ओडिशा के कोरापूट जिले के सिमलीगुड़ा तहसील में स्थित है विशाल देव माली पर्वत। देव माली पर्वत के स्थानीय आदिवासी पिछले दो दशक से बॉक्साइट खनन परियोजनाओं के खिलाफ संघर्ष कर रहे है. जब देश कोविड- 19 से जूझ रहा है तब भी ओडिशा के माली पहाड़ के लोग कंपनी और सरकार से जूझ रहे हैं. वे सरकार से पूछ रहे हैं कि महामारी में लोगों की आवाजाही तो प्रतिबंधित हो गई है, पर कंपनियों का आदिवासी इलाकों में प्रवेश कब बंद किया जाएगा? पढ़िए जसिंता केरकेट्टा की रिपोर्ट;
जब आदमी मिट्टी, पानी, पेड़ को मारना शुरू करता है तब इसके बाद उसके खुद के मरने का समय आ जाता है. देश में ज़मीन, जंगल, नदी की हत्या के साथ आम लोगों के मरने की व्यवस्था भी लंबे समय से हो रही थी. बहुतोंं ने कुछ महसूस नहीं किया, पर आदिवासियों ने इस माटी, पानी और पेड़ों को गहराई से समझा है.
वे समझते हैं कि जीवन वास्तव में ज़मीन या माटी से जुड़ा है. आदमी के स्वस्थ रहने के लिए माटी का जिंदा और स्वस्थ रहना जरूरी है क्योंकि वहीं से जीवन की शुरुआत होती है. माटी में बैक्टीरिया और कृमि के होने से वह जीवित और स्वस्थ रहती है. ये मिट्टी में पोषक तत्वों को तैयार करते हैं जो पेड़-पौधों तक पहुंचते हैं और फिर पेड़ पौधों से मनुष्य तक.
आदिवासी इस प्रक्रिया को समझते और जीते हैं. उनके इस अंतरसंबंध की चर्चा एंथ्रोपोलॉजिस्ट फेलिक्स पडेल और फिल्मकार समारेंद्र दास अपनी किताब ‘आउट ऑफ दिस अर्थ’ में प्रमुखता से करते हैं.
इस संबंध को वे लोग कभी नहीं समझ सकते जो जंगल, ज़मीन, नदी और पेड़ पौधों से कटे हैं. जो मिट्टी के संपर्क से दूर हैं, जो कुछ उपजाना और उन्हें बचाना भूल चुके हैं. जो हर चीज मुनाफे के हिसाब से देखते हैं.
प्रकृति के साथ इस संबंध को भूलने और इससे कटी हुई एक जीवनशैली देने में कंपनी, औद्योगिक समाज और सरकारें अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. इस तरह बहुत पहले से किसी जनसंहार की एक धीमी तैयारी होती है.
आज एक देश को, जो विश्व गुरु बनकर पूरी दुनिया को सांस लेने के बाद सांस छोड़ने का तरीका सिखा रहा था, उसे सांस लेने में खुद परेशानी हो रही है. जीवन, देश, लोकतंत्र से ऑक्सीजन वैसे ही गायब होने लगा जैसे नदियों से गायब था. आदमी के मरने से पहले वे ऑक्सीजन की कमी से मर रही थीं.
इस बीच, जिन पर व्यवस्था दुरुस्त रखने की ज़िम्मेदारी है वे फिर से धरती की और खुदाई करने में व्यस्त हैं. बाकी लोग जिनके मुंह में मुनाफा कमाने का खून लगा है और जो मुनाफा बनाते रहने को अभिशप्त हैं, वे कालाबाजारी करने में व्यस्त हैं. ये सब मिलकर मनुष्य और मनुष्यता की ही कब्र खोद रहे हैं.
वर्चस्ववादी संस्कृतियों के सबकी कब्र खोदने की इस कुसंस्कृति के खिलाफ ओडिशा के माली पहाड़ के लोग 19 सालों से निरंतर लड़ रहे हैं. माली पहाड़ का क्षेत्र बॉक्साइट से भरा है. इसीलिए कंपनियों की गिद्ध दृष्टि इस पर है.
देश जब कोविड- 19 से जूझ रहा है तब ओडिशा के माली पहाड़ के लोग कंपनी और सरकार से जूझ रहे हैं. वे सरकार से पूछ रहे हैं कि कोविड में लोगों का बाहर निकलना तो बंद कर दिया जाता है पर कंपनियों का आदिवासी इलाकों में घुसना कब बंद किया जाएगा?
