यह 2009 का लोकसभा चुनाव था। बीजेपी की तरफ से योगी आदित्यनाथ की उम्मीदवारी पर तो कोई संशय था ही नहीं। उन्हें तो प्रत्याशी होना ही था, लेकिन उस चुनाव में बीएसपी ने एक बड़ा चौंकाने वाले फैसला किया। गोरखपुर की पॉलिटिक्स में हरिशंकर तिवारी को योगी आदित्यनाथ का राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी तो माना ही जाता है, वह पूर्वांचल इलाके के बड़े ब्राह्मण फेस भी माने जाते हैं। बीएसपी ने योगी आदित्यनाथ के खिलाफ हरिशंकर तिवारी के पुत्र विनय शंकर तिवारी को उम्मीदवार बना दिया। राजनीतिक गलियारों में इस मुकाबले को अब तक का सबसे कड़ा मुकाबला माने जाने लगा। कहा जाने लगा कि तिवारी परिवार की उम्मीदवारी से बीएसपी के पक्ष में ब्राह्मण, मुस्लिम और दलित वोटों की गोलबंदी होगी। इस वजह से बाजी किसके हाथ लगेगी, यह कहा नहीं जा सकता। इसी गुणा-भाग के बीच एक दोपहर अमर सिंह अचानक गोरखनाथ मंदिर दर्शन करने लिए पहुंचे। दर्शन के बाद उनकी कुछ बीजेपी नेताओं से बंद कमरे में मुलाकात की भी चर्चा रही। तब अमर सिंह की समाजवादी पार्टी में तूती बोलती थी।
उनके लखनऊ पहुंचते ही समाजवादी पार्टी ने भोजपुरी स्टार मनोज तिवारी को योगी आदित्यनाथ के खिलाफ प्रत्याशी बना दिया। अमर सिंह ने इसका श्रेय खुद लिया। कहा कि ‘नेता जी’ (मुलायम सिंह यादव) ने उनकी सिफारिश पर मनोज तिवारी को प्रत्याशी बनाया है। मनोज तिवारी के प्रत्याशी बनते ही अमर सिंह विवादों में घिर गए। बीएसपी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके आरोप लगाया कि अमर सिंह ने बीजेपी की मदद के लिए मनोज तिवारी को प्रत्याशी बनवाया ताकि उनके उम्मीदवार के पक्ष में जो वोटों की गोलबंदी हो रही है, उसे रोका जा सके। मनोज तिवारी के चुनावी अभियान में खूब भीड़ भी जुटती थी, लेकिन वह चुनाव नहीं जीत पाए। तीसरे नंबर पर रहे। विनय शंकर तिवारी दूसरे नंबर पर आए। योगी आदित्यनाथ ने उस साल भी वह मुकाबला एक बड़े अंतर से जीत लिया।
चरण सिंह का निशान देने से इनकार
1977 में केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बन चुकी थी। उसके बाद राज्य विधानसभाओं के चुनाव शुरू हो रहे थे, उसमें यूपी भी शामिल था। चंद्रशेखर जनता पार्टी के अध्यक्ष थे, लेकिन चौधरी चरण सिंह की दिलचस्पी टिकट बांटने में ज्यादा थी। उस वक्त जनता पार्टी के अंदर जिस तरह के पावर सेंटर थे और जो अंदरूनी समीकरण थे, उनके मद्देनजर चौधरी चरण सिंह अपने हक में फैसला कराने में कामयाब रहे। तय हुआ कि यूपी के टिकट चौधरी साहब ही बांटेंगे। जब टिकट बंटने शुरू हुए तो घटक दलों के बीच विवाद हो गया। इल्जाम लगा कि चौधरी चरण सिंह पक्षपात कर रहे हैं। अपने लोगों को ही टिकट दे रहे हैं, जनता पार्टी में शामिल अन्य घटक दलों को हिस्सेदारी नहीं मिल रही है। कहते हैं कि चौधरी चरण सिंह को टिकट बांटने का अधिकार मिलने से चंद्रशेखर खुश नहीं थे। पार्टी अध्यक्ष तो वही थे, लेकिन टिकट बांटने का अधिकार उनके पास नहीं था। यह बार-बार उनके लिए शर्मिंदगी का सबब बन रहा था।
लेकिन जैसे ही टिकटों के बंटवारे को लेकर विवाद बढ़ा, अध्यक्ष के रूप में उन्हें हस्तक्षेप करने का मौका मिल गया। उन्होंने बहुत सारे प्रत्याशी बदल दिए। यह बात जब चौधरी चरण सिंह को पता चली तो उन्हें यह अपमानजनक लगा। वह आग-बबूला हो गए। उस समय जनता पार्टी का जो चुनाव निशान था, वह चुनाव आयोग में लोकदल के रूप में दर्ज था, जिसके अध्यक्ष चरण सिंह थे। नाराज चरण सिंह ने चुनाव आयोग को तुरंत पत्र लिख दिया कि उनकी पार्टी का चुनाव निशान जनता पार्टी के उम्मीदवारों को न दिया जाए। सबके हाथ-पांव फूल गए, अब क्या होगा! मनाने की कोशिश हुई, चरण सिंह मानने को तैयार ना हों। जनता पार्टी के नए चुनाव चिह्न के लिए चंद्रशेखर ने पार्टी की बैठक बुला ली। चरण सिंह को जब लगा कि स्थितियां उनके नियंत्रण से बाहर हो रही हैं, तो उन्होंने आयोग से अपना पत्र वापस ले लिया।