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भारत सरकार और मोहन भागवत की ओर से दी गई टिप्पणी उग्र हिन्दुत्व को ठंढ़े बस्ते में डालने की कोशिश 

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नुपुर शर्मा और नवीन कुमार जिंदल जैसे दो कौड़ी के उग्र हिन्दुत्ववादियों की आहुति देकर नरेन्द्र मोदी ने भारत सरकार को अरब देशों के द्वारा विश्व समुदाय के समक्ष कठघड़े में खड़ा करने की कोशिश को टालना चाह रही है. उसके गुस्से को कम करना चाह रही है, लेकिन अरब देश भारत सरकार से सार्वजनिक तौर पर माफी मांगने का दवाब बना रही है. भारत सरकार सार्वजनिक तौर पर माफी मांगतु है या नहीं यह तो बाद का प्रश्न है, लेकिन भारत सरकार और संघी मोहन भागवत की ओर से दी गई टिप्पणी उग्र हिन्दुत्व को तत्काल ठंढ़े बस्ते में डालने की कोशिश के रुप में दिखता है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS ) के प्रमुख मोहन भागवत ने पिछले दिनों कहा, ‘हिंसा से किसी का भला नहीं होता. हमें हमेशा अहिंसक और शांतिप्रिय होना चाहिए. इसके लिए सभी समुदायों को एक साथ लाना और मानवता की रक्षा करना जरूरी है. हम सभी को इस काम को प्राथमिकता के आधार पर करने की जरूरत है. इतिहास वो है जिसे हम बदल नहीं सकते. इसे न आज के हिंदुओं ने बनाया और न ही आज के मुसलमानों ने, ये उस समय घटा. हर मस्जिद में शिवलिंग क्यों तलाशना है ? यह ठीक नहीं है. हम विवाद क्यों बढ़ाना चाहते हैं ? हर दिन हमें नया मामला नहीं लाना चाहिए.’

वहीं, कतर सहित अन्य अरब देशों द्वारा नुपुर शर्मा जैसे विवादित बयानों पर सवाल उठाने और माफी मांगने की मांग पर भारत सरकार की ओर से कोई सफाई या जवाब देने के बजाय राजदूत या अन्य कर्मचारियों को भिड़ा दिया है, ताकि बाद में भारत सरकार अपनी बात से आसानी से मुकड़ जाये और इस पूरे प्रकरण से अनभिज्ञता जता दे, इस कार्य में मोदी सरकार माहिर है. इसलिए इस समूचे प्रकरण पर भारत सरकार को बकायदा श्वेत पत्र जारी करना चाहिए.

इसका कारण यही है कि मोदी सरकार झूठ और फरेब की सरकार है. इसके किसी भी बातों का कोई मूल्य नहीं है. जैसा कि प्रख्यात विद्वान विष्णु नागर लिखते हैं – पहली बार मोदी-शाह बुरी तरह फंसे हैं. अभी तक संकट आते थे मगर ये बाहर से आते थे. ये मजे लेते थे. हंसते थे, गाते थे, नाचते थे. अब संकट अंदर से नेतृत्व पर आया है. नफरत की फौज अब कुछ सुनने को तैयार नहीं. उसे इस्लामी देशों के आगे झुकने की मजबूरी समझ में नहीं आ रही. खाड़ी के देशों में डेढ़ करोड़ भारतीय काम कर रहे हैं. छह करोड़ परिवारों की रोजी-रोटी इससे सीधे जुड़ी है.

इन देशों को हम तीन लाख करोड़ रुपये का निर्यात करते हैं. उस पर भी संकट आसन्न है. मगर इनकी तैयार नफरती ब्रिगेड को इससे क्या लेना-देना ? उसे इससे क्या मतलब कि मोदी जी ने इन देशों में संबंध मजबूत करने पर खासा जोर दिया है और इस सब पर पानी फिरता लग रहा है. नफरत की राह ये आठ साल चले हैं, वापस मुड़ना आसान नहीं है. न चला जाए है, न मुड़ा जाए है.

फिजां अब इस जोड़ी के खिलाफ बन रही है. नुपूर शर्मा के पक्ष में आनलाइन हस्ताक्षर अभियान चल पड़ा है जिस पर कल तक तीस हजार हस्ताक्षर हो चुके हैं. अब यह भी सुनाई पड़ने लगा है कि योगी होते तो न झुकते. इनके कारनामे इनके खिलाफ ही पड़ रहे हैं. अभी तक का यह सबसे बड़ा संकट है. शिकारी खुद जाल में फंसा है.

अब ये इससे ध्यान हटाने के लिए कुछ करेंगे मगर अब एक की बजाय दो मोर्चे हैं. बाहर के विरोधियों की तो इन्हें खास परवाह नहीं. उनसे ये निबट लेंगे मगर अंदर के शत्रु का संकट बड़ा है. अब देखो ये एक-दो दिन में क्या कारीगरी करते हैं मगर इस बार कामयाबी शायद उतनी आसान न हो.

