8 जनवरी 2025 को मुंबई हाई कोर्ट ने एल्गार परिषद-भीमा कोरेगांव मामले में गिरफ्तार कार्यकर्ता रोना विल्सन और सुधीर धवले को जमानत पर रिहा करने के आदेश दे दिए हैं। उम्मीद की जा रही है कि अगले सप्ताह ये दोनों सामाजिक कार्यकर्ता जेल से रिहा कर दिए जाएंगे।
इसकी वजह यह है कि बंबई हाई कोर्ट ने उन्हें लगभग छह वर्ष तक ट्रायल-पूर्व कैद और मुकदमे के जल्द खत्म होने की दूर-दूर तक कोई संभावना न होने के मद्देनजर यह फैसला सुनाया है।
भीमा कोरेगांव मामले में कुल 16 नामचीन हस्तियों को महाराष्ट्र की तलोजा सेंट्रल जेल में रखा गया। इनमें से कुछ को अदालत ने सशर्त जमानत पर रिहा कर दिया, 84 वर्षीय, फादर स्टेन स्वामी जो कि पार्किन्सन रोग से पीड़ित थे, की जेल के भीतर ही कोरोना की बीमारी से निधन हो गया।
देशद्रोह, राज्य-सत्ता को उखाड़ फेंकने के षड्यंत्र ही नहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या की साजिश रचने जैसे आरोप लगाकर इन लोगों के जीवन को लगभग खत्म किया जा चुका है। ये सभी आरोप बेहद संगीन हैं, लेकिन विडंबना देखिये कि देश की सबसे अधिकार संपन्न जांच एजेंसियां अभी तक मामले को ट्रायल स्टेज तक ले जा पाने में नाकाम साबित हुई हैं।
इन गिरफ्तारियों पर देशभर में ही नहीं बल्कि दुनियाभर के समाचार पत्रों में काफी चर्चा रही है। रोना विल्सन को अदालत आज जमानत पर रिहा करने का निर्देश दे रही है।
लेकिन 10 फरवरी 2021 को ही अमेरिकी अख़बार वाशिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट के मुताबिक, मैसाचुसेट्स स्थित डिजिटल फोरेंसिक फर्म आर्सेनल कंसल्टिंग की एक रिपोर्ट में दावा किया गया था कि रोना विल्सन के खिलाफ सबूत उनके लैपटॉप पर किसी अज्ञात हमलावर के द्वारा मैलवेयर का उपयोग कर डाला गया था, जबकि उनका लैपटॉप 22 महीने से अधिक समय तक हैक किया गया था।
(https://www.washingtonpost।com/world/asia_pacific/india-bhima-koregaon-activists-jailed/2021/02/10/8087f172-61e0-11eb-a177-7765f29a9524_story।html)
देश में पहली बार भाजपा को मई 2014 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने का मौका मिला था। उसे यह जनादेश भ्रष्टाचार मुक्त भारत और अच्छे दिन के लिए मिला था, लेकिन बहुत जल्द ही भाजपा, आईटी सेल और व्हाट्सअप नैरेटिव ने देश की पूरी फ़िजा ही बदल डाली थी।
अचानक से देश में सबसे प्रतिष्ठित उच्च शिक्षण संस्थान, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू) को देशद्रोहियों का अड्डा कहकर पुकारे जाने लगा। देखते ही देखते आम आदमी की निगाह में जेएनयू गाली बन चुका था।
इसी की पृष्ठभूमि में 1 जनवरी 2018 को महाराष्ट्र में पुणे के नजदीक भीमा कोरेगांव युद्ध की 200वीं बरसी के अवसर पर दलितों और हिंदुत्ववादी शक्तियों के बीच मुठभेड़ की खबरें निकलकर सामने आईं।
इस घटना में एक 28 वर्षीय युवा की मौत हो गई थी, और कई अन्य लोगों के घायल होने की खबर थी। एल्गार परिषद सम्मेलन के आयोजनकर्ता पूर्व न्यायाधीश बीजी कोलसे पाटिल और पीबी सावंत थे।
इस हिंसा के मद्देनजर, पहले चरण में तो महाराष्ट्र के दलित और अंबेडकरवादी संगठनों की ओर से विरोध प्रदर्शन की खबर देश ने सुनी। हिंसा भड़काने के लिए मुख्य रूप से महाराष्ट्र पुलिस 2 जनवरी 2018 को हिंदुत्ववादी नेता संभाजी भिड़े और मिलिंद एकबोटे के खिलाफ एफआईआर दर्ज की थी।
