प्रिया सिंह
_आपत्तियां एवं कठिनाइयां जीवन का स्वाभाविक अंग हैं, जो धूप-छांह एवं दिन-रात की भांति हमारे जीवन में आती-जाती रहती हैं, लेकिन जब ये आती हैं तो हम इनका सामना कैसे करते हैं, इनसे कैसे निपटते हैं, इनके प्रति हमारी प्रतिक्रिया क्या रहती है._
इसके आधार पर हमारे जीवन की दशा-दिशा निर्धारित होती है। यदि हम एक सजग जिज्ञासु की भांति धैर्य एवं साहस के साथ इनका सामना करते हैं, इनसे आवश्यक सबक लेते हुए आगे बढते हैं तो जीवन के ये विकट पल हमें जीवन जीने की कला का महत्वपूर्ण शिक्षण देकर जाते हैं अन्यथा ये हमें तोडकर, जीवन में कटुता का समावेश कर, अस्तित्व के तार को और उलझाकर जाते हैं।
सामान्य क्रम में आपत्तियों के आने पर व्यक्ति घबरा जाता है, उसके हाथ-पैर फूल जाते हैं, कई तो रोना-धोना तक शुरू कर देते हैं। लगता है कि भगवान ने हमारे ऊपर यह कैसी बिजली गिरा डाली।
_व्यक्ति अपना होश खो बैठता है, किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो जाता है और इनसे बचने या इनको टालने का यथासंभव प्रयास करता है, लेकिन जब ये चली जाती हैं और इनका समय बीत जाता है तो फिर इन्हीं को याद कर व्यक्ति हंसता है।_
इनकी कथा-गाथाओं को व अपने साहस के किस्सों को बडे मनोरंजन के साथ आनंद लेते हुए अपने मित्र-दोस्तों, नाती-पोतों के बीच में सुनाता है।
वास्तव में किसी भी आपत्ति के आने पर व्यक्ति का आशंकित मन अपने स्वभाव के अनुरूप चीजों को बढा-चढाकर देखने लगता है। यदि व्यक्ति अस्पताल में भरती है तो आशंकित मन छोटी सी बीमारी या किसी अंग-अवयव के कष्ट के इर्द-गिर्द कल्पना का जाल बुनना शुरू कर देता है। बुरे से बुरे विकल्पों के बीच मन झूलने लगता है।
कल्पना की इस उडान को आस-पास के रोगी हवा दे जाते हैं, जो किसी तरह की पीडा से कराह रहे होते हैं। ऐसे में व्यक्ति का मन अनहोनी के भयंकर विचारों में उलझ जाता है कि पता नहीं कहीं मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ तो नहीं होने वाला?
_सब कुछ चिकित्सक के हाथों में व उनकी पूरी देख-रेख में चल रहा होता है। इधर-उधर ध्यान देने के बजाय यदि जितना कहा गया है, उतना ही करा जाता, अपने स्वास्थ्य पर ध्यान केंद्रित रखते तो कुछ और बात होती। इसके बजाय आशंकित मन बेसिर-पैर की ऊल-जलूल कल्पनाओं में उलझ जाता है, जो अपने साथ नकारात्मक विचारों का पूरा अंधड़ लेकर आती है, जिनको थामना मुश्किल हो जाता है।_
ऐसे में व्यक्ति भय एवं उद्विग्नता से इतना चिंतातुर हो जाता है कि ऐसी बीमारी न होने पर भी कल्पित बीमारी के लक्षण प्रकट होने शुरू हो जाते हैं।
ऐसा ही अन्य किसी विपरीत परिस्थिति, आपत्ति एवं कठिनाई भरे पलो में होता है जबकि यदि व्यक्ति सकारात्मक विचारों के साथ धैर्य का दामन थामते हुए वर्तमान में जी रहा होता, अपना श्रेष्ठतम प्रयास करते हुए बुरी से बुरी परिस्थिति के लिए तैयार रहता तो पाता कि आशंकित मनःस्थिति की नब्बे फीसदी कल्पनाएं आधारहीन थीं, जिनमें हम व्यर्थ ही अपना समय, स्वास्थ्य एवं मनोयोग गंवाते रहे।
वास्तव में कठिनाइयों एवं आपत्तियों के प्रति हमें हमारी सोच बदलने की आवश्यकता है। हमारे जीवन में कठिनाइयां हमारे आध्यात्मिक विकास के लिए आती हैं। ये हमारा प्रारब्ध काटती हैं और हमारे संचित कर्मों का बोझ हल्का कर हमारे जीवन को और भी बेहतर बनाती हैं।
