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 कंपनियों का ध्यान उत्पाद की गुणवत्ता पर नहीं, बल्कि महंगे प्रचार पर

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मनोज अभिज्ञान 

आज की दुनिया में विज्ञापन और स्टार्टअप्स का प्रचार नई ऊंचाई पर पहुंच चुका है। बड़ी कंपनियों और स्टार्टअप्स द्वारा मशहूर हस्तियों का इस्तेमाल कर स्क्रीन और प्रिंट मीडिया को अपने विज्ञापनों से पाट देना आम बात हो गई है। चाहे वह क्रिकेट के भगवान माने जाने वाले सचिन तेंदुलकर हों या बॉलीवुड के बादशाह शाहरुख खान या मेगास्टार अमिताभ बच्चन, इन जैसी हस्तियों का उपयोग कंपनियां अपने उत्पाद को बेचने के लिए करती हैं। लेकिन अक्सर यह देखा गया है कि जब कोई कंपनी इस तरह के हद से अधिक प्रचार पर निर्भर हो जाती है, तो इसका दीर्घकालिक परिणाम अच्छा नहीं होता। कई बार ऐसी कंपनियों के दिवालिया होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं, क्योंकि उनका सारा ध्यान उत्पाद की गुणवत्ता पर नहीं, बल्कि महंगे प्रचार पर होता है।

स्टार्टअप्स का विज्ञापन और प्रचार केवल एक पक्ष की कहानी है। इसका गहरा और जटिल आर्थिक पक्ष भी है, जिसे आम लोग अक्सर अनदेखा कर देते हैं। स्टार्टअप्स का विकास और पतन किसी एकल कारण से नहीं होता, बल्कि यह एक प्रक्रिया होती है, जिसमें वित्तीय पूंजीपतियों का बड़ा हाथ होता है।

स्टार्टअप्स के शुरुआती चरण में, जब कोई नई कंपनी अपने अनोखे विचार या उत्पाद के साथ बाजार में आती है, तो उसे प्रारंभिक निवेश की आवश्यकता होती है। इस समय, बड़ी वित्तीय संस्थाएं और पूंजीपति इन कंपनियों में सस्ते शेयरों के साथ निवेश करते हैं। इसके बाद, कंपनी का प्रचार शुरू होता है। प्रचारित करने के लिए बड़े ब्रांड एंबेसडरों का इस्तेमाल किया जाता है, जैसे कि सेलिब्रिटी या मशहूर हस्तियां, जो कंपनी को नई पहचान देते हैं और उसे आम जनता में लोकप्रिय बनाते हैं।

फिर धीरे-धीरे, जैसे ही कंपनी की छवि और उसकी मार्केट वैल्यू बढ़ने लगती है, वित्तीय पूंजीपति और निवेशक अपने शेयर ऊंची कीमतों पर बेचने लगते हैं। इस प्रक्रिया में वे भारी मुनाफा कमाते हैं। जब कंपनी के शेयरों की कीमत सबसे ऊंची होती है, तब पूंजीपति अपने निवेश को वापस लेते हैं। इसके बाद, स्टार्टअप का वास्तविक मूल्य बाजार में धीरे-धीरे गिरने लगता है। नतीजतन, छोटे निवेशक, जिन्होंने ऊंची कीमतों पर शेयर खरीदे होते हैं, को भारी नुकसान उठाना पड़ता है। यह एक प्रकार का शोषण है, जो कि खासतौर पर स्टार्टअप्स के संदर्भ में होता है।

इस प्रक्रिया में, कंपनी के संस्थापक और छोटे निवेशक सबसे ज्यादा पीड़ित होते हैं। शुरुआती चरण में स्टार्टअप्स को समर्थन देने वाले बड़े निवेशक सही समय पर अपने मुनाफे के साथ निकल जाते हैं और जब तक आम निवेशक इसका परिणाम समझते हैं, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। यह पूरी प्रक्रिया किसी धोखाधड़ी की तरह काम करती है, जहां मुनाफा कमाने के बाद किसी को समाज या अर्थव्यवस्था के भविष्य की चिंता नहीं होती। यही वो मानसिकता है जिसे ‘मेरे बाद, जलप्रलय हो मुझे क्या!’ (Après moi, le déluge!) कहा जाता है।

‘मेरे बाद, जलप्रलय हो मुझे क्या!’ का कथन मूल रूप से फ्रांस के राजा लुई XV से जुड़ा हुआ है। इसका अर्थ है, “मेरे बाद जो भी हो, मुझे परवाह नहीं। भले ही जलप्रलय आ जाए।” यह अत्यंत आत्म-केंद्रित और लापरवाह दृष्टिकोण को दर्शाता है, जिसमें शासक वर्ग को केवल अपने वर्तमान हितों की चिंता होती है। पूंजीपति वर्ग का ध्यान केवल तत्काल लाभ कमाने पर होता है और उन्हें समाज या श्रमिक वर्ग की दीर्घकालिक स्थिति की कोई परवाह नहीं होती।

