करीब दो दशक पहले तक मप्र विधानसभा को अन्य राज्यों में आदर्श विधानसभा के रूप में प्रस्तुत किया जाता था। क्योंकि सत्र पूरे समय चलते थे और काम भी खूब होते थे। लेकिन अब सत्र छोटे तो हो ही रहे हैं, पूरे समय चल भी नहीं पा रहे हैं। ऐसे में सवाल उठ रहा है कि क्या शीतकालीन सत्र से मप्र की आदर्श तस्वीर फिर लौटेगी।
भोपाल। मप्र विधानसभा का शीतकालीन सत्र 16 दिसंबर से शुरू है। 5 दिनों के इस सत्र के लिए सत्तापक्ष और विपक्ष ने जोरदार तैयारियां शुरू कर दी हैं। यह सत्र कितने दिन चलेगा इस पर कुछ कहा नहीं जा सकता। क्योंकि प्रदेश में विधानसभा सत्र की बैठकों की संख्या लगातार सिमटती जा रही है। उस पर स्थिति यह है कि विधायकों की निष्क्रियता के कारण जनहित के मुद्दे सदन में उठ नहीं पाते हैं। यहां बता दें कि विधानसभा सत्र के दौरान एक दिन के प्रश्नकाल पर तकरीबन 50 लाख रुपए खर्च होते हैं। लेकिन प्रश्नकाल हंगामे की भेंट चढ़ जाते हैं। एक दिन के प्रश्नकाल पर औसतन 50 लाख रु. तक व्यय आता है। ये राशि विधानसभा की एक दिन की बाकी कार्यवाही के कुल खर्च से भी ज्यादा है, क्योंकि सदन की हर घंटे की कार्यवाही 2.50 लाख रु. की पड़ती है। यदि 5 घंटे सदन चला तो कुल खर्च 12.50 लाख तक आता है।
गौरतलब है कि मप्र विधानसभा के सत्र में बैठकों की संख्या लगातार कम हो रही है। इस बार 16 दिसंबर से शुरू हो रहा शीतकालीन सत्र भी 5 दिनों का है। पिछले सत्रों में बैठकों की कम संख्या को देखते हुए सवाल उठ रहे हैं कि क्या ये सत्र भी पूरा चलेगा? उल्लेखनीय है कि मप्र विधानसभा का बजट सत्र 1 जुलाई से शुरू हुआ था। वित्त मंत्री जगदीश देवड़ा ने 3 जुलाई को बजट पेश किया। दो दिन बाद 5 जुलाई को बजट सत्र खत्म हो गया। इस दौरान बजट भी पास हो गया और बिना चर्चा के 6 विधेयक भी पारित हो गए, जबकि सत्र की अवधि 14 दिनों की तय हुई थी। इसे 19 जुलाई तक चलना था।
मप्र की विधानसभा को सबसे अच्छी विधानसभा माना जाता था, क्योंकि प्रदेश के विधायक पूरे मनोयोग के साथ न केवल सवाल पूछते थे, बल्कि एक-एक मुद्दे पर चर्चा भी करते थे, लेकिन यह परंपरा धीरे-धीरे क्षीण होती जा रही है। आंकड़ों पर नजर डालें तो 1998 से लेकर जुलाई 2024 तक इन 26 सालों में बैठकों की संख्या 93 प्रतिशत घट गई है। इसका सबसे ज्यादा नुकसान जनता का हो रहा है। विधानसभा के पूर्व मुख्य सचिव भगवानदेव इसरानी कहते हैं कि बैठकों का कम होना सबसे बड़ी चिंता की वजह है। विधानसभा जनहित के मुद्दे उठाने का सबसे प्रभावी मंच है। इसे लोकतंत्र का मंदिर कहते हैं। इसी जगह लोगों की बात नहीं रखी जाएगी तो उनका पहले से जो भरोसा कम हुआ है वो और कम होगा। इसरानी कहते हैं कि विधानसभा की बैठकों की कम होती संख्या का मुद्दा कई बार पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में उठ चुका है। वे कहते हैं कि साल 2003 में लोकसभा में ऐसा ही सम्मेलन हुआ था। जिसमें सभी राज्यों के विधानसभा अध्यक्ष और सचिवों ने हिस्सा लिया था। इसमें सुझाव आया कि संसद में 100 दिन की बैठकें होना चाहिए। मप्र, यूपी, राजस्थान जैसी बड़ी विधानसभाओं के लिए 75 बैठकों का सुझाव दिया गया। ये सब तय हुआ, लेकिन इस पर अमल नहीं