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समाज को प्रतिक्रियावादी स्थिति में धकेलती है प्राचीन युग की ओर लौटने की चाह

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मानव समाज में प्राचीन काल की पुनर्रचना की आकांक्षा प्रमुख विचारधारात्मक प्रवृत्ति रही है, जो समाज के वास्तविक परिवर्तन के मार्ग में अक्सर बाधा बन जाती है। इतिहास के किसी स्वर्णिम युग की पुनर्रचना करने की यह कोशिश न केवल आदर्शवादी होती है, बल्कि सामाजिक विकास की आवश्यकताओं के प्रति आंखें मूंद लेने का प्रतीक भी है।

यह विचार हमें ऐतिहासिक भौतिकवाद की समझ तक ले जाता है, जो यह बताता है कि समाज की आर्थिक और भौतिक परिस्थितियां ही उसके विकास को निर्धारित करती हैं। इतिहास में वापस लौटने की यह प्रवृत्ति, चाहे वह व्यक्तिगत हो या सामूहिक, समाज के वास्तविक परिवर्तन को रोकती है और उसे प्रतिक्रियावादी स्थिति में धकेल देती है।

इतिहास की पुनर्रचना या किसी अतीत के स्वर्ण युग में लौटने की इच्छा, समाज के मौजूदा संकटों का समाधान करने का कोई वास्तविक उपाय नहीं हो सकता। यह विचार उस भ्रांति को जन्म देता है कि अतीत के धार्मिक, सांस्कृतिक या राजनीतिक मूल्यों को अपनाकर वर्तमान समाज की समस्याओं का समाधान हो जाएगा।

वास्तव में, ऐसा सोचना केवल यथास्थिति को बनाए रखने और पूंजीवादी ढांचे को मजबूत करने का प्रयास है। इसके विपरीत समाज गतिशील इकाई है, जिसमें आर्थिक संरचनाओं का विकास और उनका परिवर्तन समाज के बुनियादी बदलावों को जन्म देता है।

इतिहास में अनेक बार यह देखा गया है कि अतीत में लौटने की इच्छाओं ने समाज को नकारात्मक दिशा में धकेला है। उदाहरण के लिए, यूरोप में प्यूरिटनों ने जब यह सोचा कि वे अमेरिका जाकर पिछले सत्रह शताब्दियों को भुला सकते हैं और बाइबल के स्वर्ण युग को पुनर्जीवित कर सकते हैं, तो उन्होंने समाज की वास्तविकता से पूरी तरह से आंखें मूंद लीं।

समाज के उत्पादन संबंधों और आर्थिक ढांचे को नजरअंदाज कर, केवल धार्मिक और नैतिक सिद्धांतों के आधार पर एक नई व्यवस्था कायम करने की यह कोशिश असफल रही। यह इस दृष्टिकोण को पुष्ट करता है कि किसी भी समाज की व्यवस्थाएं और विचारधाराएं उसके आर्थिक ढांचे का प्रतिबिंब होती हैं।

प्राचीन काल का समाज कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था पर निर्भर था और उस समय के नियम और नैतिकताएं उसी ढांचे से जुड़ी थीं। वर्तमान समय में पूंजीवादी ढांचा पूरी तरह से भिन्न है और पुराने आर्थिक ढांचों का पुनर्निर्माण असंभव है।

यहां यह समझना जरूरी है कि समाज की विकास प्रक्रिया एक सीधी रेखा में नहीं चलती, बल्कि यह जटिल, विरोधाभासी और गतिशील प्रक्रिया होती है। ऐतिहासिक भौतिकवाद के अनुसार, समाज के भीतर जो अंतर्विरोध पैदा होते हैं, वे समाज को नई अवस्था की ओर ले जाते हैं।

जब समाज के उत्पादन संबंधों में बदलाव की आवश्यकता होती है, तो पुराने ढांचे टूटने लगते हैं। उदाहरण के लिए, सामंती व्यवस्था का पतन और पूंजीवाद का उदय इसी प्रक्रिया का परिणाम था। जब एक व्यवस्था अपने अंतर्विरोधों के कारण अस्थिर हो जाती है, तो समाज एक नई व्यवस्था की ओर बढ़ता है।

इस संदर्भ में, अतीत की किसी पुरानी व्यवस्था को पुनर्जीवित करने का प्रयास केवल अस्थायी हो सकता है, क्योंकि वह समाज की विकास प्रक्रिया के खिलाफ जाता है।

इतिहास के पुनर्निर्माण की चाहत केवल प्रतिक्रियावादी तत्वों तक सीमित नहीं है। अक्सर समाज के प्रगतिशील हिस्सों में भी यह भ्रम होता है कि प्राचीन काल की आदर्श व्यवस्था को पुनर्जीवित किया जा सकता है। यह धारणा, हालांकि, वास्तविक सामाजिक विकास को नहीं समझती।

प्राचीन समाज की आर्थिक संरचना और उत्पादन संबंध आज के समाज से पूरी तरह से भिन्न थे। तब की सामंती व्यवस्था, स्थानीय उत्पादन और छोटे पैमाने की अर्थव्यवस्था आज के वैश्विक पूंजीवाद से बिल्कुल अलग थी। इसलिए, उस समय की नैतिकताएं और नियम आज के संदर्भ में अप्रासंगिक हो जाते हैं।

इतिहास का स्वर्णिम युग का आकर्षण अक्सर समाज में असुरक्षा की भावना से जुड़ा होता है। जब समाज में असमानता, शोषण और अव्यवस्था का विस्तार होता है, तब लोग अतीत के स्वर्णिम काल में लौटने की इच्छा रखते हैं। उन्हें यह लगता है कि अतीत में चीजें बेहतर थीं और वे उस दौर को पुनः स्थापित कर सकते हैं।

