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कांग्रेस के लिए महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव टर्निंग पॉइंट !

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इसके संकेत भी दिखने लगे हैं। महाराष्ट्र की 288 विधानसभा सीटों पर अभी तक महाविकास अघाड़ी की ओर से कांग्रेस सबसे बड़े दल के तौर पर 105 सीटों पर चुनाव लड़ रही थी।

विदर्भ और मराठवाड़ा में पार्टी को लोकसभा में शानदार प्रदर्शन की बदौलत सबसे बेहतर स्थिति में माना जा रहा था। लेकिन शिवसेना (युबीटी) की ओर से विदर्भ की कुछ सीटों पर दावे से राज्य में खींचतान की स्थिति बन गई थी, जिसका तेजी से बुरा असर पड़ने लगा था।

अब बुधवार को प्रेस के साथ वार्ता में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष, नाना पटोले ने खुद आगे आकर जब बताया कि महाविकास अघाड़ी (एमवीए) के भीतर सीटों के बंटवारे के फार्मूले पर सहमति हो गई है, जिसके तहत तीनों दल (कांग्रेस, शिवसेना (यूबिटी) और एनसीपी (शरद पवार) कम से कम 85-85 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे, तो सहसा किसी को विश्वास नहीं हुआ।

अभी तक यही मानकर चला जा रहा था कि लोकसभा में 13+1 सीट जीतने वाली कांग्रेस कम से कम 105-110 सीट पर चुनाव लड़ेगी, जबकि शिवसेना (यूबिटी) के हिस्से में 85 और शरद पवार की एनसीपी के हिस्से में 70 के आसपास सीटें आएंगी। 

यह प्रदेश महाराष्ट्र कांग्रेस की बढ़ती महत्वाकांक्षा और मुख्यमंत्री की रेस में सबसे आगे दिखने का ही परिणाम था कि पिछले दो वर्षों से देश में मोदी राज को अपदस्थ करने के लिए गठित इंडिया गठबंधन के सारे किये-धरे को अपनी-अपनी पार्टी और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की बलिवेदी पर भेंट कर दिया।

और एक बार फिर से हरियाणा, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के प्रयोग को दोहराना था, जिसे कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने समय रहते कुचल दिया है।

कथित राष्ट्रीय मीडिया में इस खबर से सनसनी का आलम है, और उसकी ओर से इसे कांग्रेस के क्षेत्रीय दलों के आगे घुटने टेक देने के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है। जबकि हकीकत तो यह है कि कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने बहुत कुछ खोने के बाद यह फैसला लिया है।

अभी तक कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व को यही गुमान था कि पिछले चार-पांच दशकों में पैदा हुई अधिकांश क्षेत्रीय पार्टियां असल में उसी के गर्भ से निकली हैं, और उनके साथ किसी प्रकार की ढील अपने ही आधार को और खत्म करने की ओर ले जायेगा।

यह बात उत्तर प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र और बिहार में देखने को मिलती रही है, जबकि पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में वह अपनी नियति को स्वीकार कर चुकी है। मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड, हरियाणा, पंजाब, दिल्ली और छत्तीसगढ़ में तो उसने इंडिया गठबंधन के सहयोगी दलों को घास तक डालना उचित नहीं समझा।

लेकिन इसका बड़ा खामियाजा उसे एक के बाद एक राज्यों में भुगतना पड़ा, और हरियाणा राज्य विधानसभा में तो यह आम मतदाता तक को समझ आ गया। यही वह चुनाव है, जिसमें पीएम नरेंद्र मोदी तक ने हाथ-पांव मारना छोड़ दिया।

लेकिन इसके बावजूद कांग्रेस के भीतर नेताओं की महत्वाकांक्षा, आपसी भितरघात और बागी कांग्रेसियों के मैदान में उतरने के कारण कम से कम 25 सीटों का नुकसान पार्टी को भुगतना पड़ा है।

ऐसा लगता है कि केंद्रीय नेतृत्व ने भी एकमत होकर राष्ट्रीय लक्ष्य को ध्यान में रखकर कुछ कड़े फैसले लिए हैं। उदाहरण के लिए, जिस हरियाणा में भाजपा के नेताओं को सुनने के लिए भीड़ ही जमा नहीं हो रही थी, मतदान की तारीख आते-आते आखिर कैसे भाजपा पूरे चुनाव को जाट बनाम शेष में तब्दील कर पाने में सफल रही? 