_इनके साथ हमारे संचित पापों का भार हलका होने के साथ हमारी अंतश्चेतना शुद्ध एवं निर्मल हो जाती है, इसके साथ ही हमारी अंतःशक्तियों का जागरण भी होता है, जो सामान्य परिस्थितियों में तंद्रावस्था में रहती हैं। कठिन समय इनको झकझोरकर हमारी उन्नति में इनका सहायक बनता है।_
इस तरह ये एक तरह से ईश्वर की ओर से उपहारस्वरूप होती हैं, जो हमारी बेहोशी, अज्ञानता, आलस्य, अहंकार, जड़ता और व्यामोह को नष्ट करने आती हैं।
दुःख व कष्ट एक तरह के हंटर का काम करते हैं, जो हमारी शिथिल पडी शारीरिक एवं मानसिक शक्तियों को भडकाकर हमें क्रियाशील बनाते हैं और साथ ही हमें धर्माचरण की शिक्षा देकर सही राह पर चलना सिखाते हैं।
_अतः कठिनाइयों में अपने धैर्य व संतुलन को खोने के बजाय साहस पूर्वक इनका सामना करने में ही समझदारी है। कठिनाइयों में न तो दुःखी होने की आवश्यकता है, न घबराने की और न किसी पर दोषारोपण करने की , बल्कि हर आपत्ति के बाद नए साहस और उत्साह के साथ उस परिस्थिति से जूझने और प्रतिकूलता को हटाकर अनुकूलता को उत्पन्न करने के लिए प्रयत्नशील होने की आवश्यकता है।_
ऐसे में मन को सतत यह विश्वास दिलाते रहें कि यह विषम समय भी बीत जाएगा।
ईश्वर विश्वास एक महान अवलंबन साबित होता है। उसके विधान में कुछ भी अमंगल नहीं हो सकता। वह सर्वसमर्थ है, सर्वांतर्यामी है। वह विपत्ति में भी सतत हमारे साथ है। यह दृढ विश्वास ऐसी छोटी-छोटी परिस्थितियों का निर्माण करता है, ऐसे सहयोग को जुटाता है, ऐसी सोच को संभव बनाता है कि विपत्तियों को व्यक्ति धैर्य एवं साहस के साथ पार कर जाता है। ऐसे पलों में मानसिक जप, इष्ट सुमिरन या शास्त्रोक्त स्तोत्र का पारायण बहुत सहायक सिद्ध होता है। यह एक सकारात्मक मनोभूमि को बनाए रखता है और नकारात्मक विचारों के विरुद्ध एक तरह से मजबूत रक्षा कवच का निर्माण करता है।
इस तरह आपत्तियों कठिनाईयों से चिंतित न हों तथा प्रत्येक परिस्थिति में आगे बढते रहें। अपने धैर्य को स्थिर रखते हुए सजगता, बुद्धिमता, शांति और दूरदर्शिता के साथ कठिनाइयों से पार निकलने का प्रयास करें।
_आप पाएंगे कि हर विषम परिस्थिति के बाद हम अधिक निखार के साथ, अधिक सशक्त बनकर बाहर निकल रहे हैं। बुरे दिन तो निकल जाएंगे लेकिन साथ ही वे अनेकों अनुभव, सद्गुण, सहनशक्ति एवं सूझ का वरदान देकर जाएंगे। किसी ने सही कहा है कि कठिनाइयां व्यक्ति को जितना सिखाकर जाती हैं, उतना दस गुरु मिलकर भी नहीं सिखा सकते।_
जिन महापुरुषों को आज हम प्रेरणास्त्रोत के रूप में देखते हैं, अनुकरणीय मानते हैं, वे कठिनाइयों की पाठशाला में उत्तीर्ण होकर ही इसके अधिकारी बन सके। वे दुःख, कष्ट, आपत्ति एवं प्रतिकूलता की भट्ठी में तपकर ही कुंदन बनकर निखरे और अपनी आभा के साथ युग को प्रदीप्त कर गए।
जिसका जीवन जितना अधिक सुख-सुविधाओं एवं अनुकूलताओं की गोद में पला-बढा, उसकी नैसर्गिक क्षमताएं उतनी ही प्रसुप्त रह गईं और उनका जीवन उतना ही हलके में निकल गया, जबकि विपत्तियों की प्रयोगशाला में ही महान व्यक्तित्वों का विकास होता है, जिनका वे सहर्षता से वरण करते हैं।
_कितनी ही उच्च आत्माएं, तपरूपी कष्ट को अपना परम मित्र और विश्वकल्याण का मूल समझकर उसे स्वेच्छापूर्वक छाती से लगाती हैं। वे दुःखों के आने पर अधीर नहीं होते और उन्हें प्रारब्ध कर्मों का बोझ समझकर प्रसन्नतापूर्वक सहन करते हैं। विकट समय निकल जाता है, लेकिन तप की अग्नि से प्रदीप्त इनका कालजयी व्यक्तित्व युग-युगांतरों तक संघर्षशील व्यक्तियों के लिए प्रेरक शक्ति का काम करता है।_
(चेतना विकास मिशन)