स्वदेश कुमार सिन्हा
दिसम्बर में जब मैं कुछ पुस्तकों को पोस्ट करने पोस्ट ऑफिस गया,तो पता लगा कि डाक विभाग ने सस्ती रजिस्टर बुक पोस्ट सेवा समाप्त कर दी है तथा इसे एक नया नाम दिया गया है, जिसकी दरें पार्सल से तो कम होगी, लेकिन अब तक जारी बुक पोस्ट के मुक़ाबले क़रीब ढाई से तीन गुना ज़्यादा होगी।
अभी पिछले साल ही नवम्बर में सभी डाक सेवाओं पर 18% जीएसटी लगा दिया गया था, जिससे डाक से पुस्तकें भेजना पहले ही से काफ़ी महंगा हो गया था।
वैसे ही यह ख़बर आपको किसी अख़बार में शायद ही दिखाई दे। काफ़ी ढूंढने के बाद मुझे मलयालम मनोरमा में छोटा सा समाचार मिला। पोस्ट ऑफिस वाले बता रहे थे कि पोस्ट सेवा की वेबसाइट से ही बुक पोस्ट हटा दिया गया है।
कहने की ज़रूरत नहीं है कि अब छोटे प्रकाशकों, पुस्तक विक्रेताओं, लेखकों और सम्पादकों के लिए किताबें डाक से भेजना बहुत मुश्किल हो जाएगा। इसका सबसे ज़्यादा प्रभाव छोटे और गैर-व्यवसायिक प्रकाशकों और पत्र-पत्रिकाओं पर पड़ना है, जो पहले ही से कागज़ और छपाई की अत्यधिक मूल्यवृद्धि के कारण बेतहाशा बढ़ती कीमतों से जूझ रहे हैं।
मेरे लिए यह ख़बर कोई बहुत आश्चर्यजनक नहीं थी, क्योंकि देश भर में जो निजीकरण की आंधी चल रही है, उसमें रेलवे तथा बैंकिंग सेक्टर की तरह लम्बे समय से भारतीय डाक विभाग का भी निजीकरण करके उसे पूर्णतः प्राइवेट कंपनियों को सौंपने का उपक्रम लगातार जारी है।
एक तरफ़ कीमतें बढ़ाई जा रही हैं, दूसरी तरफ़ पिछले कुछ सालों से डाक सेवाओं को पूरी तरह से तबाह किया गया है। नयी नियुक्तियां बिलकुल बंद हैं। अधिकाधिक काम ठेकों पर कराए जा रहे हैं, इसलिए कर्मचारियों पर काम का बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है।
इस सम्बन्ध में एक उदाहरण देना चाहूंगा-दिल्ली में मयूर विहार फेज 3 में जहां मैं रहता हूं, वहां के पोस्ट मास्टर के अनुसार; यहां 4000 से अधिक बचत खाते हैं और स्टाफ केवल तीन हैं, जिसमें एक दफ़्तरी को छोड़ दिया जाए, तो केवल दो आदमी इतने सारे खातों तथा अन्य डाक व्यवस्थाओं को संभालते हैं, जबकि दो वर्ष पहले यहां पर 6 लोगों का स्टाफ था।
उनके रिटायर होने के बाद नयी नियुक्तियां नहीं हुईं। यही कारण है,कि यहां लम्बे समय से इस पोस्ट ऑफिस में बुक पोस्ट नहीं होता। अगल-बगल के नोएडा-गाज़ियाबाद के पोस्ट ऑफिसों का यही हाल है। ये लोग कहते हैं कि उनके पास खुद ही अपने काम का बहुत दबाव है, इसलिए वे दिल्ली के पैकेटों को पोस्ट नहीं करेंगे।
मुझे खुद अगल-बगल पोस्ट ऑफिस होने के बावज़ूद दिल्ली में ही दूर पोस्ट ऑफिस में पोस्ट करने जाना पड़ता है।
भारतीय डाक सेवा की स्थापना के क़रीब 166 साल बीत गए। 1 अक्टूबर 1954 को तत्कालीन भारतीय वायसराय लार्ड डलहौजी ने इस सेवा का केन्द्रीकरण किया था। उस वक्त ईस्ट इंडिया कंपनी के अंतर्गत आने वाले 701 डाकघरों को मिलाकर भारतीय डाक विभाग की स्थापना हुई थी।
वारेन हेस्टिंग्स ने कोलकाता में प्रथम डाकघर वर्ष 1774 में स्थापित किया था। अंग्रेजी राज में ही पूरे देश में डाक सेवा का जाल बिछाया गया। सूदूर ग्रामीण, पर्वतीय और रेगिस्तानी इलाक़ों तक में डाकघरों की स्थापना की गई। आज़ादी के बाद डाक और टेलीग्राम सेवा का काफ़ी विस्तार हुआ।
लद्दाख में देश के अंतिम गांव तक; जहां आबादी बहुत कम है, वहां भी डाक-तार विभाग की स्थापना की गई।
दुर्गम पर्वतीय इलाक़ों में जहां की आबादी बहुत कम है, वहां भी पत्र पहुंचाने पोस्टमैन जाते थे। गांव में तो पोस्टमैन से एक आत्मीय रिश्ता तक बन जाता था, क्योंकि जब साक्षरता कम थी, तब पोस्टमैन ही चिट्ठी लिखते भी थे और पढ़कर सुनाते भी थे।
