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ना तो नरेंद्र मोदी अजेय हैं और ना ही देश विकल्पहीन है

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असित नाथ तिवारी

साल 2015 के फरवरी महीने में जब दिल्ली के विधानसभा चुनावों के नतीजे आए तो अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने प्रचंड जीत दर्ज की। साल 2014 के लोकसभा चुनाव में देश नो जो मोदी लहर देखी थी उस लहर पर दिल्ली में केजरीवाल ने झाड़ू फेर दिया था। तब राजनीति के कई लिक्खाड़ों ने अरविंद केजरीवाल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विकल्प बताया था। आम आदमी पार्टी में कांग्रेस और भाजपा का विकल्प देखने वालों को 2017 आते-आते ये अंदाजा लग गया कि ना तो केजरीवाल की दिल्ली से बाहर कोई स्वीकार्यता है और ना ही उनकी पार्टी आप का कोई आधार।

साल 2020 में भी टीम अरविंद केजरीवाल ने मोदी मंडली को दिल्ली में ऐसा पछाड़ा कि आएगा तो मोदी ही नारा यमुना के कछार पर ही दम तोड़ बैठा। एक बार फिर मोदी का विकल्प तलाश रहे राजनीतिक पंडितों को केजरीवाल में मोदी का विकल्प दिखना शुरू हो गया। लेकिन, जैसे ही पांच राज्यों के चुनाव की रणभेरी बजी और पश्चिम बंगाल में खतरनाक तरीके से सांप्रदायिक गोलबंदी की कोशिशें तेज हुईं, उन्हीं राजनीतिक पंडितों ने अपना लेंस दिल्ली से पश्चिम बंगाल की तरफ मोड़ दिया। और अभी कुछ दिनों पहले जैसे ही प. बंगाल के नतीजे आए और अपनी सारी ताकत लगा चुकी मोदी मंडली को ममता बनर्जी के सामने मुंह की खानी पड़ी तो ममता बनर्जी में मोदी का विकल्प बनने की संभावनाएं तलाशी जाने लगी हैं।
जिस तरह से अरविंद केजरीवाल में वो तलाश पूरी नहीं हुई ठीक उसी तरह से ममता बनर्जी में भी वो तलाश पूरी होती नहीं दिख रही है। और सच ये है कि ममता बनर्जी में वो तलाश पूरी होगी भी नहीं। राजनीति में जीत की उम्र हार से छोटी होती है और किसी एक प्रांत का विजेता अपने पड़ोसी प्रांत का मामूली नेता भी नहीं होता है। मसलन, दिल्ली-एनसीआर में शामिल नोएडा, ग़ाज़ियाबाद में अरविंद केजरीवाल का कोई राजनैतिक प्रभाव नहीं दिखता और बंगाल से आबद्ध बिहार के सीमांचल में तृमणूल कांग्रेस का कोई नामलेवा नहीं मिलता। देश के अलग-अलग राज्यों के कई ऐसे मुख्यमंत्री हैं जो अपने राज्य में तो बहुत लोकप्रिय हैं लेकिन अपने राज्य की सीमा से बाहर उनका कोई राजनीतिक अस्तित्व नहीं है।

ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकल्प का सवाल सामने आ खड़ा होता है। इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए आपको अंकगणित के जाल में बहुत उलझना नहीं है। साल 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों के नतीजों में ही इस सवाल का स्पष्ट जवाब छिपा है। इन नतीजों का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि देश में इस समय भाजपा के सामने कांग्रेस ही खड़ी है और कांग्रेस में ही नरेंद्र मोदी का विकल्प भी हो सकता है। चुनावी नतीजे बताते हैं कि 2014 और 2019 में मोदी और शाह की जोड़ी के नेतृत्व में भाजपा को कुल पड़े मतों का लगभग 38 फीसदी वोट मिला है। इसी दौरान कांग्रेस को कुल पड़े मतों का 20 फीसदी मत मिला है। बाकी तमाम गैर कांग्रेसी विपक्षी दलों को मिले वोट को आपस में मिला दें तो भी वो 20 फीसदी तक नहीं पहुंचते हैं। जाहिर है इन दलों की भीड़ में विकल्प तलाशना एक टाइम पास मनोरंजन ही हो सकता है। इस भीड़ में नरेंद्र मोदी का विकल्प तलाशने वाले भी ये बात जानते हैं कि कांग्रेस ने 2024 के आम चुनाव में अगर 6-7 फीसदी वोट की बढ़ोतरी कर ली तो एनडीए में ही शामिल कई दल मोदी-शाह का साथ छोड़ देंगे और कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार बन जाएगी।

