमपान करने वाले सोमप पितरों के वैराज एवं काव्य दो विभाग है। इनमें से वैराज नान्दीमुख पितरों में आते हैं। अतः कवि से उत्पन्न काव्य ही सोमप पितर है।
इनका लोक ज्योतिर्भास है। तरल सोम पान करने के कारण इनका नाम सोमप है।
कठिन हविः का आस्वादन करने वाले पितर हविर्भुक् वा हविष्मान् कहलाते हैं। ये अङ्गिरा से उत्पन्न होने के कारण आङ्गीरस कहलाते हैं। इनका लोक मारीच है। जो द्रव्य अग्निसंयोग से जल कर ज्वाला रूप में परिणत हो जाता है, उसे आज्य कहते हैं (जैसे घी, तेल आदि)। जो पितर आज्य ग्रहण करते हैं, उन्हे आज्यप कहते हैं। इनके लोक तेजस्वी है।
यह तीन पितर द्रव्यों को ग्रहण करते हैं। सुकाली द्रव्यों को ग्रहण नहीं करते हैं – केवल उसका सम्बन्धमात्र करके लौट जाते हैं। सुकाली पितर प्रजापति वसिष्ठ के पुत्र हैं। इनके मानसी कन्या गौ है। साध्यों के जननी गौ एकशृङ्गा नाम से भी जानी जाती है। यह पार्वण पितर पृथ्वी, अन्तरिक्ष एवं द्वौ लोक में रहते हैं।
अतः इनके वसु-रुद्र-आदित्य सहकारी देवता कहलाते हैं। इसलिए कहा गया है कि वसुरुद्रादितिसूताः पितरः श्राद्धदेवताः।
प्रेत पितर अथवा मनुष्य पितरों में अपने से ले कर पिता, पितामह, प्रपितामह, वृद्धप्रपितामह, अतिवृद्धप्रपितामह, वृद्धातिवृद्धप्रपितामह, – यह सप्तपुरुषों का गणना की जाती है।
*आधुनिक विज्ञान की बात :*
मनुष्य के DNA में 23 जोडा Chromosome रहते हैँ । इनमें से एक जोडा (x-y chromosome) पिता से पुत्र को मिलता है शेष 22जोडों को अटोसोम (autosomes) कहते हैँ, जिनका कार्य उत्तराधिकार सूत्र से जिन् (genes) का प्रेरण तथा कोष के भीतर उसका स्थिति का नियमन (to make DNA fit inside a cell) है।
इनमें से प्रथम जोडे (chromosome 1) का अटोसोम (autosomes) में जो जिन् (genes) होते है (MTHFR, JAK1, RSPO1 and TAL1), पाक सम्बन्धी सहायता करता है.
A candidate gene involved in the metabolism of folate or folic acid.
Mutation in MTHFR can cause several abnormalities majorly associated with the folate metabolism such as hyperhomocysteinemia, recurrent miscarriage, schizophrenia, infertility and other mental and developmental conditions.
Two candidate gene mutations of the MTHFR are C677T and A1298C.
बाकी के 21 जोडों का 42 अटोसोम का मातृ-पितृ योग से 84 भाग को एककालीन एकत्र रहने के कारण : सहसो जातवेदसम् षहँ॒ मर्ष॑णे, यौगपद्ये – समभिव्याहृतक्रियाकालः स्वक्रियाकालीनक्रिया वा – पुत्रेण सहागता पिता : कहते हैँ। उसीका वंशानुक्रमे सम्प्रेषण होता है।
~ऋग्वेद (3.11.4)
इस प्रकार आधुनिक विज्ञान में सिद्ध है कि जैविकप्रभाव (effect of genetic mutation) सात प्रजन्मों पर्यन्त रहता है.