“Après moi, le déluge! (मेरे बाद, जलप्रलय हो मुझे क्या!)” जैसी सोच यह बताती है कि पूंजीपति उत्पादन प्रक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण होने के बावजूद श्रमिकों की सामाजिक और भौतिक स्थिति की कोई परवाह नहीं करता। उनके लिए मुनाफा ही सब कुछ है और समाज के भविष्य की परवाह किए बिना वे अपने लक्ष्यों को प्राप्त करते हैं।

विज्ञापन उपभोक्ता व्यवहार को प्रभावित करने का शक्तिशाली साधन है। कंपनियां बड़ी हस्तियों और ब्रांड एंबेसडरों का इस्तेमाल करके लोगों के दिमाग पर स्थायी छाप छोड़ने की कोशिश करती हैं। यह सोची-समझी रणनीति होती है, जिसमें मशहूर हस्तियों की छवि और लोकप्रियता का उपयोग किया जाता है ताकि उपभोक्ता यह मानें कि जिस उत्पाद का विज्ञापन किया जा रहा है, वह वास्तव में उत्कृष्ट है।

मनोवैज्ञानिक रूप से, विज्ञापनों का असर गहरा होता है। लोगों को कई बार एहसास भी नहीं होता कि वे किसी उत्पाद को इसलिए खरीद रहे हैं क्योंकि उसे किसी मशहूर हस्ती ने प्रमोट किया है। उन्हें यह लगता है कि वे अपनी इच्छा से खरीद रहे हैं, जबकि वास्तव में विज्ञापन उनके अवचेतन मन पर काम करता है।

लेकिन इसका नकारात्मक पक्ष अधिक है। जब कोई कंपनी केवल प्रचार पर निर्भर हो जाती है और उत्पाद की गुणवत्ता की अनदेखी करती है, तो यह उपभोक्ताओं के साथ धोखा करने के बराबर होता है। वे लोग जो विज्ञापनों से प्रभावित होकर उत्पाद खरीदते हैं, अंततः असंतोष और धोखे का अनुभव करते हैं। इसका दीर्घकालिक प्रभाव यह होता है कि कंपनी की साख गिर जाती है और वह बाजार में अपनी पहचान खो देती है।

वित्तीय पूंजीपति और छोटे निवेशक दो अलग-अलग ध्रुवों पर होते हैं। वित्तीय पूंजीपति वे होते हैं, जो बहुत बड़े पैमाने पर निवेश करते हैं और बाजार की गतिविधियों को नियंत्रित करने की क्षमता रखते हैं। उनके पास न केवल बड़ा धन होता है, बल्कि बाजार में उनकी पकड़ भी होती है। दूसरी ओर, छोटे निवेशक वे होते हैं, जो सीमित संसाधनों के साथ बाजार में निवेश करते हैं और उम्मीद करते हैं कि उन्हें भी उसी तरह का मुनाफा मिलेगा जैसा बड़े निवेशक कमाते हैं।

वित्तीय पूंजीपतियों का मुख्य उद्देश्य मुनाफा कमाना होता है। वे बाजार की चालों को समझते हैं और जानते हैं कि कब निवेश करना है और कब बाजार से बाहर निकलना है। वे आमतौर पर तब निवेश करते हैं जब किसी कंपनी के शेयर सस्ते होते हैं और फिर सही समय पर अपने शेयर बेचकर मुनाफा कमाते हैं। इसके विपरीत, छोटे निवेशक अक्सर बड़े निवेशकों के पीछे चलते हैं और जब तक वे बाजार की चाल समझते हैं, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।

इस अंतर का लाभ उठाकर वित्तीय पूंजीपति छोटे निवेशकों को आर्थिक रूप से शोषित करते हैं। वे स्टार्टअप्स और अन्य कंपनियों का इतना प्रचार करते हैं कि छोटे निवेशक उसमें फंस जाते हैं और अपने धन का बड़ा हिस्सा खो देते हैं।

यह मानसिकता केवल आर्थिक स्तर पर ही नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी गहराई से फैल चुकी है। आज की उपभोक्तावादी संस्कृति में लोग केवल अपने व्यक्तिगत लाभ और सुख-सुविधाओं की चिंता करते हैं। सामाजिक और पर्यावरणीय जिम्मेदारियों की उपेक्षा आम प्रवृत्ति बन चुकी है।

व्यापारिक जगत में यह मानसिकता एकदम स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। बड़ी कंपनियां पर्यावरणीय नियमों की अनदेखी करते हुए मुनाफा कमाती हैं। उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं होती कि उनके उत्पादन प्रक्रियाओं से पर्यावरण को क्या नुकसान हो रहा है या श्रमिकों की स्थिति क्या है। उनका सारा ध्यान मुनाफा कमाने पर होता है और इसके बाद चाहे समाज में जो भी संकट आए, उन्हें फर्क नहीं पड़ता।

इस प्रकार की सोच, जो केवल व्यक्तिगत लाभ और तात्कालिक मुनाफे पर केंद्रित होती है, दीर्घकालिक रूप से समाज के लिए खतरनाक साबित होती है। जब समाज के बड़े हिस्से का ध्यान केवल अपने व्यक्तिगत हितों पर होता है, तो इससे असमानता, शोषण और सामाजिक अन्याय की प्रवृत्तियाँ बढ़ती हैं।

