राज वाल्मीकि
जेंडरिंग इक्वालिटी (भारत में महिला अधिकारों पर न्यायालय के निर्णय), जाति क्यों मायने रखती है (भारत में जातिगत भेदभाव पर न्यायालय के निर्णय), विकलांगता न्याय (भारत में विकलांगता अधिकारों पर न्यायालय के निर्णय) शीर्षक वाली इन पुस्तकों का विमोचन 16 दिसंबर 2024 को नई दिल्ली के कनॉट प्लेस स्थित ‘द ललित’ होटल में आयोजित कार्यक्रम में किया गया। ये पुस्तकें समानता पर न्यायालय के निर्णयों पर रिसोर्स पुस्तकें हैं।
‘’‘न्यायिक मामलों पर लिखी ये पुस्तकें लोगों के जीवन को आसान बनाने में मदद करेंगी, खासकर हाशिए पर पड़े लोगों के लिए जो जानकारी की कमी तथा शिक्षा की कमी के कारण अपने जीवन को विकसित करने में असमर्थ हैं।”
यह बात पुस्तक विमोचन कार्यक्रम में नई दिल्ली में जर्मन राजदूत श्री एच.ई. फिलिप एक्रेमैन ने कही। उन्होंने कहा कि ये पुस्तकें कानूनी पहलुओं के लिए भी सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए महत्वपूर्ण हैं।
यह कार्यक्रम सेंटर फॉर लॉ एंड पॉलिसी रिसर्च (CLPR) द्वारा आयोजित हुआ और नई दिल्ली में जर्मनी के संघीय गणराज्य के दूतावास के सहयोग से किया गया। CLPR कानून और नीति अनुसंधान, सामाजिक और शासन हस्तक्षेप तथा रणनीतिक प्रभाव के माध्यम से संविधान को सभी के लिए काम करने योग्य बनाने के लिए समर्पित संस्था है।
इस अवसर पर बोलते हुए माननीय दीपक गुप्ता (सेवानिवृत्त सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश) ने अपने मुख्य भाषण में कहा – “न्यायालय सामाजिक मानदंडों को नहीं बदल सकते; यह समाज के भीतर से आना चाहिए। लेकिन न्यायालयों को परिवर्तन को प्रोत्साहित करने और भेदभाव को हतोत्साहित करने के लिए उत्प्रेरक के रूप में कार्य करना चाहिए।”
उन्होंने कहा, “संविधान की प्रस्तावना सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय के बारे में बताती है। भारत के प्रत्येक नागरिक को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय पाने का अधिकार है। दूसरी ओर, स्थिति और अवसर की समानता है।
इसी प्रकार बंधुत्व व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता को सुनिश्चित करता है। जब हम अपने संविधान की प्रस्तावना पढ़ते हैं तो पाते हैं कि इसमें सभी मानवीय मूल्य हैं। हमारा संविधान मानवता से भरा हुआ है, लेकिन जमीनी हकीकत इससे बिलकुल अलग है, बड़ी संख्या में लोग अपने मूल अधिकारों से वंचित हैं। ऐसे में ये पुस्तकें हाशिए पर पड़े समुदाय के साथ काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं की मदद करेंगी।
हमारी सामाजिक संरचना असमानता पर आधारित है, जैसा कि अंबेडकर ने कहा था: “26 जनवरी 1950 को, हम विरोधाभासों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में हमारे पास समानता होगी और सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता। राजनीति में हम एक व्यक्ति एक वोट और एक वोट एक मूल्य के सिद्धांत को मान्यता देंगे।”
इसके अलावा, उन्होंने यह भी उद्धृत किया, “राजनीतिक लोकतंत्र तब तक नहीं टिक सकता जब तक कि सामाजिक लोकतंत्र का आधार न हो। सामाजिक लोकतंत्र का क्या मतलब है?