लेकिन इसके एक सप्ताह बाद ही 8 जनवरी 2018 को, एल्गार परिषद में कथित रूप से भड़काऊ बयान देने के लिए पुणे पुलिस ने कबीर कला मंच के सदस्यों, सुधीर धवले, सागर गोरखे, रमेश गाइचोर, हर्षाली पोतदार, दीपक डेंगले, ज्योति जगताप के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर बिल्कुल ही नया रंग दे दिया।
फरवरी 2018 में, सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर संज्ञान लेते हुए हिंदुत्वादी नेता मिलिंद एकबोटे और संभाजी भिड़े के खिलाफ जांच में धीमी प्रगति को लेकर राज्य सरकार और जांच एजेंसियों की आलोचना की और उनके इस दावे पर सवाल उठाया कि ये कथित तौर पर ‘लापता’ हैं।
वहीं तत्कालीन मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने राज्य विधानसभा में यह बयान दिया था कि पुलिस इन दोनों अभियुक्तों की तलाश में पुणे और कोल्हापुर के सभी ठिकानों पर छापेमारी और तलाशी अभियान चला रही है, और एकबोटे के अनुयायियों को हिरासत में लिया गया है, लेकिन उसका पता लगाने में पुलिस विफल रही है।
यहां पर बता दें कि हिंदुत्ववादी समूहों के बीच में शंभाजी भिड़े को कथित तौर पर पीएम नरेंद्र मोदी का आध्यात्मिक गुरु होने का ख़िताब मिला हुआ है। यह वह समय था जब भिड़े की गिरफ्तारी की संभावना काफी हद तक बढ़ चुकी थी। एकनाथ एकबोटे को 14 मार्च 2018 को हिरासत में भी लिया जा चुका था, और सर्वोच्च न्यायालय ने उसकी जमानत याचिका को ख़ारिज तक कर दिया था।
दक्षिणपंथी ताकतों के पक्ष में यह मामला तब मजबूत होता चला गया, जब भीमा-कोरेगांव हिंसा की चश्मदीद गवाह 19 वर्षीय पूजा साकत, जिसका घर इस हिंसा में जलाकर खाक कर दिया था, ने 16 अप्रैल 2018 को कुएं में कूदकर आत्महत्या कर ली।
परिवार का आरोप था कि गांव के ताकतवर लोगों के द्वारा उस पर अपने बयान को वापस लेने का निरंतर दबाव डाला जा रहा था। इस बारे में तबके एनडीटीवी का लिंक संलग्न है।
इसके बाद तो पूरा मामला ही 180 डिग्री उलट दिया गया। पहले 8 जून 2018 में सामाजिक अधिकार कार्यकर्ता रोना विल्सन सहित सुरेंद्र गाडलिंग, सुधीर धवले, शोमा सेन और महेश राउत को यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया गया।
इसके बाद, 17 नवंबर 2018 में आंध्र के क्रन्तिकारी कवि वरवर राव के साथ-साथ अरुण फरेरा, आदिवासियों के अधिकारों के लिए अदालतों में लड़ने वाली सामाजिक कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज और वरिष्ठ पत्रकार गौतम नवलखा और वर्नोन गोंसाल्वेस को देश भर में एक साथ छापेमारी कर हिरासत में ले लिया गया था।
पुलिस का आरोप था कि इन कार्यकर्ताओं का भीमा कोरेगांव की घटना में संबंध होने के अलावा प्रतिबंधित माओवादियों से भी संबंध था।
पुलिस ने अपने आरोपपत्र में पांच मानवाधिकार कार्यकर्ताओं समेत कुल 10 लोगों के खिलाफ संगीन आरोप लगाया था। इसमें दावा किया गया था कि 31 दिसंबर के कार्यक्रम को प्रतिबंधित सीपीआई (माओवादी) की योजना के मुताबिक आयोजित किया गया था, जिससे दलित समूहों और अन्य संगठनों को सत्ताधारी प्रतिष्ठान के खिलाफ लामबंद किया जा सके।