लेकिन यह धारणा केवल एक भ्रम है। समाज के वर्तमान संकटों का समाधान केवल वर्तमान आर्थिक संरचनाओं को बदलने से हो सकता है। अतीत की ओर पलायन, चाहे वह धार्मिक, सांस्कृतिक या राजनीतिक संदर्भ में हो, केवल सामाजिक विकास को अवरुद्ध करेगा।

यह बात भी महत्वपूर्ण है कि प्राचीन ग्रंथों और धार्मिक कथाओं का समाज के वास्तविक जीवन से कोई संबंध नहीं होता। प्राचीन महाकाव्यों में चाहे जितनी भी उज्ज्वल तस्वीरें खींची गई हों, वे केवल कल्पनाएं होती हैं। वे समाज के वास्तविक उत्पादन संबंधों और वर्ग संघर्षों का कोई ठोस प्रतिबिंब नहीं होतीं।

रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों में नैतिकता और धर्म के आदर्श चित्रित किए गए हैं, लेकिन उनका समाज की वास्तविक परिस्थितियों से कोई संबंध नहीं होता। इतिहास को इन ग्रंथों के आधार पर पुनर्निर्मित नहीं किया जा सकता।

समाज की संरचना उत्पादन संबंधों और वर्गीय संघर्षों के आधार पर होती है, न कि नैतिक आदर्शों के आधार पर। इसलिए, किसी भी ऐतिहासिक युग का पुनर्निर्माण असंभव है, क्योंकि वह युग उस समय की विशिष्ट आर्थिक संरचना का परिणाम था।

ऐतिहासिक भौतिकवाद का यह सिद्धांत समाज के हर क्षेत्र में लागू होता है। चाहे वह राजनीतिक संरचनाएं हों, सांस्कृतिक मान्यताएं हों या धार्मिक परंपराएं, सभी समाज की आर्थिक संरचना के आधार पर निर्मित होती हैं।

जब समाज की आर्थिक संरचना बदलती है, तो उसकी सभी व्यवस्थाएं भी बदल जाती हैं। इस दृष्टिकोण से, समाज को उसकी आर्थिक संरचना के आधार पर ही समझा जा सकता है।

अतीत की किसी व्यवस्था को आदर्श मानकर उसे पुनः स्थापित करने की कोशिश प्रतिक्रियावादी कदम है। यह समाज के विकास को अवरुद्ध करता है और उसे काल्पनिक स्थिति में धकेलता है। समाज को केवल उसके उत्पादन संबंधों के आधार पर ही बदला जा सकता है।

उत्पादन के साधनों पर समाज के नियंत्रण के बिना कोई भी सामाजिक परिवर्तन संभव नहीं है। अतीत की ओर लौटने की यह चाहत केवल समाज को नकारात्मक दिशा में धकेलती है और उसे वास्तविक प्रगति से दूर करती है।

इतिहास की पुनर्रचना के इस प्रयास में एक और महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि यह समाज की सामूहिकता के विचार के खिलाफ जाता है। समाज की प्रगति केवल सामूहिक संघर्ष और एकजुटता के माध्यम से ही संभव है।

अतीत की ओर लौटने की इच्छा अक्सर व्यक्तिगत आकांक्षाओं और धार्मिक आदर्शों से प्रेरित होती है, जो सामूहिक संघर्ष की आवश्यकता को नजरअंदाज करती हैं। समाज की वास्तविक प्रगति के लिए आवश्यक है कि सभी वर्ग मिलकर अपने शोषण और दमन के खिलाफ संघर्ष करें।

इसी सामूहिकता पर जोर होना चाहिए, जहां समाज के उत्पादन संबंधों को बदलने के लिए व्यापक सामाजिक आंदोलन की आवश्यकता होती है।

समाज के उत्पादन संबंधों को बदलने के लिए केवल आर्थिक संरचना का विश्लेषण पर्याप्त नहीं है, बल्कि इसके लिए वर्ग संघर्ष भी आवश्यक है। समाज के प्रत्येक वर्ग के अपने हित होते हैं और इन हितों के आधार पर समाज में संघर्ष होता है।

यह संघर्ष समाज की गतिशीलता का प्रतीक है, और इसी संघर्ष के माध्यम से समाज का विकास होता है। जब तक समाज में वर्ग विभाजन और आर्थिक असमानता रहेगी, तब तक संघर्ष अपरिहार्य होगा।

इतिहास की पुनर्रचना की यह इच्छा अक्सर इस संघर्ष को नजरअंदाज करती है और समाज को स्थिर बनाने की कोशिश करती है। लेकिन समाज की गतिशीलता को रोका नहीं जा सकता। समाज की वास्तविक प्रगति तभी संभव है जब उसका आधार मौजूदा आर्थिक संरचना हो, न कि अतीत के किसी स्वर्ण युग की कल्पना।

इसलिए, इतिहास की पुनर्रचना की यह आकांक्षा न केवल असंभव है, बल्कि समाज के विकास के मार्ग में एक बाधा भी है।

समाज की वास्तविक प्रगति केवल उसके उत्पादन संबंधों और वर्गीय संघर्षों के आधार पर ही संभव है। अतीत की ओर लौटने की यह चाहत केवल समाज को प्रतिक्रियावादी स्थिति में धकेलती है और उसे वास्तविक परिवर्तन से दूर करती है।

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