हुआ। इसरानी कहते हैं कि संविधान में तीन सत्र आहूत करने का प्रावधान है, लेकिन बैठकों को लेकर संविधान साइलेंट है। संविधान की इसी कमजोरी का फायदा उठाया जाता है। मप्र का शासन, प्रशासन और यहां की विधानसभा अन्य राज्यों के लिए रोल मॉडल मानी जाती है, लेकिन पिछले दो दशक से मप्र के माननीयों का मन लोकतंत्र के मंदिर यानी विधानसभा में नहीं लग रहा है। शायद यही वजह है कि पिछले दो दशक से मप्र विधानसभा का कोई भी सत्र पूरा नहीं चला। हालांकि सत्र भले ही अधूरे रह गए, लेकिन उनमें काम पूरा हुआ।
10 प्रतिशत विधायक ही पूछ पाते हैं सवाल
1998 से लेकर जुलाई 2024 तक के आंकड़ों पर नजर डालें तो यह तथ्य सामने आता है कि सत्र के दौरान केवल 10 फीसदी विधायक ही सवाल पूछ पाते हैं। पिछले मानसून सत्र में 14 बैठकें होना थी, लेकिन सिर्फ 5 हुईं। इन पांच दिनों में तीन दिन प्रश्नकाल हुआ। एक दिन बजट और एक दिन पूर्व विधायकों के निधन के कारण प्रश्न काल नहीं हुआ था। तीन दिनों में 75 विधायक अपने सवालों का जवाब मंत्रियों से ले सकते थे, लेकिन 38 विधायकों ने मंत्रियों से सवाल-जवाब किए। यदि इस सत्र के दौरान निर्धारित 14 बैठकें होती और बिना व्यवधान के प्रश्नकाल होता तो 350 विधायक सवाल के जवाब मंत्रियों से ले सकते थे। यानी सिर्फ 10 फीसदी को ही जवाब मिला। आंकड़ें इस बात के भी संकेत देते हैं कि बजट सत्र को लेकर जनप्रतिनिधि गंभीर नहीं हैं। मप्र की 11वीं विधानसभा में दिग्विजय सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सरकार ने फरवरी-मार्च 1999 में बजट पेश किया था जो 52 दिन के सत्र का था। यह अब तक की पांच विधानसभाओं का सबसे ज्यादा बैठकों का बजट सत्र रहा है। इस सत्र की 31 बैठकों में बजट पर विधायकों ने चर्चा की और तब मध्य प्रदेश का बजट पारित हुआ था। इसके बाद से आज तक कभी भी 31 बैठकों का बजट सत्र नहीं रहा। दिग्विजय सरकार के इसके बाद के चार बजट सत्र भी 25 से 28 बैठकों वाले रहे। 15वीं विधानसभा आते-आते 22 साल में बजट जैसे गंभीर मामले में बैठकों की संख्या आठ से 13 के बीच रह गई। डॉ. मोहन सरकार ने मानसून सत्र (1 से 5 जुलाई) के दौरान मध्य प्रदेश का वर्ष 2024-25 का बजट (3 लाख 65 हजार करोड़ ) सदन में पेश किया था। इस दौरान सिर्फ पांच बैठकें हुई।
विधानसभा में इस बार 230 में से 70 नए विधायक हैं। इनमें से कांग्रेस के 24, भारत आदिवासी पार्टी का एक और भाजपा के 45 विधायक हैं। नए विधायक ज्यादा से ज्यादा सवाल करें इसके लिए विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष गिरीश गौतम ने एक प्रयोग किया था। उन्होंने व्यवस्था बनाई थी कि सत्र में एक दिन ऐसा होगा जब प्रश्नकाल के दौरान केवल नए विधायक ही सवाल पूछेंगे। साल 2023 के बजट सत्र के दौरान 15 मार्च को ऐसा पहली बार किया भी गया था। विधानसभा के पूर्व प्रमुख सचिव भगवान देव इसरानी कहते हैं कि जब सत्र की अवधि और बैठकों की संख्या कम होगी तो नए विधायकों को मौका कहां से मिलेगा। वे बताते हैं कि विधायक जो सवाल पूछते हैं उसका जवाब तैयार करने में विधायक, उसका स्टाफ, विधानसभा के स्टाफ का वेतन, संभाग और जिला स्तर पर होने वाला खर्च शामिल होता है। इस तरह एक सवाल का जवाब तैयार करने में औसत 50 हजार रुपए तक खर्च होते हें। कुछ सवालों के जवाब जुटाने में गांवों से भी जानकारी मंगाई जाती है। इनका खर्च 75 हजार से एक लाख रुपए तक चला जाता है।