भाजपा और संघ परिवार की जोड़ी ये जानती है कि भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर चुनौती सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस ही दे सकती है। यही वजह है कि संघ और भाजपा की ये जोड़ी लगातार कांग्रेस के खिलाफ तरह-तरह के अभियान चलाती रहती है। इतना ही नहीं संघ और भाजपा की ये जोड़ी ये भी जानती है कि नेहरु-गांधी परिवार का नेतृत्व ही कांग्रेस को एकजुट रख पाने में सक्षम है। जब तक पार्टी पर इस परिवार का नियंत्रण है तब तक कांग्रेस को बहुत कमजोर कर पाना संघ और भाजपा के लिए संभव नहीं है। इसलिए भाजपा और संघ परिवार ने एक रणनीति के तहत पंडित जवाहर लाल नेहरू से लेकर सोनिया-राहुल तक के खिलाफ तरह-तरह के अभियान चलाए, आज भी ऐसे अभियान चल ही रहे हैं।

संघ परिवार और भाजपा के अभियानों के बावजूद साल 2014 से 2019 के बीच कांग्रेस अपना 20 फीसदी मत बचाने में सफल रही है जबकि गैर कांग्रेसी बाकी विपक्षी दल इस दौरान अपना जनाधार खोते गए। 2024 के आम चुनाव से पहले देश के 16 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। इन सोलहों राज्यों में से पंद्रह राज्यों में भाजपा को कांग्रेस से टकराना पड़ेगा और एक राज्य यूपी में समाजवादी पार्टी के साथ-साथ कांग्रेस से उसका कड़ा मुकाबला होने की संभावना है।

यूपी में खुद भाजपा और संघ परिवार की जोड़ी ये मान चुकी है कि योगी आदित्यनाथ ने कोरोना के दौरान राज्य को घोर कुप्रबंधन के हवाले कर दिया। इतना ही नहीं अपने लगभग चाल वर्षों के शासनकाल में अपनी जाति के लोगों की तुष्टिकरण के चक्कर में भाजपा के कोर वोटर ब्राह्मणों को भी नाराज कर दिया। यही हाल मध्य प्रदेश का है। कोरोना की प्रचंड लहर के समय मध्य प्रदेश सरकार पीड़ितों को कहीं दिखी ही नहीं। गुजरात में जब शव जलाने वाले लोहे के उपकरण तक पिघल रहे थे तब वहां के मुख्यमंत्री प. बंगाल में भाजपा की जीत के दावे करते देखे गए थे।

जाहिर है लोग अपनी ऐसी सरकारों से निराश भी हैं और ग़ुस्सा निकालने का मौका भी ढूंढ रहे हैं। अगले साल ही यूपी में चुनाव होने हैं। इसके ठीक बाद गुजरात में विधानसभा का चुनाव है और 2023 में मध्य प्रदेश में विधानसभा के चुनाव होंगे। लोगों की इस निराशा और गुस्से को प. बंगाल ने रास्ता भी दिखा दिया है। मतलब भले ही भाजपा अपनी पूरी सेना चुनाव में उतार दे लेकिन जनता को उसे खारिज करना है तो कर ही देगी। इस स्थिति का थोड़ा-बहुत फायदा भी अगर कांग्रेस को हुआ तो वो फायदा कांग्रेस में नई जान फूंक देगा और 2024 में कांग्रेस अपने वोटबैंक में 5-6 फीसदी का इजाफा भी कर गई तो फिर संघ-भाजपा की जोड़ी के लिए सरकार बनाना संभव नहीं होगा।

इसलिए 2024 में नरेंद्र मोदी का विकल्प तलाश रहे लोग ये जान लें कि विकल्प कांग्रेस ही है। ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल और इन जैसे तमाम राजनेता और उनके राजनैतिक दल अगर सही मायनों में नरेंद्र मोदी का विकल्प तलाश रहे हैं तो फिर कांग्रेस के साथ खड़े होना के अलावा उनके सामने दूसरा-तीसरा कोई विकल्प भी नहीं है क्योंकि, ये देश कई बार तीसरा-चौथा मोर्चा देख चुका है और उन मोर्चों का दंश झेल चुका है।

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