इसका मतलब है एक ऐसी जीवन शैली जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में पहचानती है। समानता के बिना, स्वतंत्रता बहुत से लोगों पर कुछ लोगों की सर्वोच्चता पैदा करेगी।”
उन्होंने चिंता जताई, “हम विरोधाभासों के इस जीवन को कब तक जीते रहेंगे? हमारे पास आज भी अस्पृश्यता, जातिगत भेदभाव, हाथ से मैला ढोने की प्रथा है। हम अंतरजातीय विवाह या अंतर-धार्मिक विवाह करने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं।
दलित परिवारों पर अत्याचार और ऑनर किलिंग आज भी हमारे समाज में मौजूद हैं और आम लोगों को प्रभावित करते हैं। इसलिए भाईचारा बहुत जरूरी है। समाज को यह समझने की जरूरत है कि सभी इंसान बराबर हैं।
हमदर्द इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस एंड रिसर्च की प्रोफेसर डॉ. अक्सा शेख ने कहा-“कानून तक पहुंच में कई बाधाएं हैं। कई सामाजिक समुदाय ट्रांसजेंडर के तौर पर न्याय पाने में असमर्थ हैं।
वे न्याय के लिए अदालतों तक पहुंच नहीं पाते, इसके लिए नागरिक समाज ज्यादा जिम्मेदार है। ज्यादातर कानून कागजों पर ही रह जाते हैं, इन कानूनों को लागू किया जाना चाहिए।” डॉ. शेख ट्रांसजेंडर अधिकार कार्यकर्ता भी हैं।
इस अवसर बोलते हुए नेशनल कैंपेन ऑन दलित ह्यूमन राइट्स (एनसीडीएचआर) की निदेशक बीना पल्लीकल ने कहा – “हम दलित और आदिवासी के लिए न्याय की उम्मीद कैसे कर सकते हैं, यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के सीजेआई (डी.वाई. चंद्रचूड़) भी भगवान की मर्जी से फैसला लेते हैं।
हमारी न्यायपालिका जातिवाद से ग्रसित है। हमारे जजों की मानसिकता जातिवादी है। दलितों पर अत्याचार के कई मामले दशकों से अदालतों में लंबित हैं। न्याय में देरी होती है ऐसे में न्याय न मिलना आम बात है। हमें सिर्फ तारीख पर तारीख मिलती है। त्वरित न्याय के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट की जरूरत है।
हमारी अदालतें कानून बनाती हैं, लेकिन ये कानून ज़मीन पर लागू नहीं होते। ज़मीनी हकीकत इससे बिलकुल अलग है। उदाहरण के लिए, हाथ से मैला ढोने की प्रथा कानून के अनुसार प्रतिबंधित है, लेकिन फिर भी हमारे देश में यह प्रथा जारी है।
यह अमानवीय और जघन्य प्रथा है और नागरिकों की गरिमा के खिलाफ़ है। अगर हमारे समाज के लोग, खास तौर पर दलित, हाथ से मैला ढोने में शामिल हैं, तो संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार लोगों को गरिमा के साथ जीने का अधिकार कैसे मिल सकता है।”
भारत के सर्वोच्च न्यायालय की वरिष्ठ अधिवक्ता मीनाक्षी अरोड़ा ने कार्यस्थल पर यौन हिंसा का मुद्दा उठाया। उन्होंने विशाखा का उदाहरण दिया। साथ ही, उन्होंने यौन उत्पीड़न की शिकार एक महिला का अनुभव साझा किया। उसके सहकर्मी आरोपी के खिलाफ़ मामला दर्ज करने के बाद सहयोग नहीं कर रहे थे।
उन्होंने कहा कि हमारे सामाजिक ढांचे के कारण यह बहुत मुश्किल है। इसके बावजूद हमें निराश नहीं होना चाहिए, न्याय पाने के लिए हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। निरंतर प्रयासों के बाद ही व्यक्ति को न्याय मिल सकता है।
डॉ. सतेंद्र सिंह, प्रोफेसर निदेशक यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ मेडिकल साइंसेज और जी.टी.बी. अस्पताल, दिल्ली ने भी पैनल चर्चा में भाग लिया और वक्ताओं और श्रोताओं के प्रश्नों के उत्तर दिए।
संक्षेप में कहें तो पुस्तक विमोचन कार्यक्रम और पैनल चर्चा श्रोताओं के लिए लाभदायक रही। उन्हें कानून और न्याय की जमीनी हकीकत के बारे में कई नई बातें पता चलीं।
हम कह सकते हैं कि कानून में कुछ खामियां हो सकती हैं। हमारी न्याय व्यवस्था में खामियां हो सकती हैं, लेकिन हम किसी एक पहलू को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। हमारी सामाजिक व्यवस्था, राजनीतिक व्यवस्था, नागरिक समाज और अन्य कानून को लागू करने में बाधा बनते हैं।
निसंदेह ये पुस्तकें सामाजिक कार्यकर्ताओं, कानून के छात्रों और कानूनी कार्यकर्ताओं के लिए उपयोगी होंगी। निश्चित रूप से, ये पुस्तकें उन्हें पथप्रदर्शक की तरह रास्ता दिखाएंगी।
सामान्य तौर पर, यह कहा जा सकता है कि कानून अच्छे हैं, लेकिन इन कानूनों को लागू करने के लिए जिम्मेदार लोग इतने ईमानदार नहीं हैं। वे ईमानदारी से कानूनों को लागू नहीं कर रहे हैं। उनकी मानसिकता भेदभावपूर्ण है। यही मुख्य कारण है कि कागजों पर तो कानून सबके लिए समान हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर निष्पक्षता से लागू नहीं हो रहे हैं।
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