आश्वासनों पर भी नहीं की गई कोई कार्यवाही
शीतकालीन सत्र की तैयारियों से जुड़े रिव्यू में सामने आया है कि विधायकों द्वारा पूछे गए सवालों के सरकार जवाब ही नहीं दे रही है। यदि दिए भी हैं तो वह भी अधूरे हैं। शून्यकाल में यदि किसी विधायक ने कुछ पूछा है तो वह भी पेंडिंग है। हैरान करने वाली बात है कि विधायकों के सवालों पर मंत्रियों की ओर से जो वादे-आश्वासन दिए जाते हैं और सिफारिशें होती हैं, वह भी सैकड़ों की संख्या में धूल खा रहे हैं। मुख्य सचिव अनुराग जैन ने विधानसभा से जुड़े मसलों को लेकर गुरुवार को मंत्रालय में मीटिंग की। इसमें विभागों के प्रमुख अधिकारी मौजूद रहे। बैठक में जैन ने कहा कि दिल्ली रहा हूं। वहां काफी एक्सरसाइज होती थी, तत्परता से काम करते थे। यहां तो शून्यकाल की सूचनाओं के जवाब भी पेंडिंग हैं। जैन ने यह भी कहा कि शीतकालीन सत्र में काफी विधेयक आने वाले हैं। इसकी तैयारी जल्द से जल्द हो। 10 दिसंबर को कैबिनेट की बैठक है। इसमें बिल को हरी झंडी मिलेगी। इस पर विधानसभा के प्रमुख सचिव एपी सिंह ने कहा कि 14-15 बिल आने हैं और तैयार 203 बिल ही हैं। आखिरी समय में बिल आते हैं तो उनके प्रकाशन के दौरान तथ्यों में गड़बड़ हो जाती है। सरकार चाहे तो विधानसभा को पहले बता दें कि वह कितने बिल ला रही है। मुख्य सचिव ने कहा, विधानसभा भी बड़े प्रश्नों से जुड़े मामलों को देखे। अनावश्यक उत्तर के चक्कर में लंबा वक्त और समय लगता है। सिंह ने कहा, इसका ध्यान रखेंगे। मप्र में शून्यकाल के जवाब भी सरकार में पेडिंग हैं। कुल 43 मामले हैं। सर्वाधिक 12 केस राजस्व महकमे के हैं। फिर पीडब्ल्यूडी की 6, पंचायत एवं ग्रामीण विकास व स्कूल शिक्षा की क्रमश: 4-4 शिकायतें हैं।
अगर आंकलन किया जाए तो यह तथ्य सामने आता है कि विधानसभा के सत्रों के दौरान जनहित के मुद्दों पर विधायक ठीक से चर्चा नहीं कर पा रहे हैं। विधानसभा के इसी मानसून सत्र में मप्र में खुले नलकूप में इंसानों के गिरने से होने वाली दुर्घटनाओं की रोकथाम और सुरक्षा विधेयक 2024 पारित हुआ। इस विधेयक में नलकूप की ड्रिलिंग की जिम्मेदारी तय करने के साथ भूमि स्वामी और ड्रिलिंग एजेंसी पर कार्रवाई तय करने का प्रावधान है। साथ ही खुले बोरवेल में या नलकूप के खिलाफ की गई शिकायतों के समाधान के लिए किसी सरकारी अधिकारी को कार्रवाई करने का अधिकार दिया गया है। मगर, जब ये विधेयक विधानसभा के पटल पर रखा गया तो इस पर ज्यादा बहस नहीं हुई। इसके समर्थन में पोहरी के कांग्रेस विधायक कैलाश कुशवाह ही बोले। सत्तापक्ष की तरफ से एक भी विधायक ने इस बहस में हिस्सा नहीं लिया। मंत्री के बोलने के बाद विधेयक सर्वसम्मति से पास हो गया। इसके बाद बजट की विभागीय अनुदान मांगों पर चर्चा नहीं हुई बल्कि सभी मांगों पर एक साथ चर्चा हुई। इस प्रक्रिया को गिलोटिन कहते हैं। विधानसभा के पूर्व प्रमुख सचिव भगवान देव इसराणी कहते हैं कि जब विभागीय अनुदान मांगों पर चर्चा होती है तो