अजय असुर
वर्तमान में औद्योगीकरण और सेवा छेत्र पूरी तरह से ध्वस्त होने के बाद पूँजीपतियों की सारी पूँजी व्यापार में खर्च नहीं हो पायी है। इस वक्त इनके द्वारा निर्मित वस्तु के खरीददार नहीं है! उनके द्वारा उत्पादित माल दुकान/शोरूम में पड़ा धूल खा रहा है। कोई ऐसा छेत्र नहीं जंहा पूंजी लगाई जा सके। एक वक्त में पूंजी स्कूल-कालेज, अस्पताल, बड़े-बड़े कारखानों में लगाई गई पर अब सब जगह घाटा स्कूलों-कालेजों में पढ़ने के लिए पर्याप्त बच्चे नहीं क्योंकि महंगी फीस और उसके बाद नौकरी की कोई गारंटी नहीं गली-गली डाक्टर हो गए हैं इतने अस्पताल खुल गए हैं और आने वाले समय में पीसीओ की तरह स्कूल और अस्पताल खुल जायँगे। सारे उधोग-धंधे बन्द पड़े हैं। तो आखिर पूंजी कौन से सेक्टर में ले के जाएं? जिसकी वजह से कारखाने में लगी पूँजी डूबने का डर है। उस पूँजी को डूबने से बचाने के लिए उसे सुरक्षित जगह पर लगाना ही पड़ेगा। जमीन से ज्यादा सुरक्षित जगह पूँजीपतियों को और कहीं नहीं मिल पा रही है। पूँजी लेकर वे भागेंगे कहाँ? भागने के लिये भी जमीन चाहिए। वे अब कृषि का बहाना बनाकर किसानों से जमीन छीनगे। पूँजीपतियों को विकास की नहीं अपने व्यक्तिगत मुनाफे की चिन्ता रहती है। अतः पूँजीपति वर्ग देश के विकास के लिए नहीं, अपितु अपने मुनाफे के लिए ही किसानों से जमीन छीनता जा रहा है। उधोग-धन्धा खत्म हो जाने से आम जनता की आमदनी का जरिया खत्म हो गया है। जिसके कारण आम व्यक्ति की क्रयशक्ति घटी है, क्रयशक्ति घटने के कारण बाजार में खरीददारी नहीं हो पा रही है, बाजार में खरीददारी ना हो पाने के कारण बाजार नहीं बढ़ पा रहा है, और बाजार ना बढ़ने के कारण माँग नहीं बढ़ पा रही है, माँग न होने पर बचे-खुचे उद्योग-धन्धे बन्द होते जा रहे हैं, उद्योग-धन्धा ध्वस्त होने से भारत के बाजार में विदेशी माल से हमारा बाजार पट जाएगा। विदेशी उद्योगों का भारत के बाजार पर नियंत्रण हो जायेगा। अब समाजवादी औद्योगीकरण के मुकाबले परास्त हो चुका पूँजीपति वर्ग जो अपना कारखाना चलाने में असफल हो चुका है, अब किसानों की भूमि छीनकर अपने पूँजीवाद को बचाना चाहता है।
पूँजीपति वर्ग नेशनल हाइवे के नाम पर चौड़ी-चौड़ी सड़कें बनाकर उसमें पूँजी निवेश करते हैं। सड़कें बनाने से एक तो उन्हें ही उसका ठेका मिलता है। दूसरे उनके कारखानों का लोहा, सीमेन्ट, गिट्टी, बालू आदि मँहगे रेट पर ही खपता है। सड़क बन जाने के बाद कई दशकों तक पूँजीपति जगह-जगह टोल टैक्स वसूलता रहता है। इस तरीके से उसे अरबों-खरबों रूपया हर साल मुनाफा मिलता रहता है। उनके मुनाफे का अन्दाजा इस तरह से लगा सकते हैं कि लखनऊ से दिल्ली जाना हो तो एक चार पहिया गाड़ी वाले को लगभग 835 रू0 टोल टैक्स देना पड़ता है। और अब तो जीपीएस और फास्ट टैग के जरिए आप जैसे ही इन सड़को पर अपनी गाड़ी लेकर जाएंगे वैसे ही आपके खाते से टोल का पैसा काट लिया जाएगा। इसी टोल टैक्स की लालच