भारत
भारत में बेरोज़गारी तेजी से बढ़ रही है। भले ही लोगों का विकास नहीं हो रहा हो, पर बेरोज़गारी में लगातार ‘विकास’ देखने को मिल रहा है। करोड़ों मज़दूर और पढ़े-लिखे नौजवान, जो शरीर और मन से दुरुस्त हैं और काम करने के लिए तैयार हैं, उन्हें काम के अवसर से वंचित कर दिया गया है और मरने, भीख माँगने या अपराधी बन जाने के लिए सड़कों पर धकेल दिया गया है। आर्थिक संकट के ग़हराने के साथ हर दिन बेरोज़गारों की तादाद में बढ़ोत्तरी होती जा रही है। बहुत बड़ी आबादी ऐसे लोगों की है, जिन्हें बेरोज़गारी के आँकड़ों में गिना ही नहीं जाता लेकिन वास्तव में उनके पास साल में कुछ दिन ही रोज़गार रहता है या फिर कई तरह के छोटे-मोटे काम करके भी वे मुश्किल से जीने लायक कमा पाते हैं। हमारे देश में काम करने वालों की कमी नहीं है, प्राकृतिक संसाधनों की कोई कमी नहीं है, जीवन के हर क्षेत्र में बुनियादी सुविधाओं के विकास और रोज़गार के अवसर पैदा करने की अनन्त सम्भावनाएँ मौजूद हैं, फिर भी आज देश में बेरोज़गारी आसमान छू रही है।
मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल के सौ दिन पूरे हो चुके हैं। मोदी सरकार ने बेरोज़गारी के आँकड़े जारी करने पर तो बहुत पहले रोक लगा दी थी और अब सरकार ने रोज़गार के सवाल पर बात करना भी बन्द कर दिया है। इसके बावजूद तमाम कोशिशों के बाद भी सरकार सच्चाई को नहीं छुपा पा रही है। आई.एल.ओ की रिपोर्ट की माने तो हर साल लगभग 70-80 लाख युवा श्रम बल में शामिल होते हैं, लेकिन 2012 और 2019 के बीच, रोज़गार में वृद्धि लगभग न के बराबर हुई – केवल 0.01 प्रतिशत। वहीं, इस रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि 2022 में शहरी युवाओं (17.2 प्रतिशत) के साथ-साथ ग्रामीण युवाओं (10.6 प्रतिशत) के बीच भी बेरोज़गारी दर बहुत अधिक है। शहरी क्षेत्रों में महिला बेरोज़गारी दर 21.6 प्रतिशत के साथ काफ़ी अधिक है। आई.एल.ओ की इस रिपोर्ट से पता चलता है कि मोदी सरकार ने कम वेतन वाले अनौपचारिक क्षेत्र के रोज़गार का प्रतिशत बढ़ा दिया है, जिनमें किसी तरह की सामाजिक सुरक्षा नहीं होती है। 2019-22 तक औपचारिक रोज़गार 10.5 प्रतिशत से घटकर 9.7 प्रतिशत हो गयी। इसके अलावा, भारत की केवल 21 प्रतिशत कार्य शक्ति के पास नियमित वेतन वाली नौकरी है, जो कि कोविड के पहले के समय से 24 प्रतिशत थी।
आज किसी भी औद्योगिक इलाक़े में जाकर देखें तो कारख़ानों के गेट पर ‘हेल्पर/कारीगर चाहिए’ की तख़्ती लटकती दिख जायेगी। रोज़ सुबह गेट पर मज़दूरों की भीड़ इकट्ठा होती है जिसमें से ठेकेदार या फोरमैन कम से कम मज़दूरी पर काम कराने के लिए कुछ लोगों को चुनकर बाक़ी को वापस भेज देते हैं। शहरों में ‘लेबर चौक’ पर मज़दूरों की मण्डियाँ लगती हैं, जिसमें खड़े होने वाले मज़दूरों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है, और काम न मिलने पर निराश वापस जाने वालों की भी तादाद पहले से बहुत ज़्यादा है। बढ़ती बेरोज़गारी का आलम यह है कि इन मज़दूर मण्डियों में अच्छी-खासी डिग्रियाँ लिये हुए नौजवान भी खड़े मिल जाते हैं। पूँजीपति बेरोज़गार मज़दूरों की मौजूदगी को काम पर लगे हुए मज़दूरों का शोषण-उत्पीड़न बढ़ाने के लिए ‘ट्रम्प कार्ड’ के रूप में इस्तेमाल करता है। पूँजीपतियों और उनके चमचों के मुँह से ऐसी बातें अक्सर सुनी जा सकती हैं : “सौ मज़दूरों का इन्तज़ाम करने से ज़्यादा मुश्किल है सौ कुत्ते ढूँढ़ना।” या, “इतने पर काम नहीं करना है, तो भाग जाओ, बाहर एक के बदले दस खड़े हैं लाइन में।” पूँजीपति इतना आक्रामक क्यों है? क्योंकि कारख़ाने के गेट के बाहर हज़ारों-हज़ार बेरोज़गार मज़दूर मौजूद हैं। पूँजीपति कारख़ाने के अन्दर के मज़दूरों को धमकाने और उनकी मज़दूरी कम करने के लिए इन बेरोज़गारों का इस्तेमाल करता है।