इसमें विधायक हिस्सा लेते हैं। चर्चा के दौरान वो संबंधित विभाग से जुड़ी अपने क्षेत्र की समस्याएं मंत्रियों के सामने रखते हैं। विभागीय मंत्री और अधिकारियों को भी मौका मिलता है अपने विभाग की उपलब्धि बताने का। इस बजट सत्र में जब विभागीय अनुदान मांगों पर एक साथ चर्चा हुई तो न विधायक को और न ही मंत्री को कुछ कहने का मौका मिला। ये लोकतंत्र के लिहाज से बिल्कुल ठीक नहीं है। इससे सबसे बड़ा नुकसान जनता का हो रहा है।
सत्र अधूरा…काम पूरा
वर्ष 2004 से लेकर 2024 के मानसून सत्र तक पिछले 20 साल में मप्र विधानसभा की 105 बैठकें आयोजित की गईं। लेकिन विडंबना यह है कि इनमें से मात्र 65 दिन ही विधानसभा चल सकी। हालांकि इस दौरान विधानसभा के सारे कामकाज निपटते रहे। ऐसा ही हाल ही में संपन्न इसी मप्र विधानसभा के मानसून सत्र में भी देखने को मिला। ये सत्र 1 जुलाई से शुरू होकर 19 जुलाई तक चलने वाला था, लेकिन अपने तय वक्त से 14 दिन पहले ही इसे स्थगित कर दिया गया। इस मानसून सत्र के दौरान मोहन सरकार के पहले पूर्ण कालिक बजट को पेश किया गया। तो वहीं नर्सिंग घोटाले की गूंज भी इस विधानसभा सत्र में सुनाई दी है। आपको बता दें कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, जब तय वक्त से पहले सत्र को स्थगित कर दिया गया हो, ऐसा पिछले 20 सालों से चला आ रहा है। इस सत्र में भी कई विधायकों के प्रश्न अधूरे रह गए हैं, जो प्रश्न विधायकों द्वारा अपने क्षेत्र को लेकर लगाए गए थे। इस विधानसभा सत्र में 4 हजार से अधिक प्रश्न लगाए गए थे, जिनमें से आधे भी प्रश्नों पर चर्चा नहीं की गई है। 5 दिन चले मानसून सत्र में सरकार ने कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए। इस विधानसभा सत्र के दौरान विधायकों, मंत्रियों, राज्य मंत्री, उप मंत्री या संसदीय सचिव को अब खुद ही इनकम टैक्स भरना होगा, जिसे पहले सरकार भरा करती थी। विधानसभा में गौ-वंश को की सुरक्षा को लेकर 7 साल की सजा का प्रावधान किया गया है। अब तक गौ-वंश की तस्करी में शामिल वाहन न्यायालय की मदद से छूट जाया करते थे। लेकिन अब उन्हें राजसात करने की कार्रवाई की जाएगी। मध्य प्रदेश में विश्वविद्यालयों में कुलपति का पद कुलगुरु के नाम से पुकारा जाएगा। खुले बोरवेल या नलकूप के खिलाफ शिकायतों के समाधान के लिए किसी सरकारी अधिकारी को कार्रवाई करने के अधिकार दिए गए हैं। पान मसाला की दुकानों का रजिस्ट्रेशन भी अनिवार्य है। ऐसा नहीं करने पर एक लाख रुपए की पेनाल्टी की व्यवस्था तय की गई है।
लगातार घट रही अवधि
पिछले 20 साल में एक बार भी बजट सत्र तय अवधि तक नहीं चल सका है। 19 जुलाई तक प्रस्तावित इस सत्र में 3 जुलाई को बजट पेश हुआ था। 4 जुलाई को बजट प्रस्तावों पर चर्चा शुरू हुई थी, जो देर शाम खत्म हुई। 5 जुलाई को भी बजट चर्चा हुई, जिसके बाद विपक्ष की आपत्तियों के बाद अनुदान मांगों के बाद बजट पारित कर दिया गया। फिर विनियोग प्रस्तावों पर चर्चा शाम तक चली। इसके बाद स्पीकर ने सदन की कार्यवाही अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दी। 1 से 19 जुलाई तक प्रस्तावित इस सत्र में कुल 14 बैठकें होनी थीं। 