में पूँजीपति वर्ग कुछ व्यस्ततम सड़कों के विकास की बात करता रहता है। क्या लगता है आपको कि ये जो विकास के नाम पर फोर लेन-सिक्स लेन सड़के बनाई जाती हैं, क्या वह आम जनता के लिए बनाई जाती हैं? कतई नहीं उसे आपकी नहीं पूंजीपतियों की चिन्ता है उसी के लिए बनाई जाती है क्योंकि उस सड़क पर आम जनता कितनी बार अपनी गाड़ी ले जाता है? कितने आम आदमी के पास चार पहिया गाड़ी है? यदि वाकई सरकार को बहुसंख्यक जनता की चिन्ता होती और उसी के लिए ये सड़क बनाती तो फिर आम जनता के लिए ये रोड टैक्स क्यूँ? जब कोई भी गाड़ी खरीदता है तो वह वन टाइम रोड टैक्स सरकार को देता है तो दोबारा क्यूँ? यदि आम जनता की और यातायात का विकास करने की इतनी चिन्ता है, तो गाँवों और कस्बों, शहर की गलियों-मुहल्लों की हजारों ऊबड़-खाबड़, गड्ढा युक्त, टूटी-फूटी सड़कों को बनवाना तो दूर की बात, मरम्मत तक क्यों नहीं कराती? रेलवे की चिन्ता है तो नयी रेलवे लाइन की बजाय वर्तमान में जो सिंगल रेल लाइनें हैं, उसको डबल लाइन करें। कई जगह ट्रिपल लाइन की जरूरत है उसे ट्रिपल लाइन करे, ताकि यात्रियों को कई-कई घंटे ट्रेनों का इन्तजार न करना पडे़, ट्रेने अपने नियत समय पर पहुँचे। और आये दिन हो रही दुर्घटनाओं से भी बचा जा सके? आज भी कई ट्रेने 48-48 घंटो तक देरी से अपने गंतव्य स्थानो तक पहुँचती हैं। कई ट्रेन दुर्घटनाओं में सैकडों-हजारों आदमी मारे जाते हैं, उसका जिम्मेदार कौन? अभी तक नेशनल हाइवे, स्मार्ट सिटी, कल-कारखानों के नाम पर ही जमीन छीन रहे थे। और अब कार्पोरेट खेती के नाम पर जमीन छीनने की पुरी कवायद है यह तीनों कृषि कानून। जिसके लिए कान्ट्रैक्ट खेती/कार्पोरेट खेती को बढ़ावा देनें के लिए बिल पास करा कर सरकार ने इसके लिये कानून बना दिया है। अब इस कार्पोरेट खेती के लिए लोग अपनी खेती यूँ ही नहीं देना चाहेंगे। मगर जब जीवन बीमा एजेन्ट की तरह जनता के बीच का कोई आदमी पूँजीपतियों का कमीशन एजेन्ट बनकर समझायेगा कि कान्ट्रैक्ट खेती के लिये अगर किसान अपना खेत देंगे तो जितने मूल्य का अनाज पैदा करते हैं। उतना ही या उससे ज्यादा रूपया किराया आप को प्रतिवर्ष या प्रतिमाह दिया जायेगा वो भी घर पर बैठे-बिठाए। यदि खेत में काम करेंगे तो उसकी मजदूरी अलग से दी जायेगी। आकस्मिक मृत्यु या घायल होने पर बीमा की कुछ निर्धारित राशि भी मिलेगी। इसी तरह की और भी बहुत सारी लुभावनी बातें बतायेगा। तब किसान पूछेगा कि इसके लिये क्या करना पड़ेगा? तब वह एजेन्ट बोलेगा कि आप को अपना खेत फलाँ पूँजीपति/ कम्पनी के नाम ….साल के लिये पट्टे पर देना पड़ेगा। और जब आप अपनी खेती एक-आध एकड़ या एक आध बिघहे या खेतिहर मजदूर जो कि दूसरों की खेतों में मजदूरी करके और धनी किसान की जमीन लेकर अधिया, बटिइया, सवैया, ठेका लेकर अपना गुजर-बसर करता है, इन किसानों का क्या होगा? इनसे जमीन छीनकर कारपोरेट को देने के बाद इन गरीबों का गुजर-बसर कैसे होगा?