70 के दशक के बाद से कांग्रेस का संगठनात्मक ढांचा खत्म होता चला गया 

लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के नेतृत्व में इंडिया गठबंधन को जो भी सफलता हासिल हो पाई है, उसके पीछे मोदी राज के 10 वर्षों के कुशासन, तानाशही रवैये और अल्पसंख्यकों, दलितों पर बढ़ते हमलों के साथ बेरोजगारी और महंगाई के मोर्चे पर बुरी तरह से विफलता को जाता है।

इन सभी मुद्दों पर कांग्रेस की ओर से राहुल गांधी ने लगातार आवाज उठाई। भारत जोड़ो यात्रा के माध्यम से कन्याकुमारी से कश्मीर और मणिपुर से मुंबई को नापा। 

इस यात्रा और ऊपरी पहल ने कांग्रेस को एक बार फिर से दलित, अल्पसंख्यक, आदिवासियों, गरीबों और महिला समुदाय के बीच प्रतिष्ठापित कर दिया। 2024 लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान और महाराष्ट्र में पार्टी को इसका लाभ भी मिला।

लेकिन उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में यह लाभ उसे क्षेत्रीय शक्तियों के साथ मजबूती से एकजुट होकर लड़ने की वजह से मिल सका है, जिसे उसे स्वीकार करना चाहिए। 

वर्ना अगर ऐसा नहीं होता तो डेढ़ साल पहले ही कर्नाटक में भारी जीत के बावजूद कांग्रेस क्यों लोकसभा में बड़ा उलटफेर करने में कामयाब नहीं हो पाई? या इसी तरह तेलंगाना में भी वह एकतरफा जीत हासिल करने से चूक गई, जबकि यहां पर तो हाल ही में विधानसभा चुनाव संपन्न हुए थे। 

इसकी सबसे बड़ी वजह यह निकलकर आती है कि संगठनात्मक लिहाज से कांग्रेस आज बेहद कमजोर है। कर्नाटक और तेलंगाना में कांग्रेस इसलिए जीतने में सफल रही क्योंकि इन दोनों राज्यों में ऐन मौके पर धड़ों में बंटी कांग्रेस को एकजुट किया जा सका और जनाक्रोश के मद्देनजर कांग्रेस सटीक नारों के साथ मैदान में उतरी थी।

आज हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की सरकार होने के बावजूद, पार्टी को भीतर और बाहर से महीने में एक-दो बार आराम से झकझोरा जा रहा है, और मुख्यमंत्री सुक्खू किसी तरह अपनी सरकार का समय निकालने की स्थिति में हैं।

कई समीक्षक इसे कांग्रेस के भीतर too much democracy नाम देते हैं, लेकिन पार्टी और जनाकांक्षा को मटियामेट कर अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए पार्टी में गुटबाजी या हिंदुत्वादी शक्तियों के भय से खुद भी वैसे ही कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने में लगे रहने वाले मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का इतना बुरा हाल कभी नहीं हो सकता था। 

राष्ट्रीय स्तर पर दोबारा से मजबूत संगठनात्मक ढांचे को खड़ा करने में कम से कम एक से दो दशक लग सकते हैं। इससे निपटने के लिए लगता है कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने अपनी क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं को पीछे रखने का मन बना लिया है।