2004 के बाद से 20 सालों में ये सबसे छोटा बजट था। इससे पहले 2022 और 2023 में 13-13 बैठकों के बजट सत्र रखे गए थे। ये भी तय अवधि तक नहीं चल सके थे। साल 2020 में जब कमलनाथ सरकार संकट में थी, तब मार्च में रखा गया 17 बैठकों का बजट सिर्फ 2 बैठकों में ही खत्म हो गया था। 2011 में कुल प्रस्तावित 40 में से 24 बैठकें हुई थीं। 2004 में लोकसभा चुनाव के बाद जून-जुलाई में हुए बजट सत्र में 37 में से 18 बैठकें हुईं थीं। वहीं 2015 में कुल 24 में से सिर्फ 7 बैठकें हुईं। लगातार सत्रों की अवधि भी घटती रही है। 2004 में 37 बैठकों के सत्र की तुलना में 2024 में जुलाई सत्र महज 14 बैठकों का था। बजट सत्र में विभिन्न प्रस्ताव आने के बाद विधायक अपने सुझाव देते हैं। बीच में ही सत्र खत्म होने से विधायक अपनी बात नहीं रख पाते। संसदीय कार्य मंत्री कैलाश विजयवर्गीय का कहना है कि सत्रों की अवधि घटने का एक कारण ये भी है कि सरकार का बिजनेस अब इतना ज्यादा नहीं रहता और विधायक भी क्षेत्र में ज्यादा रहना चाहते हैं। कई बार इतने विधायक भी नहीं आते कि कोरम पूरा हो सके। वहीं नेता प्रतिपक्ष उमंग सिंघार का कहना है कि सरकार बार-बार कहती है कि सत्र लंबा खींचने लायक बिजनेस नहीं होता। ये सही नहीं है। लोकायुक्त की कई रिपोर्ट, विभागों और कमेटियों की रिपोर्ट लंबित है। इन्हें सरकार सदन में क्यों नहीं रखती। प्रश्नकाल भी बिजनेस है, जिसमें जनहित के मुद्दे आते हैं।
लोकतंत्र का मंदिर यानी संसद हो या विधानसभा, जनता के मुद्दों पर चर्चा, सवाल-जवाब और फिर निर्णय पर पहुंचना ही आदर्श संसदीय व्यवस्था है, लेकिन अब स्थितियां बदलती जा रही हैं। विधानसभा सत्रों में चर्चा के नाम पर हंगामा, विरोध और फिर कार्यवाही का स्थगन। बीते कई वर्षों में यही चिंताजनक ट्रेंड मध्य प्रदेश विधानसभा में दिखाई दे रहा है। अगर आंकड़ों को देखें तो मप्र में साल दर साल विधानसभा सत्रों की संख्या भी कम हो रही है। 12वीं विधानसभा में 275 दिन का कुल सत्र 159 दिन सत्र चला था। 13वीं विधानसभा में262 दिन के सत्र में 167 दिन सदन चला था। 14वी विधानसभा में 182 दिन के सत्र में 135 दिन सदन चला था। वहीं 15वीं विधानसभा में 132 दिन के सत्र में 83 दिन ही सदन चला था। मप्र की 16वीं विधानसभा का पहला सत्र दिसंबर 2023 में आयोजित किया गया था। 4 दिन का यह सत्र पूरे दिन चला। लेकिन बजट सत्र अधूरा ही रह गया। जारी अधिसूचना के अनुसार इस बार मध्य प्रदेश विधानसभा का सत्र 7 फरवरी से 19 फरवरी तक का था, लेकिन इसे 14 फरवरी की कार्यवाही के साथ स्थगित कर दिया गया। यह पहला मौका नहीं, जब मप्र विधानसभा का सत्र निर्धारित अवधि से पहले स्थगित किया गया। मप्र में पांच वर्षों से विधानसभा सत्र की अवधि सिमटती जा रही है। 15वीं विधानसभा में कोई भी सत्र पूरे दिन नहीं चला। वहीं 16वीं विधानसभा का पहला सत्र महज शपथ ग्रहण की औपचारिकता के लिए था। जबकि 7 फरवरी से शुरू हुआ बजट सत्र पूरे समय तक नहीं चल पाया। विधानसभा सत्रों में चर्चा के नाम पर हंगामा, विरोध और फिर कार्यवाही का स्थगन। बीते कई वर्षों में यही चिंताजनक ट्रेड मप्र विधानसभा में दिखाई दे रहा है। यह लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है। मप्र विधानसभा में हाल में हुए प्रबोधन कार्यक्रम में लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला ने सत्र की अवधि छोटे होने को लेकर चिंता जाहिर करते हुए लंबी अवधि के सत्र आयोजित किए जाने की बात कही थी, लेकिन मप्र विधानसभा में 13 दिन का बजट सत्र निर्धारित अवधि से पांच दिन पहले अनिश्चितकाल के लिए स्थगित हो गया।
