तन्वी मदान
साल 2017 में डोकलाम संकट को सुलझाने के लिए चीन के साथ हुए समझौते की घोषणा पर लोगों का रिएक्शन कैसा था और हाल में जब एक और करार हुआ तो देश के विभिन्न क्षेत्रों से कैसी प्रतिक्रिया देखने को मिली, इन दोनों के बीच तुलना दिलचस्प है। भारतीय अधिकारियों ने इस बार समझौते के बारे में बताते हुए ज्यादा सावधानी बरती। जनता की बात करें तो उसने इस महत्वपूर्ण कदम की सराहना की। माना गया कि यह भारतीय कूटनीति की क्षमता और वैश्विक परिस्थितियों का असर है। लेकिन, यह भी चेतावनी आई कि चीन पर भरोसा नहीं किया जा सकता।
नया रिश्ता
यह इस बात का संकेत है कि भविष्य में दिल्ली और पेइचिंग चाहे जो राह अपनाएं, वह 2020 से पहले वाला रास्ता नहीं होगा। चीन ने बार-बार रिश्ते को फिर से पटरी पर लाने की बात कही है, लेकिन पटरी को नुकसान भी उसने ही पहुंचाया है। जैसा कि भारतीय विदेश सचिव विक्रम मिस्री ने संकेत दिया, इस समझौते से एक नए रास्ते की संभावना खुलती है, लेकिन यह कैसे बनेगा और इसका अंतिम लक्ष्य क्या होगा, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि चीन अपने पुराने और नए वादों को कैसे निभाता है। फिर भी, चीन पहले ही भारत को बदल चुका है। यह संभव नहीं लगता कि उसकी नीतियों या कार्यों में कोई बड़ा बदलाव आए बिना रिश्ते पहले जैसे हो पाएंगे।
पुरानी चाल
हमें अब भी एकदम सही तरह से नहीं पता कि चीन ने 2020 में आक्रामक कदम क्यों उठाया या इस समय समझौता क्यों किया। हमें यह पता है कि उसने पिछले कुछ वर्षों में ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के साथ भी बिगड़े हुए संबंधों को स्थिर करने की कोशिश की है। विश्लेषकों का मानना है कि इसके पीछे वजह है उस पर पड़ता रणनीतिक और आर्थिक दबाव। इसका असर चीन के भीतर शी चिनफिंग के शासनकाल पर भी पड़ सकता है। भारत समेत दूसरे देशों के साथ उसकी बातचीत पुरानी चीनी नीति को दर्शाती है, जिसमें साझेदारों के बीच विभाजन पैदा कर गठबंधनों को संतुलित करने की कोशिश होती है।
भरोसे की कमी
LAC पर गतिरोध शुरू होने और इस समझौते तक पहुंचने के दौरान भारत हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठा रहा। उसने अपनी रक्षा क्षमता को मजबूत किया है। सीमा की स्थिति अब बदल चुकी है। वहां अब अधिक सैनिक, सैन्य साजो-सामान और इंफ्रास्ट्रक्चर मौजूद हैं। इसका एक कारण चीन के प्रति भरोसे की कमी भी है।
बदला नजरिया
चीन को पहले भारत के लक्ष्यों को हासिल करने में एक मददगार के रूप में देखा जाता था, लेकिन अब उसे एक रुकावट समझा जा रहा है। दोनों का रिश्ता पहले स्थिरता का स्रोत था और अब असुरक्षा का कारण है। जो आर्थिक संबंध पहले एक अवसर माने जाते थे, अब उन्हें कमजोरी के रूप में देखा जा रहा। पहले माना जाता था कि वैश्विक मंच पर भारत को उसकी सही जगह दिलाने में चीन मददगार है। हालांकि अब उसे हिंदुस्तान का मुख्य प्रतिस्पर्धी माना जाता है। ग्लोबल साउथ से लेकर BRICS तक, हर जगह यही हाल है। भारत की रणनीतिक स्वतंत्रता को बढ़ाने में सहायक होने की जगह आज चीन को इसमें एक बड़ी रुकावट माना जा रहा।
एक ही चिंता
साल 2014 के सीमा विवाद के बाद पिछले एक दशक में, खासकर 2020 के बाद, भारत के समान विचारधारा वाले देशों के साथ संबंध अभूतपूर्व ढंग से आगे बढ़े हैं। चीन को लेकर साझी चिंताओं ने भारत और कई दूसरे देशों के बीच नजदीकियां बढ़ाई हैं। सबसे बड़ा उदाहरण है भारत और अमेरिका के बीच रिश्ता। दोनों आज रक्षा, तकनीक, आर्थिक सुरक्षा और तमाम दूसरे मंचों पर साथ खड़े हैं।
सहयोगियों का साथ
यह गौर करने वाली बात है कि चीन के साथ संवेदनशील बातचीत के दौरान भी भारत ने अपने सहयोगियों के साथ कदमताल मिलाना बंद नहीं किया। चीन के साथ वार्ता चल रही थी, जबकि उसी दौरान पीएम नरेंद्र मोदी ने ताइवान के राष्ट्रपति लाई चिंग-ते से बात की, भारत में ताइवान का तीसरा प्रतिनिधि कार्यालय खुला, अमेरिकी सांसदों के प्रतिनिधिमंडल का स्वागत किया गया जिसने दलाई लामा से मुलाकात की, क्वॉड के शिखर सम्मेलन में भाग लिया और दक्षिण चीन सागर में चीन के आक्रामक रुख का कड़ा जवाब दिया गया। ऐसा लगता है, भारत अब यह नहीं मानता कि अमेरिका और दूसरे देशों के साथ गहरे रिश्तों से चीन संग बातचीत में रुकावट आएगी। भारत मान रहा है कि इससे चीन को बातचीत की मेज तक लाने में मदद मिलेगी।
अमेरिका का रुख
भारत के साझेदार, जैसे कि अमेरिका, इस हालिया समझौते से आश्चर्यचकित नहीं होंगे। लंबे समय से जाहिर था कि भारत और चीन के बीच गंभीर बातचीत चल रही है। वॉशिंगटन इसे तनाव कम करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम मानेगा, लेकिन पेइचिंग के पुराने रवैये को देखते हुए यह देखना चाहेगा कि क्या वास्तव में समझौते पर अमल होता है। अमेरिका ने भी चीन के साथ अपने संबंधों में एक न्यूनतम स्तर बनाए रखने की कोशिश की है। इसके अलावा, अमेरिका यह भी समझता है कि चीन के साथ भारत की सीमा साझा है और ऐसे में कुछ दूसरे दबाव भी हैं।
दोस्तों में संवाद
लेकिन, अमेरिका और दूसरे साझेदारों के मन में यह सवाल होगा कि चीन के साथ नए समझौते से उनके और भारत के रिश्तों पर कैसा असर पड़ेगा। भारत भी अमेरिका या ऑस्ट्रेलिया के साथ चीन की बातचीत को लेकर चिंतित रहता है। जिस तरह इन देशों को चीन के साथ अपनी बातचीत के बारे में भारत को बताना चाहिए, उसी तरह भारत को भी अपने साझेदारों को बताना चाहिए कि उसके और चीन के बीच क्या चल रहा है।
(लेखिका ने Fateful triangle: How China shaped US-India relations during the Cold War नाम से किताब लिखी है)
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