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आपातकाल के 47 वर्ष…लोकतांत्रिक मूल्यों का अहसास कराता है यह दिन

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47 वर्ष पहले हुई इस दिन की घटना ने देश को अहसास कराया था कि लोकतंत्र का महत्व क्या है।
भारत के संसदीय इतिहास की इस घटना का स्मरण किसी को बुरा-भला कहने के लिए नहीं होता, बल्कि

भारतीय लोकतंत्र की मजबूती और शक्ति का स्मरण होता है। वर्ष 1975 की 25 जून की आधी रात और
26 जून की सुबह यानी जब देश में आपातकाल लगा था। यह अतीत का एक ऐसा पन्ना है जिसका
इतिहास हमें लोकतंत्र के प्रति समर्पण, संकल्प को मजबूत करने की सीख देता है ताकि हम जिस
भारतीय संस्कृति और विरासत को लेकर आगे बढ़े थे, वह सदैव रहे जीवंत……

इक्कीसवीं सदी में भारत ने दुनिया की सबसे भयावह कोविड जैसी महामारी का सामना कुशलता के साथ
किया है। इस महामारी से जीवन की रक्षा के लिए लॉकडाउन की स्थिति आज के नौनिहालों व युवाओं के
मन-मस्तिष्क में जीवन पर्यंत रहने वाली है। लेकिन क्या इन नौनिहालों-युवाओं को पता होगा कि
भारतीय लोकतंत्र ने भी इतिहास में लंबे समय तक एक लॉकडाउन का सामना किया है? लेकिन उसका
कारण जीवन रक्षा नहीं, बल्कि कुछ ऐसे कारण थे जिनका आम जन से न कोई सरोकार था और ना ही
देश किसी युद्ध में शामिल था। फिर भी आम जन मूलभूत अधिकारों से वंचित था।
आजादी मिलने के बाद भारत आधुनिक लोकतंत्र के रूप में पूर्ण गणराज्य बना और शासन की बागडोर
जनता द्वारा चुनी हुई सरकार के हाथों में आई। लेकिन इस दौर में देश के सामने लोकतंत्र के भविष्य
और जनता के मौलिक अधिकारों को लेकर अनेक सवाल थे। कई कारणों से इसका जवाब तत्कालीन
शासन की नीतियों पर आश्रित थे। आजाद भारत के लोकतंत्र की यात्रा की शुरुआत में ही राष्ट्रीयता से
जुड़े कई संगठनों पर ऐसे कुछ प्रतिबंध देखे गए, जिसके बाद 1951-52 में संसद में पहला संविधान
संशोधन रखा गया। इसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करने के प्रश्न पर संसद में विस्तृत चर्चा
हुई। तब डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में पुरजोर आवाज मुखर की थी।
फिर 1975-77 का एक कालखंड ऐसा भी आया, जब देश में आपातकाल लगाकर व्यवस्था को चंद लोगों
की मुट्ठी में बंद करने की कोशिश हुई।
लोकतंत्र के प्रति निरंतर जरुरी जागरुकता
लोकतंत्र सिर्फ एक व्यवस्था नहीं, बल्कि एक संस्कार भी है। ऐसे में इसके प्रति निरंतर जागरूकता जरूरी
होती है। यही कारण है कि लोकतंत्र को आघात करने वाली बातों का स्मरण करना जरूरी हो जाता है।
1975 की 25 जून की उस रात को कोई भी लोकतंत्र प्रेमी भारतवासी भुला नहीं सकता है जब देश को
एक प्रकार से जेलखाने में बदल दिया गया था, विरोधी स्वर को दबाने की कोशिश हुई थी। जयप्रकाश
नारायण सहित देश के गणमान्य नेताओं को जेलों में बंद कर दिया गया था। न्याय व्यवस्था भी
आपातकाल के उस भयावह रूप की छाया से बच नहीं पाई थी। मीडिया पर भी अंकुश लगा दिया गया
था। संपादक के तौर पर कई अखबारों के कार्यालयों में पुलिस के अधिकारी बिठा दिए गए थे।
लेकिन किसी को भी यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि भारत की सबसे बड़ी ताकत उसका लोकतंत्र है।
लोक शक्ति है। देश का एक-एक नागरिक है। जब भी इस पर कोई आंच आई है इस श्रेष्ठ जनसमूह ने
अपनी इसी ताकत से लोकतंत्र को जी कर दिखाया है। जब देश में आपातकाल लगाया गया तब उसका
विरोध सिर्फ राजनीतिक दायरे या राजनेताओं तक सीमित नहीं था, जेल के सलाखों तक ही आंदोलन