सत्र छोटे…काम पूरे
विधानसभा के सत्र भले की आधे-अधूरे हो रहे हैं, लेकिन सरकार इस दौरान अपने सारे काम निपटा लेती है। 16वीं विधानसभा का बजट सत्र कुल 28 घंटे 9 मिनट चला और छह बैठकें हुईं। जिसमें विधायी, वित्तीय तथा लोक महत्व के अनेक कार्य संपन्न हुए। सदन ने अन्य वित्तीय कार्यों के अलावा वर्ष 2024-25 के वार्षिक वित्तीय विवरण पर चर्चा कर लेखानुदान पारित किया, वहीं वर्ष 2023-24 के द्वितीय अनुपूरक मांगों को स्वीकृति प्रदान की गई। सत्र में कुल 2,303 प्रश्न प्राप्त हुए। ध्यानाकर्षण की कुल 541 सूचनाएं प्राप्त हुई, जिनमें 40 सूचनाएं ग्राहय हुई। दरअसल, पक्ष हो या विपक्ष किसी की भी रुचि अब अधिक अवधि तक सत्र चलाने में नहीं रह गई है। सरकार का जोर इस बात पर रहता है कि विधायी कार्य पूरे हो जाएं। वहीं, विपक्ष शुरूआत से ही हंगामा करना प्रारंभ कर देता है। स्थिति अब तो यह बनने लगी है कि प्रश्नकाल तक पूरा नहीं हो पाता और अध्यक्ष को सदन की कार्यवाही बार-बार स्थगित करनी पड़ती है। सदन के सुचारू संचालन में पक्ष और विपक्ष की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। जाहिर है दोनों पक्ष इसके लिए एक-दूसरे को ही जिम्मेदार बताते हैं। पंद्रहवीं विधानसभा की बात करें, तो तीन सत्रों को छोडक़र पांच साल में अन्य कोई भी सत्र (बजट, मानसून और शीतकालीन) अपनी निर्धारित अवधि पूरी नहीं कर सका। यहां तक की बजट सत्र की बैठकें भी समय से पहले ही समाप्त हो गई, जबकि यह सबसे लंबा होने की परंपरा रही है। तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष श्रीनिवास तिवारी के समय लंबी अवधि के विधानसभा सत्र होते थे। बजट सत्र एक महीने से ज्यादा अवधि तक चलता था, लेकिन साल-दर-साल सत्रों की अवधि छोटी होती जा रही है। बड़ी तैयारी के साथ विधायक विधानसभा सत्र के लिए प्रश्न लगाते हैं। एक घंटे के प्रश्नकाल में 25 प्रश्नों का चयन लॉटरी के माध्यम से होता है। जिन सदस्यों के प्रश्न इसमें शामिल होते हैं, वे सदन में सरकार का उत्तर चाहते हैं और पूरक प्रश्न भी करते हैं। पर हंगामे के कारण प्रश्नकाल ही पूरा नहीं हो पा रहा है। इससे विधायकों के प्रश्न पूछने के अधिकार का हनन भी हो रहा है। अपनी बात रखने का उन्हें मौका भी कम मिल रहा है। इसे लेकर विधायक आपत्ति भी दर्ज करा चुके हैं। विधेयकों को लेकर भी स्थिति अलग नहीं है। इस दौरान अधिकतर विधेयक हगामे के बीच ध्वनिमत से चंद मिनटों में पारित हो जाते हैं।