वे ऐसी कंपनी, सरकार और औद्योगिक समाज खिलाफ लड़ रहे हैं जो किसी देश को महामारी के मुंह तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाती है. फेलिक्स पडेल और समारेंद्र दास अपनी पुस्तक में ओडिशा में लोगों के ऐसे संघर्ष को और बॉक्साइट खनन को एक व्यापक नजरिये से देखते हैं.
वे कहते हैं कि सुरक्षा के नाम पर दुनिया के जितने भी देश हथियार बनाते और उनका संग्रह करते हैं, वे ही एल्यूमीनियम के सबसे बड़े खरीददार हैं. बॉक्साइट खनन वाले इलाकों में वे निवेशक के रूप में बड़ी भूमिका निभाते हैं. खनन और मेटल टेक्नोलॉजी का संबंध हथियारों के इतिहास से है.
दूसरे विश्व युद्ध के समय जब ब्रिटेन के हथियार उद्योग को आपूर्ति के लिए एल्यूमीनियम की मांग काफी बढ़ी, तब अलकन ने अपने भारतीय सहयोगी के रूप में इंडाल (एल्यूमीनियम कंपनी ऑफ इंडिया) की स्थापना की. उसी अलकन के साथ इंडाल कंपनी के संयुक्त सहयोग से 1950-56 में ओडिशा में पहली बार बॉक्साइट का व्यवसाय शुरू हुआ.
हथियारों की होड़ के इस सामूहिक पागलपन ने न सिर्फ पर्यावरण और संसाधनों को बर्बाद करने में, बल्कि इंसानों का जीवन स्तर नीचे ले जाने, महामारी लाने में भी बड़ी भूमिका निभाई है. इस होड़ ने ही ओडिशा के आदिवासी इलाकों में लोगों का जीवन तबाह किया है.
आज भी ओडिशा में बॉक्साइट खनन के खिलाफ जब कई गांव एक साथ संघर्ष करते हैं तो वे सिर्फ़ अपने लिए ही नहीं, बल्कि हथियारों की इस होड़ के एक वैश्विक पागलपन के खिलाफ भी लड़ रहे हैं, जिसके विध्वंस का शिकार सिर्फ़ आदिवासी ही नहीं बल्कि देश-दुनिया के सभी लोग होते हैं. आदिवासी ही असल अर्थ में शांति स्थापित करने के लिए निरंतर संघर्ष कर रहे हैं.
ओडिशा में 5 मई से 15 दिनों के लिए लॉकडाउन लगा हुआ है. पर लॉकडाउन शुरू होने से पहले माली पर्वत सुरक्षा समिति, कोरापुट के नेतृत्व में 44 गांव के लोग खनन कंपनियों के खिलाफ प्रतिरोध दर्ज़ करने के लिए, प्रतिरोध का पर्व मनाने के लिए माली पहाड़ पर एकजुट हुए.
वे माली पहाड़ पर स्थित एक विशाल गुफा में पाकुली देवी (पहाड़ की देवी) की पूजा करने के लिए जुटे. यह गुफा अभी तक किसी तरह के शोध और शहरी लोगों के प्रवेश से बची हुई है. यह गुफा इतनी बड़ी है कि इसमें हजार से भी अधिक लोग एकत्र हो सकते हैं. बाहर तेज धूप पर अंदर ठंड थी.
लोगों के अनुसार कई सालों से इस गुफा में ‘पाकुली देवी’ की पूजा हो रही है. पहले सिर्फ एक गांव के लोग ही यहां नियमित रूप से पूजा करते थे, लेकिन लॉकडाउन शुरू होने से पहले माली पर्वत सुरक्षा समिति के नेतृत्व में यहां सामूहिक रूप से पहाड़ की पूजा शुरू की गई. लोगों ने तय किया है कि इसे हर साल नियमगिरि पर्व की तरह ‘प्रतिरोध के पर्व’ के रूप में मनाया जायेगा.
माली पहाड़ पर ‘पाकुली देवी’ की कोई मूर्ति या तस्वीर नहीं है. उसका कोई चेहरा नहीं है. पहाड़ ही उसका चेहरा है. इसलिए गुफा के मुहाने पर और अंदर महिलाएं पूजा करती हैं.