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राजतंत्र के राजाओं से आगे हैं लोकतंत्र के राजा

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        पुष्पा गुप्ता 

प्राचीन काल के “राजा और प्रजा” ने आजकल जनता-जनार्दन और जनप्रतिनिधि का रूप धारण कर लिया है। प्रजा के मन में हमेशा से राजा के प्रति जिज्ञासा रही है। कारण दोनों की बीच दूरी रही है। राजा ऊंचे पहाड़ों पर बने महलों में रहते थे। खास मौकों पर ही जनता के बीच आते थे। आम लोगों के लिए उनसे मिलना असंभव नहीं तो बहुत कठिन था। अनेकानेक सुरक्षा चक्रों को पार करके उन तक पहुँच पाना हो सकता था। उसमें भी नज़र नीचे, जबां बंद, बहस करने का विचार भी नहीं था। हुक्म मानना ही एकमात्र विकल्प हुआ करता था।

राजा क्या खाता है, क्या पहनता है, किसके साथ सोता है, दिनचर्या क्या है, कितनी धन सम्पदा का मालिक है। कहां से कितनी आय होती है और कहां खर्च होती है। यह सब बाते आम लोगों की सूचना की परिधि से बाहर था।

    यही हाल अंग्रेज शासकों का था। बड़े-बड़े महल जहां पहले राजा लोग रहते थे वहां अंग्रेज राजा आ गए।  जो कमी बेशी थी वह नये नये गवर्नर हाऊस, सर्किट हाउस और महल बनवा कर पूरी हो गई। 

     जब मुल्क आज़ाद हुआ तो पुराने किले, महल और जगहें आम जनता के लिए खुल गए।  तब लोगों को पता लगा कि यह राजा महाराजा लोग कितनी शानो-शौकत और अय्याशी भरी ज़िन्दगी जीते हैं। और हमारे ग़रीब पूर्वज कितनी ग़रीबी और बदहाली की ज़िन्दगी जीते रहे। गांव में जमींदार, कस्बों में जागीरदार और शहरों में अमीर उमराव, नव्वाब सब छोटे-मोटे राजा ही थे।

हिन्दू धर्म में ब्राह्मणों ने राजा को ईश्वर कहा और उसके हर आदेश को ईश्वर का फरमान बताया। इसलिए गरीब जनता राजा की पूजा करती थी। सभी हिन्दू देवी देवता और भगवान कहीं ना कहीं के राजा ही रहे हैं।

     लेकिन समय के साथ सब बदला। लोगों को पता लगने लगा कि राजा कोई ईश्वर का प्रतिनिधि नहीं है। वह भी एक साधारण आदमी है जिसमें हर तरह के विषय विकार हैं जो किसी मामूली इंसान में होते हैं। वह अपनी महत्वाकांशा की पूर्ति के लिए अपने परिजनों की हत्या करवा सकता है। वेश्यागमन कर सकता है। छल प्रपंच रच सकता है। राजसी लोगों के प्रति सम्मान की जगह घृणा ने ले ली।

आज़ादी से पहले राजतंत्र की जगह लोकतंत्र की बात होने लगी। राजा समाप्त हो गए तो लोकतंत्र की स्थापना हुई।  राजा जन्म से नहीं बल्कि लोक प्रतिनिधित्व से तय होने लगा। लोग राजा का चुनाव करने के लिए वोट करने लगे। राज्य व्यवस्था संविधान, न्यायपालिका और संसदीय से चलने लगी। जैसा होता है कि नाम बदल जाते हैं लेकिन व्यवस्था नहीं बदलती। राजा की जगह प्रधान मंत्री हो गए और जागीरदारों की जगह मुख्यमंत्री आ गये। 

    यह नयी व्यवस्था के नये नये राजा अपने लिए सुख सुविधाएं जुटाने में लग गए।  कानून बनाकर जनता के टैक्स के पैसे को अपने अंहकार की पुष्टि करने में लग गए।  अपने लिए आलीशान महल नुमा घर, अकूत सम्पत्ति हासिल करने में लगे हैं। चुनाव जीतने के लिए एक दूसरे की पोलपट्टी खोलने लगे। एक कहता है कि प्रधानमंत्री ने अपने लिए इतने हजार करोड़ रुपए का “राजमहल” बनवाया और एय्याशी का सामान जुटाया। दूसरी तरफ मुख्य मंत्री ने इतने सौ करोड़ रुपए का “शीशमहल” बनवाया। अपनी सफाई में दोनों कह रहें हैं कि हमने अकेले ही यह सब नहीं किया सब कर रहें हैं। मंत्री, प्रधानमंत्री क्या, आप सांसदों – विधायकों के ठाठबाट ही देख लीजिए.

  जनता की समस्याएं, चिन्ताएं, आकांक्षाएं और अपेक्षायें सब दब कर रह गई हैं। जनता सोच में है कि किस स्तर के भ्रष्टाचार को चयनित करें। पिछले 70-75 के अनुभव से एक बात तो स्पष्ट है कि राजा चाहे चुनाव से हो या जन्म से होता भ्रष्टाचार से लिप्त ही है।

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