दरअसल, सत्तापक्ष हो या विपक्ष किसी की भी रूचि अब अधिक अवधि तक सत्र चलाने में नहीं रह गई है। सरकार का जोर इस बात पर रहता है कि विधायी कार्य पूरे हो जाएं। वहीं, विपक्ष शुरुआत से ही हंगामा करना प्रारंभ कर देता है। स्थिति अब तो यह बनने लगी है कि प्रश्नकाल तक पूरा नहीं हो पाता और अध्यक्ष को सदन की कार्यवाही बार-बार स्थगित करनी पड़ती है। बजट सत्र में यही स्थिति बनी। इससे अध्यक्ष व्यथित भी नजर आए पर सदन के सुचारू संचालन में पक्ष और विपक्ष की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। जाहिर है दोनों पक्ष इसके लिए एक-दूसरे को ही जिम्मेदार बताते हैं। नेता प्रतिपक्ष उमंग सिंघार का आरोप है कि सरकार सदन में चर्चा कराने से भागती है। विपक्ष लोक महत्व के विषयों पर चर्चा करना चाहता है पर सत्तापक्ष हंगामा करने लगता है। भाजपा के मंत्री विश्वास सारंग कहते हैं कि कांग्रेस कभी जनहित के मुद्दों पर चर्चा नहीं करती। हंगामा करना ही इनका मकसद रहता है। जबकि, सदन का मंच हमें जनहित पर चर्चा करने के लिए दिया है और सबकी प्रक्रिया निर्धारित है। बड़ी तैयारी के साथ विधायक विधानसभा सत्र के लिए प्रश्न लगाते हैं। एक घंटे के प्रश्नकाल में 25 प्रश्नों का चयन लॉटरी के माध्यम से होता है। जिन सदस्यों के प्रश्न इसमें शामिल होते हैं वे सदन में सरकार का उत्तर चाहते हैं और पूरक प्रश्न भी करते हैं पर हंगामे के कारण प्रश्नकाल ही पूूरा नहीं हो पा रहा है। इससे विधायकों के प्रश्न पूछने के अधिकार का हनन भी हो रहा है। अपनी बात रखने का उन्हें मौका भी कम मिल रहा है। इसे लेकर विधायक आपत्ति भी दर्ज करा चुके हैं। विधेयकों को लेकर भी स्थिति अलग नहीं है। इस दौरान अधिकतर विधेेयक हंगामे के बीच ध्वनिमत से चंद मिनटों में पारित हो जाते हैं।
माननीय भी हालाकान
देश की संसद और राज्यों के विधानमंडलों में अगर जनता से जुड़े मुद्दे पर विचार-विमर्श करने, समस्याओं का हल निकालने और जनहित में नीतियां बनाने के क्रम में जनप्रतिनिधियों के बीच तीखी बहसें भी होती हैं, तो यह स्वाभाविक और जरूरी है। लेकिन मप्र विधानसभा में पिछले कई सत्र से यह देखने को मिल रहा है कि गैर जरूरी मुद्दे को लकीर बनाकर सत्तापक्ष और विपक्ष उसकी को पीटने में लगे रहते हैं और दो-चार दिन में ही सत्र का समापन कर दिया जाता है। जनता से संबंधित मुद्दों और समस्याओं पर कोई चर्चा नहीं हो पाती है। बजट सत्र समाप्त होने के बाद माननीय इस बाद पर चिंता जता रहे हैं कि सदन में वे जनता की आवाज नहीं उठा सके। दरअसल, विधानसभा सत्र के दौरान हर विधायक चाहता है कि उसका सवाल चर्चा में आए। माननीय अपने क्षेत्र में जाएं तो लोगों को बता सकें कि उन्होंने आपकी आवाज सदन में उठाई है। विपक्ष के सदस्यों को ज्यादा उम्मीद रहती है कि सरकार को घेरने से विकास के कार्य संभव होंगे या फिर भ्रष्टाचार के मामले में दोषियों पर कार्रवाई के निर्देश होंगे।
15वीं विधानसभा में बैठकों की स्थिति
सत्र –तय बैठकें- इतने दिन हुईं
जनवरी, 2019– 4–4
फरवरी, 2019– 4– 3
जुलार्ई, 2019– 17–13
दिसंबर, 2019– 4–4
मार्च, 2020– 17–2
मार्च, 2020–3–1
सितंबर, 2020– 3– 1
मार्च, 2021– 23– 13
अगस्त, 2021– 4– 2
दिसंबर, 2021– 5– 5
मार्च, 2022– 13– 8
सितंबर, 2022– 5– 3
दिसंबर, 2022–5–4
फरवरी-मार्च 2023—13–12
जुलाई 2023–5–2
-16वीं विधानसभा में बैठकों की स्थिति
दिसंबर, 2023–4– 4
फरवरी 2024–9–6
जुलाई 2024–14–5
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