कार्यक्रम में भड़काऊ भाषणों के माध्यम से आम जनता को भड़काया गया और 1 जनवरी को भीमा कोरेगांव में हिंसा को बढ़ावा दिया गया। पुलिस का दावा था कि ये सभी कार्यकर्ता सीपीआई (माओवादी) के सक्रिय सदस्य हैं। इसी के साथ सबसे सनसनीखेज दावा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या की भी साजिश रचने का दावा ठोंक दिया गया था।
इसी पृष्ठभूमि में 2019 के लोकसभा चुनाव हुए, जिसमें पहले से भी बड़े बहुमत के साथ केंद्र में भाजपा सरकार स्थापित हो गई। लेकिन 2019 के अंत में महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव परिणाम के बाद हालात कुछ ऐसे बने कि भाजपा के हाथ से राज्य की कमान फिसल गई थी, और शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस पार्टी की महा विकास अघाड़ी की सरकार राज्य में बन गई।
22 जनवरी 2020 को, नवनिर्वाचित महाराष्ट्र सरकार ने भीमा कोरेगांव मामले की जांच के आदेश दे दिए, और आगे की जांच के लिए एक एसआईटी के गठन पर विचार शुरू हो गया।
लेकिन राज्य सरकार इस पर अमल करे, उससे पहले ही 25 जनवरी 2020 को, केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन काम करने वाली केंद्रीय एजेंसी, एनआईए को केंद्र सरकार ने यह मामला सुपुर्द कर दिया। महाराष्ट्र के तत्कालीन गृह मंत्री अनिल देशमुख ने आरोप लगाया था कि केंद्र सरकार ने इस मामले को अपने हाथ में लेने से पहले राज्य सरकार से सहमति नहीं ली।
इतनी बड़ी संख्या में देशभर से नागरिक समाज के प्रतिष्ठित लोगों, एनजीओ और अधिकार समूहों के नामचीन लोगों को पुलिस हिरासत में लेने के बावजूद भीमा कोरेगांव मामले में कई और लोगों को लपेटने का सिलसिला जारी रहा।
14 अप्रैल 2020 को डॉ. अंबेडकर की 129 वीं जयंती के अवसर पर देश के लब्धप्रतिष्ठत दलित चिंतक और लेखक आनंद तेलतुंबडे को एनआईए ने गिरफ्तार कर लिया।
एनआईए का दावा था कि आनंद तेलतुंबडे अपने साथियों के साथ आरडीएफ (आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन) और सीपीआई (माओवादी) के संपर्क में थे और महाराष्ट्र के कोरची वन क्षेत्र में आतंकवादियों के लिए हथियार और विस्फोटक प्रशिक्षण का आयोजन कर रहे थे।
9 अक्टूबर 2020 को एनआईए ने 83 वर्षीय स्टेन स्वामी को हिरासत में ले लिया। एनआईए का आरोप था कि स्टेन स्वामी और सुधा भारद्वाज द्वारा गठित पीपीएससी असल में माओवादियों का मुखौटा है।
एनआईए के पास 6 वर्ष बाद भी संगीन आरोप लगाने के अलावा सभी 16 अभियुक्तों के खिलाफ कोई ठोस सबूत क्यों नहीं हैं, इसका जवाब आज उनसे मांगने की जरूरत है, जिनके इशारे पर भीमा कोरेगांव के प्रमुख अभियुक्तों मिलिंद एकबोटे और संभाजी भिड़े को बड़ी सफाई से नेपथ्य में डाल दिया गया।
और षड्यंत्र की एक ऐसे प्लाट को खड़ा किया गया, जिसमें दलितों, आदिवासियों और श्रमिकों के हक के लिए जमीन पर लड़ने वालों, कलम चलाने वालों और अदालती लड़ाई लड़ने वाले निरपराध नागरिकों को अमानवीय यातना के बीच आज भी गुजरना पड़ रहा है।
जिस भीमा कोरेगांव की वार्षिक बरसी की परंपरा को स्वयं बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर के द्वारा 1 जनवरी 1927 के दिन 109 वीं बरसी के दिन शुरू किया गया था, और आज जिनके सच्चे वारिस होने का दावा करने के लिए लगभग सभी राष्ट्रीय दल आये दिन अपना-अपना दावा ठोंक रहे हैं, उन्हीं के कामों को आगे बढ़ाने वालों के खिलाफ ऐसे कुचक्र का पर्दाफाश आज नहीं तो कल अवश्य होकर रहेगा।
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