आज जिस तरह से मोबाइल फोन के टावर लगवाने के लिये लोग अपना खेत पट्टे पर देने को तत्पर हैं। यहाँ तक कि घूस देकर अपने खेतों में टावर लगवाना चाह रहे हैं। और लोग घूस देकर लगवा भी रहें हैं। और कुछ ठगे भी जा रहें हैं। उसी तरह सोर्स-पैरवी लगवाकर अपना खेत पट्टे पर देने को तैयार होते जायेंगे। एक बार यदि खेत किसानों के हाथ से निकल गया तो किसानों के हाथ में दोबारा नहीं आ पायेगा। पूँजीपति वर्ग किसानों को इतना मजबूर कर देगा कि वे अपना खेत समय आने पर दोबारा-तिबारा पट्टा करने के लिये तैयार हो जायेंगे। जिस तरह एक बार टावर के लिए जमीन दिया है और चाहकर भी वह जमीन नहीं ले पाता है। जमीन के मालिक निश्चित ही किसान ही रहेगा पर कब्जा किराएदार का रहेगा। देश के कई हिस्सों में कारपोरेट खेती/ठेका खेती की शुरुआत हो चुकी है। खेती को घाटे का सौदा बनाकर किसानों को इतना मजबूर किया जा रहा है कि लोग अपना खेत विदेशी कम्पनियों तक को पट्टे पर देने के लिये मजबूर होते जा रहे हैं। जो लोग औद्योगीकरण के लिये किसानों की जमीन छीनने की वकालत कर रहे हैं वे देश की जनता को गुमराह कर रहे हैं। अगर वास्तव में उन्हें औद्योगीकरण करना है तो साढ़े छ: लाख कारखाने 1991 से 2019 तक बन्द हो चुके हैं, पहले उन बन्द पड़े कारखानों को चलाकर बेरोजगारों को रोजगार दे दें। उसके बाद भी जगह कम पड़े तो सेज(Special Economic Zone) के नाम पर हड़पी गयी लाखों एकड़ जमीन जिसमें 90 प्रतिशत जमीन पर आज तक उद्योग नहीं लग पाये, उस खाली जमीन पर औद्योगीकरण करें और रोजगार दें। फिर भी जमीन कम पड़ती है तो लाखों एकड़ जमीन आज भी रेलवे के पास बेकार पड़ी है। रेलवे के अलावा भी कई डिपार्टमेंट में लाखों एकड़ जमीन खाली पड़ी बंजर बन रही है। इसके अलावा जंगल, पहाड़, ऊसर, बंजर, परती, रेगिस्तान के रूप में भी करोड़ों एकड़ जमीन पड़ी हुई है। उसका औद्योगीकरण में उपयोग किया जा सकता है। लाखों एकड़ जमीन नदियों के किनारे है। इन जमीनों पर औद्योगीकरण करने की बजाय किसानों की उपजाऊ जमीन छीनना सरेआम बेईमानी, लूट, और डकैती है। इसे कत्तई विकास नहीं कहा जा सकता। और अब ये सारे विकास के नाम पर किए गए औद्योगीकरण अब ध्वस्त होते जा रहें हैं।
इसलिए अब पूंजी को चहिए नया काम-धंधा पर सब काम तो बंद पड़ा है। तो आखिर पूंजीपति अपनी पूंजी लगाए तो कंहा लगाए तो उसके सामने एक मात्र सेक्टर कृषि बचा दिखाई दे रहा है जो भारत को सम्हाले हुए है तो अब पूंजीपति अपनी पूंजी कृषि छेत्र में लगाना चाह रहे हैं। अब कार्पोरेट खेती/कान्ट्रैक्ट खेती के नाम पर तथा औद्योगिक विकास के नाम पर किसानों की जमीन छीनेंगे। और यह प्रक्रिया बहुत पहले से चल रही थी पर दूसरे सेक्टर से अच्छा खासा मुनाफा हो रहा था इसलिए कृषि को अंतिम विकल्प के लिए छोड़ रखा था। और अब वह समय आ गया जब पूजीपतियों की पूंजी रुक गयी। तो वह कृषि छेत्र में आकर किसानों से जमीन छीनना चाहता है। और यह आज से नहीं, यह तैयारी पहले से थी जिसके लिए वह सरकार से ऐसी नीतियाँ बनवाया जिससे खेती करना घाटे का सौदा हो जाए! किसान तबाह हो जाए तथा अपनी खेती को औने-पौने दाम में बेचने को मजबूर हो जाए। ऐसी ही सरकारी नीतियों के चलते आज खेती करना घाटे का सौदा हो गया है, मगर जमीन महँगी होती जा रही है। जमीन छीनने के लिये सरकार ने पुराने भूमि अधिग्रहण कानून को बदल कर उससे अधिक सख्त व खतरनाक तरीके का भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लागू कर दिया है जिसमें किसानों से पूछे बगैर उनकी जमीन छीनने तक का अधिकार