स्वदेश सिन्हा लिखते हैं – यह बात उस समय की है,’ जब मुलायम सिंह यादव’ उत्तर प्रदेश में पहली बार मुख्यमंत्री बने थे. तब उन्होंने अनेक प्रगतिशील बुद्धिजीवियों को पत्रिकाओं को निकालने के लिए अनुदान देने की व्यवस्था की थी.  समय एक भूतपूर्व ‘नक्सलवादी’ और वर्तमान में विचाधाराओं पर शोध करने वाले एक संस्थान ‘सीएसडीएस’ के अध्यक्ष ‘अभय कुमार दूबे’ ने एक पत्रिका जिसका संभवतः ‘समय वार्ता’ था, या इससे मिलता जुलता कोई नाम था, इसी पत्रिका में उन्होंने एक ‘पेप्सी पीता हिन्दूत्व’ लेख ‘बाबरी मस्जिद ‘ विध्वंस के ठीक पहले लिखा था.

इस लेख में उन्होंने लिखा था कि हिन्दुत्व की जो राजनीतिक हम देख रहे हैं, वह शीघ्र ही अपने सर्वोच्च स्तर पर पहुंच कर धीरे-धीरे उतार पर आ जायेगी, क्योंकि तब उसे उग्र हिन्दुत्व की जरुरत ही नहीं पड़ेगी. उसकी स्थित उसी तरह हो जायेगी, जैसी आज ‘ब्रिटेन’ की ‘कंजरवेटिव पार्टी’ की हो गई है, जिसका ब्रिटिश चर्च के साथ गठजोड़ भी है, और वह साम्राज्यवाद की सेवा में पूरी तरह समर्पित भी है. अभय कुमार दूबे से अनेक मुद्दों पर असहमतियों के बावजूद उनका यह मूल्यांकन कितना सटीक था.

लेकिन भारत तथा अन्य एशियाई देशों मे जहां आज भी सामंती पिछड़ी मूल्य मान्यतायें समाज में तथा लोगों के दिमागों में गहराई से पैठी है, वहां ठीक ब्रिटिश कंजरवेटिव पार्टी जैसी स्थित भारत में नहीं हो सकती है. पूंजीवादी लोकतंत्र में आज पूंंजीवाद सबसे अच्छे से पनप सकता है, आज ‘भाजपा’ भारतीय पूंंजीवाद की सबसे पंसदीदा पार्टी है, इसलिए लोकतंत्र और संसदीय चुनावों को वह त्याग नहीं सकती है. उसके ‘छुटभैया’ नेता चाहे जो ‘लफ्फाजी’ करें, संविधान वे पूरी तरह बदल नहीं सकते हैं, लेकिन वे इसे हालात में ला सकते हैं, जिससे वे कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका को पूरी तरह अपने हितों के अनुरूप बना सके. आज यह प्रक्रिया करीब-करीब पूरी हो गई है.

80 के दशक की बात है संध परिवार से जुड़े एक मित्र ने एक बार बातों-बात में कहा था कि ‘हम देश में ऐसी स्थिति लाना चाहते हैं, कि कांग्रेस सहित सभी राजनीतिक पार्टियां हिन्दूत्व की बात करे.’ आज देश में करीब-करीब ये हालत पैदा हो गयी है. सभी राजनीतिक पार्टियां अब हिन्दूत्व की बातें करने लगीं है, किसी के पास ‘सॉफ्ट हिन्दुत्व’ है, और किसी के पास ‘हार्ड हिन्दुत्व.’

दो बार सत्ता में काबिज होने के बाद फिलहाल संघ परिवार ने आज सब कुछ अपने अनुसार ‘मैनेज’ कर लिया है. उदारवादी बुद्धिजीवियों में से कुछ की हत्यायें करा दी गई, बाकी ढेरों क्रांतिकारी आज गांधीवादी बन कर ‘रघुपति राघव राजाराम’ का गायन करते हुए फासीवादी जिन्न को भगाने के लिए ‘झाड़-फूंक’ कर रहे हैं. उनमें से अधिकांश की यात्रा ‘मंडी हाउस’ से लेकर ‘इंडिया गेट’ तक मोमबत्ती जुलुस में पूरी हो जाती है. बचे हुए बुद्धिजीवियों को लालच देकर या डरा-धमका कर अपने में समाहित करने की कोशिश की जा रहीं, इसमें कुछ हद तक सफलता मिल रही है.

अल्पसंख्यक विशेष रूप से मुसलमानों ने फिलहाल इस सरकार को अपनी नियति मानकर इसकी ओर कदम बढा रहे हैं. संघ नेतृत्व को अब लगता है कि उनकी हिन्दूत्व के लिए संघर्ष का एक दौर पूरा हो गया है, अब उन्हें उग्र हिन्दूत्व की जरूरत नहीं. दूसरा सबसे बड़ा कारण है कि आज भारत दुनिया भर के पूंंजीपतियो़ं तथा साम्राज्यवादियों के लिए दुनिया में सबसे बड़ा बाजार है, और वे भी कभी नहीं चाहेंगे कि ‘मानवाधिकारों’ को लेकर भारत पर किसी तरह के प्रतिबंध लगे.

मुस्लिम देशों में सऊदी अरब तथा यूईए भारत में आज कल बहुत बड़ा निवेश कर रहे हैं, काश्मीर तक में. हालांकि ‘इस्लामिक ब्रदर हुड’ की बातें अब इन देशों के लिए बिलकुल समाप्त हो गई है, लेकिन इन देशों को अन्य मुस्लिम देशों की आलोचकों से बचाने के लिए कुछ हद तक उग्र ‘इस्लामिक फोबिया’ पर रोक लगानी ही पडे़गी. मोहन भागवत के बयान को क्या आज इन्हीं संदर्भों में नहीं देखा जाना चाहिए ?

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