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आदिवासी चुका रहे हैं नक्सलवाद की कीमत

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अश्वनी शर्मा
छत्तीसगढ़ के बीजापुर में पिछले दिनों नक्सली मुठभेड़ में 22 जवान शहीद हो गए, एक कोबरा कमांडो भी पकड़ा गया। घटना के बाद गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि जवानों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा, पर सवाल यह है कि यह हिंसा आखिर थमेगी कब?

केंद्र में एनडीए सरकार के आने से पहले यूपीए सरकार ने भी नक्सल समस्या से निपटने के लिए ढेरों कदम उठाए थे। ऑपरेशन ग्रीन हंट चलाया, आदिवासियों के हाथ में बंदूकें तक दे डालीं, पर हुआ कुछ नहीं। तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने तो 5 दशकों से चली आ रही नक्सल समस्या को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती तक बताया था।

गृह मंत्रालय की 2018-19 की एक रिपोर्ट बताती है कि पिछले नौ सालों में दस राज्यों में हुई नक्सली हिंसा में 3,700 से अधिक लोग मारे गए। इसमें सबसे अधिक जानें छत्तीसगढ़ में गई हैं। अकेले वर्ष 2010 से दस राज्यों में हिंसा की 10,660 घटनाओं में 3,749 लोग मारे गए। 2010 से 2018 के बीच झारखंड में हुई 3,358 हिंसक घटनाओं में 997 की जान गई, जबकि बिहार में 1,526 वारदातों में 387 को जान गंवानी पड़ी। मंत्रालय ने ऐसी 88 फीसदी से अधिक घटनाओं के लिए सीपीआई (माओवादी) को जिम्मेदार ठहराया है। मगर आंकड़े और इतिहास बताता है कि इस समस्या को न तो पुलिस या फोर्स के जरिए सुलझाया जा सकता है, और न ही नक्सलियों के पास इसका कोई समाधान है। यह केवल बातचीत के जरिए ही सुलझ सकती है।

नक्सल समस्या की वजह से सबसे ज्यादा पीड़ित अगर कोई है तो वे हैं आदिवासी। इन्हें एक तरफ पुलिस और फोर्स, तो दूसरी तरफ नक्सली पीसते हैं। अगर वे पुलिस को कोई सूचना देते हैं, तो नक्सली उन्हें गांव में आकर मारते हैं। जब वे नक्सलियों को खाना-पानी देते हैं, तो पुलिस उनको उठा ले जाती है। अगर वे खाना न दें तो नक्सली उन्हें रहने नहीं देंगे।

बस्तर का जंगल 20 हजार वर्ग किलोमीटर में फैला है। यहां 4 आदिवासी समुदाय रहते हैं- गोंड, हल्बा, मुरिया और माड़िया। इनकी दो बोलियां हैं- गोंडी व हल्बी। ध्रुवा व भत्रा आदिवासी समुदाय जंगल के बाहर रहते हैं। सभी समुदायों की भाषा, बोली, पहनावा, खान-पान, आचार, व्यवहार, मान्यताएं सब अलग हैं। हर हफ्ते लगने वाले बाजार उनके जीवन और संस्कृति के केंद्र में हैं, क्योंकि इसी दिन जंगल के सब लोग आपस में मिलते हैं, दुख-दर्द साझा करते हैं। वे वहां जंगल से मिले या बनाए सामान लेकर आते हैं, आपस में बांटते भी हैं। यहीं उनके शादी-विवाह या फसल निकालने का दिन तय होता है। सार्वजनिक उत्सव की सूचना भी इसी साप्ताहिक हाट के जरिए दी जाती है। पर अब सरकार ने मिट्टी पर बैठने की 10 रुपये की पर्ची लगा दी है, तो आदिवासी साप्ताहिक हाट का विकल्प तलाश रहे हैं।

शिक्षा के नाम पर दिल्ली में आईएएस के कोचिंग इंस्टिट्यूट को करोड़ों रुपये के टेंडर जारी कर दिए। ये पैसा दंतेवाड़ा, सुकमा, बीजापुर आदि जिलों के सीएसआर का पैसा है, क्योंकि वहां माइनिंग होती है, और इसे वहीं लगना था। वर्ष 2017- 18 में जब मैं दंतेवाड़ा गया तो पता चला कि इन स्कूलों में ऐसे 1 फीसदी भी शिक्षक नहीं थे जो गोंडी या हल्बी जानते हों, वहीं आदिवासियों में एक फीसदी भी लोग नहीं थे, जो हिंदी समझते हों। जब आपसी संवाद है ही नहीं, तो शिक्षा क्या मिलेगी?

ऐसे ही सरकारें वहां सामूहिक विवाह करा रही हैं, दहेज में फ्रिज, कूलर, बेड दे रही हैं। अपनी सामाजिक बीमारियां आदिवासियों में भर रही हैं। आदिवासी जंगल पर जीते हैं, उन्हें बाजार में लाने की कोशिश हो रही है। आदिवासी कोदू, कुटकी और कुचाई जैसे मोटे अनाज और जंगली फल-सब्जियां यूज करते हैं, पर पिछले दो दशक से वहां फूल और केले की खेती कराई जा रही है, जिससे आदिवासियों का आत्मनिर्भर जीवनयापन का तरीका बर्बाद हो रहा है। और नक्सलवाद की समस्या भी कहीं न कहीं यहीं से शुरू होती है।

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