अग्ने वाजस्य ग्ॐअत ईशानः सहसो यहो । अस्मे धेहि जातवेदो महि श्रवः॥
~सामवेद (प्रथमोऽर्धः ९९)
मनुष्य के शुक्र में 28 सहः नामक तत्त्व रहते हैं। अपने पूर्वपुरुषों से प्राप्त 56 सहः को मिलाकर 84 सहः हो जाते हैं, जिसे 84 लक्ष योनि कहते हैं (लक्षयतीति – लक्षँ दर्शनाङ्क॒नयोः॑, लक्षँ॒ आ॒लोच॑ने च)।
इन 56 में से 21 अपने पिता के, 15 पितामह के, 10 प्रपितामह के, 6 वृद्धप्रपितामह के, 3 अतिवृद्धप्रपितामह तथा 1 वृद्धातिवृद्धप्रपितामह के हैं।
वर्तमान बीजधारी पुरुष के शरीरमें जो सहः तत्त्व है, उसमें से 28 स्वशरीर में रहेंगे। पुत्रमें 21, पौत्रमें 15, प्रपौत्रमें 10, उसके पुत्रमें 6, उसके पुत्रमें 3, तथा उसके पुत्रमें 1 रहेगा। इसप्रकार वर्तमान पुरुष से गणना करने पर पूर्व के 6 पुरुष तथा आगे के 6 पुरुष पर्यन्त सापिण्ड्य माना जाता है।
भिन्न गोत्र में विवाह करने से जो जैविक विवर्त होते हैं, वह क्रमिक क्षय होते हुये सप्तपुरुषों में पूर्ण क्षय हो जाता है । अतः सात पुरुष पर्यन्त सगोत्र विवाह निषिद्ध है।
इसी सहः के कारण हम सात पुरुषों पर्यन्त पितृओं के ऋणी रहते हैँ। उसी ऋण का परिशोध करना श्राद्धका मूल तत्त्व है।
लेपभागश्चतुर्थाद्याः पित्राद्याः पिण्डभागिनः।
सप्तमः पिण्डदस्तेषां सापिण्यं साप्तपौरुषम्।
सप्तपुरुष पर्यन्त इनका प्रभाव श्रद्धासूत्र से बद्ध रहने के कारण इनके लिए श्राद्ध किया जाता है। इनमें से प्रथम तीन पितरों में पदार्थता के आधिक्य के कारण उन्हे पिण्ड तथा अन्यों पदार्थता के अल्पता के कारण लेपभाग दिया जाता है।
वसवः पितरो ज्ञेया रुद्राः ज्ञेयः पितामहाः।
प्रपितामहाश्चादित्याः श्रुतिरेषा सनातनी॥
पितामातादि तीन पुरुषों के साथ हमारा सम्बन्धसूत्र घनिष्ठ होने के कारण, वे पिण्डभागी है। चतुर्थ से सप्तम पर्यन्त चार पुरुषों के साथ हमारा सम्बन्धसूत्र सामान्य होने के कारण, वे लेपभागी है। इन सप्तपुरुषों में से केवल पिता, पितामह, प्रपितामह अश्रुमुखा है। शेष नान्दिमुखा है। वे अमूर्त हैं।
अतः केवल पिता, पितामह, प्रपितामह का वसु-रुद्र-आदित्य रूप से श्राद्ध किया जाता है। इन मानव प्रेतपितरों के श्रॊतकर्म में अधिकार नहीं है। अतः पूर्वोक्त सप्तपितर ही श्रॊतकर्मोपयुक्त है। अन्य पितर, जैसे कि रश्मिप, स्वादुषद्, उपहुत (जैसे उपहुताः पितरः सौम्यासो) आदि का इनमें अन्तर्भाव है। यह नामान्तर, विशेषणवाची अथवा क्रियावाची हैं।
यह सभी सौम्य है – शरीर त्यागने के पश्चात् सोमलोक में जाते हैं (ये वै के चास्माल्लोकात् प्रयन्ति चन्द्रमसमेव ते सर्वे गच्छन्ति.
~कौषितकी उपनिषद् (1-2).
न वै देवा अश्नन्ति पिवन्ति एतदेवामृतं दृष्ट्वा तृप्यन्तीति। देवताओं को जो भी समर्पण किया जाता है, वे उसे न खाते हैँ न पीते हैँ। वे केवल उसे देखकर ही तृप्त होते हैँ। उसीप्रकार आवाहनादि के अनन्तर पितृ भी संस्कृत व्यञ्जनादि को देखकर तृप्त होते हैँ।
श्रौतसूत्रों में कहा गया है कि प्रकृतिवत् विकृतिः कर्तव्याः। हम प्रकृति का अनुकरण करते हैँ। किसी द्रव्य की अल्पता का पूर्त्ती उसी के ग्रहण से होता है। यदि किसी को रक्त का अल्पता है, तो उसे रक्त पीना चाहिए।
अस्थि दूर्वल होने से अस्थि आहार करना चाहिए। प्रकृति का यही नियम है , परन्तु हम वह कर नहीँ सकते। अतः प्रकृति ने हमें विकल्प दिया है। जो वस्तु खाने पीने से हमारा रक्तवृद्धि तथा अस्थि दृढ होगा हम उस विकल्प से अपना प्रयोजन सिद्ध करते हैँ। शरीर अन्नमय है। अतः हम पिण्ड के रूप में अन्न देते हैँ।