इसके तहत राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय मुद्दों पर कांग्रेस की आधिकारिक लाइन और भाजपा के मुकाबले राष्ट्रीय नेतृत्व तो राज्यों के स्तर पर क्षेत्रीय दलों के साथ मजबूत गठबंधन स्थापित कर उन्हें आगे बढ़ाते हुए उनके साथ सह-अस्तित्व की नीति पर चलना एक विन-विन स्थिति को संभव बना सकती है।

महाराष्ट्र सहित उप-चुनावों में भी कांग्रेस की बदली रणनीति 

जून 2024 के मतप्रतिशत पर यदि गौर करें तो महाराष्ट्र में एमवीए और महायुती के बीच वोटों में कोई खास अंतर नहीं है। 2019 में मात्र एक लोकसभा सीट जीतने वाली कांग्रेस को 13+1 सीट हासिल हुई है, लेकिन उसके मत प्रतिशत में सिर्फ 0.51% की ही बढ़ोत्तरी हुई है। यह कमाल अपेक्षाकृत कम सीटों पर लड़कर, विपक्ष के मतों के एकजुट होने से ही संभव हो सका है। 

105 सीट के बजाय 85 सीट पर चुनाव लड़ने के लिए राजी कांग्रेस नेतृत्व ने महा विकास अघाड़ी के सामने अपने इरादे साफ़ कर दिए हैं कि उसका लक्ष्य हर हाल में महाराष्ट्र में स्पष्ट अंतर से जीत है। इसका सकारात्मक असर पूरे गठबंधन पर ही नहीं पड़ने वाला है, बल्कि समाजवादी पार्टी सहित अन्य छोटे दलों को भी गठबंधन में समायोजित करने की गुंजाइश बन गई है।

आम आदमी पार्टी को भी सीट देकर आज अघाड़ी भविष्य के कई किलों के लिए अपनी रणनीति को सही अंजाम देने की स्थिति में पहुंच सकती है।

दूसरी तरफ, महायुती है, जिसने सीटों के आवंटन में बाजी मार कर खुद को बेहतर दिखाने की कोशिश की थी, आज बुरी तरह से उलझी दिख रही है।

भाजपा किसी भी कीमत पर 150 सीटों से कम पर लड़ने को स्वीकार नहीं कर सकती। वहीं मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और उपमुख्यमंत्री अजित पवार की पार्टी का तो अस्तित्व ही इस बात पर टिका है कि वे न सिर्फ महाराष्ट्र की सत्ता में बने रहें, बल्कि उनके नेता ही राज्य के मुख्यमंत्री बनें।

आखिर जिस दावेदारी को अपने कब्जे में लेने के लिए बीजेपी, महाराष्ट्र, बिहार और ओड़िसा में पिछले कई दशकों से अपने साझीदार दलों के साथ आंख-मिचौनी खेलती आई है, वह भला शिवसेना और एनसीपी की ज़ेरॉक्स कॉपी के साथ ऐसा समझौता कैसे कर सकती है?

असल में कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व के इस साहसिक फैसले और त्याग से देश के आम मतदाता का भरोसा उस पर कई गुना बढ़ सकता है। यदि कांग्रेस को अपने क्षत्रपों की महत्वाकांक्षाओं को दबाने और जरूरत पड़े तो पार्टी से निकाल बाहर करने की हिम्मत दिखा सके तो राहुल गांधी पर बहुसंख्यक भारतीय का भरोसा बुलंदियों पर होगा।

और साथ ही समाजवादी पार्टी और आम आदमी पार्टी सहित तमाम क्षेत्रीय दलों के लिए भी एकजुट होकर एक बड़ी लड़ाई में मजबूती से एकजुट होने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा।

पूरे देश को जोड़ने और नफ़रत छोड़ मोहब्बत की राह पर चलने की सीख देने वाले राहुल गांधी को असल में जनता से नहीं पार्टी के भीतर गहराई से सफाई की जरूरत थी, जिसका आग़ाज कांग्रेस ने पहली बार महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के उप-चुनावों से कर दिया है। 

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