भी सरकार को दिया जा चुका है। सरकार मुआवजे के तौर पर वर्तमान बाजार मूल्य से कंही ज्यादा रूपये दे देती है, और भोला-भाला किसान ये सोचता है कि देखो सरकार कितनी उदार है,कितनी दयालु है, हमें हमारी जमीन का बाजार मूल्य (मार्केट वैल्यू) से कहीं अधिक मुआवजा दे रही है। कितनी अच्छी सरकार है! मुआवजा सिर्फ धोखा है। अब तक सरकार ने जितने किसानों की जमीन छीनी है उनमें से बहुत कम ही किसानों को मुआवजा मिल पाया है। सरकार कुछ लोगों को मुआवजा देती भी है तो मुआवजे में जमीन नहीं देती बल्कि रूपये देती है। मगर बेचारा भोला किसान उसके पीछे चल रही साजिश को भांप तक नहीं पाता और हंसी-खुंसी अपनी जमीन दे देता है सरकार को और फिर सरकार उसी जमीन को औने-पौने दाम में पूंजीपतियों को बेंच देती है। और बेचारा किसान उस रूपए के बारे में सोच तक नहीं पाता कि सरकार ने जो उदारता दिखाते हुए ज्यादा रुपया दिया उसकी वैल्यू(कीमत) दिन-ब-दिन गिरती जा रही है। जो वह सामान मुठ्ठी भर रूपए में झोला भरकर खरीदकर घर ले जाता था वही सामान आज झोले भर रुपए में मुठ्ठी भर खरीदना पड़ता है। और वह बेचारा किसान इस शणयंत्र के बारे में सोच ही नहीं पाता कि उस रुपए का क्या? जो आगे चलकर उस रूपये का मूल्य लगातार गिराता जा रहा है। जिसके जरिए लगातार महंगाई बढ़ती जा रही है। अर्थात किसानों के हाथ पर वह रूपया रख दिया जायेगा, जिसका मूल्य लगातार गिरता जायेगा तथा किसान के हाथ से वह जमीन छीन ली जायेगी, जिसका रेट दिन दूना, रात चौगुना बढ़ता जा रहा है। यह सब उस किसान, आम जनता के आँखों के सामने ही हो रहा है, मगर उस किसान को आभास तक नहीं।
सरकार, कृषि सुधार और किसानों की आय बढ़ाने के नाम पर कृषि व्यवस्था को एग्रो-बिजनेस के क्षेत्र मे काम कर रही निजी कंपनियों के हवाले करने जा रही है। 1991 में हुए उदारीकरण का नतीजा है कि पिछले 30 साल में 5 लाख से भी ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं, और 52 प्रतिशत किसान कर्जग्रस्त हैं। 85 प्रतिशत किसानों के पास 1 हेक्टेयर से कम खेत है। 95 प्रतिशत किसान परिवार असहनीय दरिद्रता में जी रहे हैं। और यह सिर्फ नवउदारीकरण नीति के कारण ही नहीं इसके आगे डन्कल प्रस्ताव के को मानने का नतीजा भी है। जो कि भारत सरकार ने 1995 में डन्कल संधि पर हस्ताक्षर कर डन्कल प्रस्ताव की नीतियों को मान लिया था। जिसके कारण आज ये तीनों कृषि कानून लाए गए हैं और यह निजीकरण भी हो रहा है यह सब डन्कल सन्धि के दुष्परिणाम हैं।
खेतिहर मज़दूरी पर निर्भर स्त्री-पुरुषों की व्यथा का कोई समाधान नहीं हो रहा है। अब ये कानून लागू हो चुका हैं तो निश्चित ही खेती पूरी तरह से बदल जाएगी। सरकार जिसे किसानों की मुक्ति का मार्ग बता रही है, दरअसल वही उनके लिये सबसे शोषण का मार्ग होगा। भारत मे 85 फीसदी किसान छोटी जोत वाले हैं, जिनकी साल भर की पैदावार इतनी नहीं होती की वे हर बार पास की मंडी तक जा सके, ऐसे में उनसे कहना कि तुम अपनी फसल को किसी दूसरे राज्य की मंड़ी में जाकर बेचो, यह किसी मजाक से कम नहीं। मान लीजिए, कोई किसान पहुंच भी जाए तो क्या गारंटी है कि उसको फसल के इतने दाम मिल जाएंगे कि माल ढुलाई सहित पूरी लागत निकल आएगी? दूसरे राज्य में भी तो व्यापारी ही हैं, वो भी तो कम लागत में ज्यादा मुनाफा कमाना चाहते हैं। गुजरात में लेज कंपनी जो चिप्स बनाती है, के लिये आलू उगाने वाले किसानों का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि निजी कंपनियां किसानों को ऐसी फसलें उगाने के लिये प्रोत्साहित करती हैं, जिनकी उन्हें जरुरत होती है, और इस तरह किसान, खाद, बीज से लेकर फसल बेचने तक के लिये उन पर निर्भर हो जाता है। और बीज भी सस्ता नहीं बहुत ही महंगा होता है। इस सब को जानने के बाद कृषि में निजी निवेश को बढ़ावा देकर किसानों का हित कैसे होगा यह तो मेरे समझ से परे है।
