बात 2007 की है। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में बहुजन समाज पार्टी ने पहली बार अकेले दम पर बहुमत हासिल कर राजनीतिक पंडितों को चौंका दिया। मायावती ने इस बड़ी जीत के लिए दलितों, मुस्लिमों के साथ ब्राह्मणों को विशेष श्रेय दिया। बसपा की इस जीत को आगे चलकर सोशल इंजीनियरिंग का नाम दिया गया। खबरें छनकर आती रहीं कि इस सोशल इंजीनियरिंग फाॅर्मूले को लाने वाले मायावती के सबसे करीबी नेता सतीश चंद्र मिश्रा थे। बहरहाल, पांच साल मायावती ने राज किया लेकिन 2012 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने इस फाॅर्मूले की हवा निकाल दी। 2007 में 206 सीटें जीतने वाली बसपा 2012 में 80 सीटों पर सिमट गई।
समय बीता लेकिन बसपा अपनी सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूले पर कायम रही। लेकिन मायावती अब अपने वोटरों से दूर होती जा रही थीं। उनका सार्वजनिक तौर पर निकलना न के बराबर हो गया। यही नहीं उनसे मिलना आम जनता की छोड़िए पार्टी के नेताओं के लिए भी कठिन हो गया। इसी दौर में 2014 के लोकसभा चुनाव हुए, जिसमें राष्ट्रीय पार्टी बसपा एक भी सीट नहीं जीत सकी। लेकिन पार्टी सोशल इंजीनियरिंग फार्मूले पर कायम रही। 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव आए तो बसपा रसातल में चली गई। उसे महज 19 सीटों से संतोष करना पड़ा। लगातार हारों से एक तरफ पार्टी के तमाम पुराने नेता बसपा छोड़कर जाते रहे लेकिन दूसरी तरफ सोशल इंजीनियरिंग जारी रही।
इसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने सपा के साथ गठबंधन किया। लेकिन यहां उसे सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूले की बजाए समाजवादी पार्टी के साथ का भरपूर लाभ मिला और 10 सीटें जीतकर वह यूपी में भाजपा के बाद दूसरा सबसे बड़ा दल रही। लेकिन चुनाव बाद ही मायावती ने ये कहते हुए गठबंधन तोड़ लिया, कि समाजवादी पार्टी से उसके वोट नहीं मिले, बसपा के वोट जरूर सपा को गए। हालांकि तथ्य ये था कि समाजवादी पार्टी लोकसभा चुनाव में महज 5 सीटें ही जीत सकी थी।
बहरहाल, 2022 में यूपी विधानसभा चुनाव आए तो बसपा ने एक बार फिर अपने सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूले को पूरी ताकत के साथ आगे बढ़ाया। बसपा ने सबसे पहले ब्राह्मण वोटरों को लुभाने के लिए प्रबुद्ध सम्मेलनों का आयोजन किया। सतीश चंद्र मिश्रा और उनके परिवार ने इस अभियान का नेतृत्व किया। उन्होंने पूरे प्रदेश में तमाम सम्मेलन किए। इसमें पूर्व मंत्री और सतीश चंद्र मिश्र के करीबी माने जाने वाले नकुल दुबे ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। लेकिन नतीजा सिफर ही रहा।
स्थिति ये हुई कि 1984 में जन्म लेने वाली बहुजन समाज पार्टी, जिसने 1993 के यूपी चुनाव में 63 सीटें जीतकर सभी को चौंकाया था, कई बार सरकार बनाई, अकेले दम पर बहुमत तक हासिल किया, उस पार्टी से 2022 में सिर्फ एक ही प्रत्याशी जीत सका। आज बलिया के रसड़ा से उमाशंकर सिंह विधानसभा में अकेले विधायक हैं।
2012 के बाद से मायावती और बसपा का ग्राफ इतनी तेजी से गिरा कि अब उन्होंने गंभीरता से अपने सोशल इंजीनयिरंग फॉर्मूले पर ध्यान देना शुरू किया है। इसका इशारा कहीं न कहीं रामपुर और आजमगढ़ के लोकसभा उपचुनावों में देखने को मिल रहा है। मायावती अब दलित-ब्राह्मण-मुस्लिम फार्मूले को छोड़ वापस पुराने दलित-मुस्लिम फॉर्मूले पर लौटती दिख रही हैं। आजम खान की खाली की गई सीट पर बसपा ने उम्मीदवार नहीं खड़ा कर एक तरह से आजम खान के गुट को वॉकओवर दे दिया है। वहीं दूसरी तरफ अखिलेश की खाली की गई आजमगढ़ सीट पर शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली को उतारकर दलित-मुस्लिम वोटबैंकपर नजरें गड़ा दी हैं।
अब बुधवार को जारी की गई बसपा की स्टार प्रचारकों की लिस्ट में 40 नामों में सतीश चंद्र मिश्रा का नाम नहीं मिला। ये पहली बार है, जब स्टार प्रचारकों की लिस्ट से सतीश चंद्र मिश्रा का नाम गायब है। वह बसपा में मायावती के बाद दूसरे सबसे कद्दावर नेता माने जाते रहे हैं। वैसे कुछ दिन पहले मायावती ने नकुल दुबे को भी पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाकर अपनी मंशा जाहिर कर दी थी। नकुल दुबे को प्रियंका गांधी ने कांग्रेस ज्वाइन करा लिया है। अब सतीश चंद्र मिश्रा का नाम स्टार प्रचारकों की सूची में नहीं आने के बाद से लखनऊ के सत्ता के गलियारे में चर्चाएं तेज हैं। कहा जा रहा है कि मायावती का ब्राह्मण वोट बैंक से मोहभंग हो चुका है। यही कारण है कि वह पुराने दलित-मुस्लिम फॉर्मूले पर वापस लौट रही हैं। यही नहीं संगठन को लेकर भी मायावती बड़े बदलाव कर सकती हैं, ऐसे में सतीश चंद्र मिश्रा का रोल क्या होगा ये देखने वाली बात है।