सुख-दु:ख की ख़बर पहुंचाने के लिए टेलीग्राम की बहुत उपयोगिता थी, हालांकि 14 जनवरी 2013 को टेलीग्राम सर्विस बंद कर दी गई।
इसके लिए यह तर्क दिया गया कि मोबाइल और ई-मेल आ जाने के बाद इसकी उपयोगिता अब समाप्त हो गई है, हालांकि बहुत से विकसित देशों तक में यह सेवा अभी भी चल रही है। मुझे संस्मरण है कि पहले बहुत ज़रूरी कागज़ात रजिस्टर डाक से भेजे जाते थे। मैं खुद गोरखपुर से दिल्ली के अख़बारों में छपने के लिए लेख साधारण लिफाफे में रखकर भेज देता था।
वह दो-तीन में पहुंच जाता था, शायद ही कोई पत्र गायब हुआ हो। दिल्ली में एक लेखक और सम्पादक बता रहे थे कि दिल्ली में एक दिन में दो बार पत्र बांटे जाते थे। रक्षाबंधन और नववर्ष के अवसर पर राखियां तथा शुभकमना संदेश पहुंचाने के लिए अस्थायी पोस्टमैन तक रखे जाते थे। आज हालात ये हैं कि रजिस्टर डाक दिल्ली तक में दो-तीन दिन में मिलती है।
जब स्पीड पोस्ट की शुरूआत हुई, तब यह कहा गया कि देश के किसी भी कोने में पत्र 24 घंटे में पहुंच जाएगा। उस समय रात में भी स्पीड पोस्ट पहुंचाने के लिए घरों तक डाक विभाग की गाड़ी आती थी। अब रजिस्टर पोस्ट और स्पीड पोस्ट में कोई अन्तर नहीं रह गया है। अब चौबीस घंटे तक छोड़िए, दो-तीन दिन तक एक ही शहर में स्पीड पोस्ट पहुंच जाए, तो बहुत बड़ी बात है।
अकसर ऐसा होता है कि रजिस्टर पैकेट पोस्ट ऑफिस में पड़े रहते हैं, पोस्ट ऑफिस से पता लगता है कि इसको वितरित करने वाला पोस्टमैन नहीं है, आप चाहें तो आकर अपने पैकेट ले जाएं। मैं तो अकसर अपने पैकेट लेने के लिए पोस्ट ऑफिस जाता हूं।
टेक्नोलॉजी का विकास होने के साथ-साथ निश्चित रूप से लोग पत्र कम लिख रहे हैं, फ़िर भी डाकघर का महत्त्व अभी भी कम नहीं हुआ है।
सरकारी और प्राइवेट सेक्टर की ढेरों डाक सामग्री डाकघरों से जाती है, लेकिन सरकार ने योजना के तहत अब डाक विभाग की स्थिति ऐसी कर दी है कि अब तो सरकारी विभाग भी डाकघरों से मुख मोड़ रहे हैं और अपनी सामग्री प्राइवेट कोरियर सर्विस से भेज रहे हैं।
आजकल अधिकांश सरकारी और प्राइवेट बैंक चेकबुक, एटीएम कार्ड आदि सामग्री प्राइवेट कोरियर सर्विस से ही भेज रहे हैं। धीरे-धीरे ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि डाक सेवाओं का पूरी तरह से निजीकरण कर दिया जाए।
अब सरकार का सारा ध्यान डाकघर के बैंकिंग सेक्टर पर है, इससे सम्बन्धित ढेरों योजनाएं आ रही हैं तथा बचे-खुचे कर्मचारी उसी के कामों में लगे रहते हैं। बैंकों की तरह डाकघर में भी नियुक्तियां बंद हैं तथा ठेके पर ही कर्मचारी रखे जा रहे हैं।
डाक सेवाओं का निजीकरण बड़ी कोरियर कंपनियों को फ़ायदा पहुंचाने के लिए किया जा रहा है। जो लिफाफा देश के किसी भी भाग में पांच या दस रुपए में पहुंच जाता था, अब उसे कोई भी कोरियर सौ रुपए से कम में नहीं पहुंचाता है। डाक सेवाओं के निजीकरण से सबसे ज़्यादा नुकसान देश के ग्रामीण इलाक़ों का हुआ है।
वहां सस्ते में पत्र और किताबें पहुंचाना अब असम्भव हो गया है, क्योंकि अधिकांश बड़ी कोरियर कंपनियों की पहुंच गांव तक नहीं है।
वास्तव में उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों से समाज के छोटे-मझोले और ग़रीब तबकों की ही तबाही और बरबादी हो रही है। डाक सेवाओं के निजीकरण से इन्हीं तबकों के छोटे व्यापारियों, प्रकाशकों और पुस्तक विक्रेताओं का भविष्य ख़तरे में पड़ गया है।(
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