आज़ादी के बाद कृषि उत्पादों की खरीद बिक्री के लिए हमारे इस देश में कोई नियंत्रक संस्था नहीं थी। किसान गाँव के बनिया या किसी अनाज व्यापारी को अपने अनाजों को बेंच दिया करते थे उन्हीं के द्वारा तय किए गऐ मूल्य पर। उस वक्त की सरकार यानी काँग्रेस सरकार ने इसके लिए दो व्यवस्था बनाई किसान की फसल बेचने के लिए और पहली व्यवस्था थी मिनिमम सपोर्ट प्राइज (MSP) अर्थात न्यूनतम समर्थन मूल्य। भारत सरकार के सचिव बी शिवरामन ने 19 अक्टूबर 1965 को इसपर अंतिम मुहर लगाई, जिसके बाद 1966-67 के लिए पहली बार गेहूं के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा कर दी गई। इसे आम तौर पर एमएसपी (Minnimum Support Price) कहा जाता है। इसके बाद से ही हर साल सरकार फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करती है। ये समर्थन मूल्य फसलों की बुवाई से ठीक पहले घोशित किया जाता है। और दूसरी व्यवस्था थी, APMC (Agricultural Produce Market Committee) अर्थात कृषि उत्पाद बाजार समिति(सरकारी मंडी), जो मिनिमम सपोर्ट प्राइज के बाद केन्द्र सरकार 1970 में लेके आयी मगर अधिकांश राज्यों में पहले अपने-अपने एपीएमसी कानून थे। लेकिन, केंद्रीय स्तर पर संपूर्ण भारत के किसानों को फायदे के लिए लेके आयी पर इस कानून आने के बाद भी इसका असली मकसद पूरा नहीं हो पाया। समय के साथ एपीएमसी मंडियों की व्यवस्था में भी ढेर सारी खामियां आई हैं। इन खामियों को अब दूर करने के बजाय सभी सरकारों ने लगातार कमजोर ही किया है और आज इन मंडियो को खत्म करने की पुरी तैयारी कर ली गयी है। इस समय देशभर में कुल तकरीबन 7 हजार मंडियां है। जनसंख्या और क्षेत्रफल के लिहाज से यह संख्या बेहद कम है। सरकारी मंडी में हर एक किसान की उपज बिकनी चहिए, चाहे उसकी फसल की कुल उपज एक कुन्टल ही क्यों ना हो। दरअसल, भारत में ज्यादातर संख्या छोटे किसानों की है। ऐसे में वह इतने संपन्न नहीं हैं कि मंडियों तक आसानी से पहुंच पाएं। यही वजह है कि वह अपने अनाज आढ़तियों को औने–पौने दाम पर बेच आते हैं। तो अभी तक एक भी सरकार ने ऐसी व्यवस्था क्यूँ नहीं की? इसी तरह ठीक मंडी ढांचे में बढ़ोतरी तो हुई लेकिन यह सरप्लस एग्री कमोडिटी की खरीद-बिक्री में वृद्धि से तालमेल नहीं बिठा पाई। सरकार ने हर जिले और तहसील में इन्हीं कृषि उत्पाद बाजार समीति के ज़रिये मंडियों का निर्माण कराया और खरीददारों को इसी कृषि उत्पाद बाजार समीति के माध्यम से लाइसेन्स दिया। इन कृषि उत्पाद बाजार समीति की इन मंडियों में न्यूनतम समर्थन मूल्य लागू किया जिससे कोई भी लाइसेन्स होल्डर सरकार द्वारा तय न्यूनतम खरीद मुल्य से कम पर किसानों से कोई खरीद नहीं कर सकता था। इस लेनदेन में मंडी समिति का टैक्स भी भरना पड़ता था। किसानों की जो फसल बिकने से बच जाती थी उसे उसी मंडी में सरकार उसी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद लेती थी। इसका लाभ यह हुआ कि किसानों की फसल का एक मिनिमम दाम तय हो गया और कृषि उत्पाद बाजार समीति इसे रेगुलेट करने लगी कि कोई खरीददार किसी किसान की फसल न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर खरीद नहीं सके।
*अजय असुर**जनवादी किसान सभा उ. प्र.