पूँजीवादी व्यवस्था के अन्दर लोगों का एक हिस्सा हमेशा बेरोज़गार ही रहता है। बेरोज़गारी की यह स्थिति पूँजीपतियों के लिए फ़ायदेमन्द साबित होती है क्यूँकि जितने ज़्यादा मज़दूर रोज़गार के लिए क़तारों में खड़े होंगे, पूँजीपति उजरतों को तय करने की सौदेबाजी में अपना पक्ष उतना ही मज़बूत करने में सफल होते हैं। साथ ही, तेज़ी के दौर में नये निवेश करने के लिए मालिकों की जमात को अपने लिए बेरोज़गारों की एक आरक्षित सेना की ज़रूरत होती है। इसलिए पूँजीवादी व्यवस्था अपनी नैसर्गिक गति से बेरोज़गारी पैदा करती है और उसे क़ायम रखती है। लगातार मुनाफ़े की दर के सिकुड़ने के चलते पैदा हुए अतिरिक्त उत्पादन के आर्थिक संकट के दौर में बेरोज़गार लोगों की संख्या बड़े स्तर पर बढ़ती है। बड़े-बड़े कारोबार औंधे मुँह गिर पड़ते हैं। कारख़ाने बन्द होते हैं या चल रहे कारख़ानों में भी बड़े स्तर पर मज़दूरों की छँटनी होती है। छोटा-मोटा काम-धन्धा करने वालों, ग़रीब किसानों, छोटे दुकानदारों आदि का उजाड़ना और तेज़ हो जाता है। पूँजी पहले से ज़्यादा मुट्ठी भर हाथों में केन्द्रित होती जाती है। इजारेदारियाँ मज़बूत होती हैं। कोई भी सरकार पूँजीवादी ढाँचे को इस संकट से स्थायी रूप में मुक्ति नहीं दिला सकती। पूँजीवादी व्यवस्था के अन्दर आर्थिक संकटों का आते रहना अटल होता है और बेरोज़गारी, ग़रीबी का बढ़ना भी अटल होता है। आर्थिक मन्दी से निपटने के लिए सरकारों की तरफ़ से भी लोगों के लिए किये जाने वाले ख़र्च में कटौती की जाती है। आम जनता के ऊपर करों का बोझ और अधिक बढ़ाया जाता है। पूँजीपतियों के और बड़े स्तर पर क़र्ज़ माफ़ किये जाते हैं और उन्हें सरकारी ख़ज़ाने में से और बड़े तोहफ़े दिये जाते हैं, करों पर बड़ी छूटें दी जाती हैं। जनता इन क़दमों पर प्रतिरोध कर सकती है। इसीलिए यही कारण है कि आज संकट के दौर में साम्प्रदायिक फ़ासीवादी पार्टी भाजपा की पूँजीपति वर्ग को सबसे अधिक ज़रूरत है। भाजपा-संघ परिवार को संकटमोचक मानते हुए पूँजीपति वर्ग ने एक बार फिर उन्हें सत्ता सौंपने के लिए अपनी पूरी ताक़त चुनावों में झोंक दी थी। यह दीगर बात है कि मोदी-शाह को तीसरी बार सरकार बनाने के लिए नीतीश-नायडू के गठबन्धन का सहारा लेना पड़ा। बुर्जुआ जनवाद का रूप बरक़रार रहते, इस प्रकार के अन्तरविरोध मौजूद रहते ही हैं। बहरहाल, बेरोज़गारी और लोगों की आर्थिक समस्याओं को दूर करना ना तो इस सरकार का मक़सद था और न ही यह इसके लिए सम्भव है। पिछले दस सालों के कार्यकाल के दौरान फ़ासीवादी हुकूमत ने जनता के ऊपर आर्थिक संकट का बोझ बड़े स्तर पर डाला है और साथ ही लोगों के ग़ुस्से से निपटने के लिए अपने दमन को भी तेज़ किया है। इसके अलावा, संघ परिवार द्वारा समाज में बड़े स्तर पर साम्प्रदायिकता फैलाकर लोगों की ताक़त को कमज़ोर करने की कोशिश लगातार जारी है।
इसलिए बेरोज़गारी की समस्या का समाधान करने के लिए स्वयं जनता को एक नयी सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करना होगा जो मुनाफ़ा-केन्द्रित न होकर समाज की आवश्यकता के अनुसार हर वस्तु और सेवा का उत्पादन और वितरण करे। जिस देश के पास श्रम की शक्ति, प्राकृतिक संसाधनों की कोई कमी न हो, वहाँ बेरोज़गारी की कोई वजह नहीं होती। यह पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा जनित समस्या होती है। तात्कालिक तौर पर, मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी को एकजुट होकर रोज़गार गारण्टी कानून के लिए लड़ना चाहिए। यह संघर्ष तात्कालिक अधिकारों को हासिल कर ही सकता है साथ ही यह पूँजीवादी व्यवस्था की सभी को रोज़गार देने में नैसर्गिक अक्षमता को भी व्यापक जनता के सामने उजागर कर सकता है।