समाज में इस तरह की स्थिति को सुधारने के लिए नैतिक और समावेशी आर्थिक ढांचे की आवश्यकता है। जब तक आर्थिक तंत्र केवल मुनाफे के इर्द-गिर्द घूमता रहेगा, तब तक ‘मेरे बाद, जलप्रलय हो मुझे क्या!’ जैसी मानसिकता हावी रहेगी। इसका समाधान यह है कि कंपनियों और स्टार्टअप्स को अपनी सामाजिक और पर्यावरणीय जिम्मेदारियों को समझना होगा। उन्हें केवल मुनाफा कमाने पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय दीर्घकालिक स्थिरता और नैतिकता पर ध्यान देना चाहिए।

विज्ञापन और प्रचार को उत्पाद की गुणवत्ता और नैतिकता के साथ जोड़ा जाना चाहिए। कंपनियों को यह समझना होगा कि उपभोक्ताओं को केवल प्रचार के आधार पर प्रभावित करना दीर्घकालिक लाभदायक नहीं होता। उपभोक्ताओं के साथ स्थायी और विश्वासपूर्ण संबंध स्थापित करने के लिए आवश्यक है कि उत्पाद की गुणवत्ता और वास्तविकता के आधार पर उसे पेश किया जाए।

वित्तीय पूंजीपतियों को भी अपनी सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारियों को पहचानना होगा। आज की वैश्विक अर्थव्यवस्था में केवल लाभ और मुनाफा कमाना ही पर्याप्त नहीं है। अगर आर्थिक असमानता और शोषण को रोका नहीं गया, तो इससे समाज में भारी अस्थिरता और तनाव पैदा होगा, जो अंततः बड़े आर्थिक संकट की ओर ले जाएगा। ‘मेरे बाद, जलप्रलय हो मुझे क्या!’ की मानसिकता न केवल व्यक्तियों और कंपनियों के लिए हानिकारक है, बल्कि यह पूरी वैश्विक आर्थिक संरचना को भी खतरे में डालती है।

वित्तीय पूंजीपतियों द्वारा छोटे निवेशकों को धोखे से मुनाफे के जाल में फंसाने की प्रक्रिया केवल व्यक्तिगत नुकसान तक सीमित नहीं रहती। यह समाज में आर्थिक असमानता को बढ़ाती है, जो कि समाज के दीर्घकालिक विकास के लिए घातक है। जब बड़ी संख्या में छोटे निवेशक अपनी पूंजी खो देते हैं, तो इसका असर उनकी आर्थिक स्थिति पर सीधा पड़ता है। वे अपने परिवार और समुदाय को आर्थिक सुरक्षा देने में विफल हो जाते हैं, जिससे समाज के निचले तबकों में और अधिक गरीबी और बेरोजगारी फैलती है।

इस प्रकार की वित्तीय लूट से समाज के भीतर बड़ी खाई पैदा हो जाती है, जिसमें अमीर और अमीर होते जाते हैं, जबकि गरीबों की स्थिति और खराब होती जाती है। इसका परिणाम सामाजिक अस्थिरता के रूप में निकलता है, जहां गरीबी, अपराध और सामाजिक तनाव बढ़ते हैं।

इसके अलावा, जब कंपनियां और स्टार्टअप्स प्रचार और वित्तीय पूंजीपतियों के खेल में फंसकर गिरावट की ओर बढ़ते हैं, तो इससे उनके साथ जुड़े लाखों श्रमिक और कर्मचारी बेरोजगार हो जाते हैं। इसका असर न केवल व्यक्तिगत स्तर पर होता है, बल्कि पूरी अर्थव्यवस्था को झटका लगता है। बेरोजगारी बढ़ने से उपभोक्ता बाजार सिकुड़ता है और अर्थव्यवस्था में मंदी का खतरा बढ़ जाता है।

समाज में इस प्रकार की संकटपूर्ण स्थिति से बचने के लिए यह आवश्यक है कि ‘मेरे बाद, जलप्रलय हो मुझे क्या!’ की आत्म-केंद्रित मानसिकता का अंत हो। हमें नई आर्थिक और सामाजिक संरचना की ओर बढ़ना होगा, जो केवल मुनाफे पर आधारित न हो, बल्कि दीर्घकालिक स्थिरता और सामूहिक कल्याण पर आधारित हो।

कंपनियों को चाहिए कि वे अपनी सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारियों को समझें और उनके अनुसार कार्य करें। वित्तीय पूंजीपतियों को भी अपनी भूमिका को पुनः परिभाषित करना होगा। यह केवल उनके लिए ही नहीं, बल्कि समाज और भविष्य की पीढ़ियों के लिए भी आवश्यक है। अगर हम अपनी आर्थिक और सामाजिक संरचनाओं को इस मानसिकता से मुक्त नहीं करते, तो हम ऐसे भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं, जहां जलप्रलय सच में आ सकता है।

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