सिमट नहीं गया था बल्कि जन-जन के दिल में एक आक्रोश था। खोये हुए लोकतंत्र की एक तड़प थी।
जैसे दिन-रात खाना मिले तो भूख क्या होती है इसका अहसास नहीं होता, लेकिन जब ना मिले तो उसका
अहसास भूखा व्यक्ति बेहतर महसूस करता है। वैसे ही सामान्य जीवन में लोकतंत्र के अधिकारों की
अनुभूति भी तब होती है जब कोई लोकतांत्रिक अधिकारों को छीन लेता है। आपातकाल में देश के हर
नागरिक को लगने लगा था कि उसका कुछ छीन लिया गया है। किसी समाज व्यवस्था को चलाने के
लिए भी संविधान की जरूरत होती है, कायदे, कानून, नियमों की भी आवश्यकता होती है, अधिकार और
कर्तव्य की भी बात होती है। लेकिन भारत की यह खूबसूरती है कि कोई नागरिक गर्व के साथ यह कह
सकता है कि उसके लिए कानून और नियमों से इतर लोकतंत्र हमारे संस्कार हैं, हमारी संस्कृति है, हमारी
विरासत है और उस विरासत को लेकर हम पले-बढ़े लोग हैं। यही वजह है कि उसकी कमी को
देशवासियों ने आपातकाल में करीब से अनुभव किया था। इसी का नतीजा था कि 1977 के आम चुनाव
को लोगों ने अपने हित के लिए नहीं, बल्कि लोकतंत्र की रक्षा के लिए आहूत कर दिया था। जन-जन ने
अपने हकों, जरूरतों की परवाह किए बिना सिर्फ लोकतंत्र की रक्षा के लिए मतदान किया था। अमीर से
लेकर गरीब तक सभी ने एकजुटता के साथ अपना फैसला सुनाया था।
‘आजादी की नई ऊर्जा’
आपातकाल की पीड़ा वही महसूस कर सकता है जिसने इसे झेला हो, आज अखबारों में आलेख लिख
सकते हैं, ट्विटर या सोशल मीडिया पर जो चाहे लिख सकते हैं, बोल सकते हैं। सरकार के खिलाफ बात
कर सकते हैं। सोचिए इतनी ऊर्जा हमें कहां से मिली? दरअसल, जो लोग अब देश का शासन चला रहे हैं,
वही आपातकाल के भुक्तभोगी थे और बाद में हमारे संविधान, हमारी व्यवस्था को पटरी पर लेकर आए
ताकि कभी देश में कोई आपातकाल ना थोप सके। यह ऊर्जा उस आपातकाल की बंदिशों के बीच विरोध
करने वाले इन्हीं स्वरों से निकली है। ऐसे में 47 वर्ष की इस पूर्व की घटना और आपातकाल का विरोध
करते हुए भारतीय लोकतंत्र के रक्षकों का स्मरण कराना जरूरी है ताकि नई पीढ़ी इतिहास के उस पन्ने
को जान सके और लोकतंत्र के प्रति सदैव सजग रहे। देश में सशक्त लोकतंत्र की भावना को पिछले आठ
वर्षों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने चरितार्थ करके दिखाया है क्योंकि उनकी नीति
और निष्ठा में ‘राष्ट्र प्रथम’ निहित है। इन वर्षों में जहां एक ओर संघीय ढांचों को मजबूती देते हुए देश
में राज्यों की भागीदारी को बढ़ाया गया, वहां दूसरी ओर गरीबों और आम नागरिकों से जुड़ी सैकड़ों
योजनाओं के द्वारा विकास की मुख्यधारा में लाया गया। आज लोकतंत्र की सभी इकाइयां एक दूसरे के
परस्पर सहयोग, समन्वय व संतुलन के साथ चल रही है। न्यायपालिका की जहां आवश्यकता दिखाई
पड़ती है, वह पूरी तरह स्वतंत्रता के साथ समय-समय पर सरकार का मार्गदर्शन करती रहती है। इसके
अतिरिक्त मीडिया को भी अपना काम करने की पूरी आजादी है। बाबा साहब आंबेडकर ने संविधान सभा
में अपने आखिरी भाषण में राजनीतिक लोकतंत्र के साथ सामाजिक लोकतंत्र की आवश्यकता पर बल
दिया था। आज प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में बाबा साहब के विचारों के अनुरूप ही लोकतंत्र आगे बढ़ रहा
है। भारत के लोकतंत्र की जड़ें इतनी गहरी हैं कि भविष्य में कोई भी देश के लोकतांत्रिक मूल्यों से
खिलवाड़ करके आपातकाल जैसी परिस्थिति उत्पन्न करने का साहस नहीं करेगा।

निश्चित रूप से भारत के सामान्य मानव की लोकतांत्रिक शक्ति का उत्तम उदाहरण आपातकाल में प्रस्तुत
हुआ है। लोकतांत्रिक शक्ति का वो परिचय बार-बार देश को याद कराते रहना चाहिए क्योंकि जन-जन की
रग-रग में फैला हुआ लोकतंत्र का भाव भारत की अमर विरासत है। आपातकाल की बरसी हमें इसी
विरासत को और सशक्त करने का स्मरण कराती है। n

संविधान संशोधन से अब असंभव है ऐसा आपातकाल लगाना

आपातकाल में संविधान के कई प्रावधानों को बदल दिया गया था। जिसे बाद में मोरारजी देसाई की
सरकार के समय ठीक किया गया। यह महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि आपातकाल के दौरान जो 42वां
संशोधन लाया गया था, जिसमें सुप्रीम कोर्ट की शक्तियों को कम करने और दूसरे ऐसे प्रावधान थे, जो
हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन करते थे – उनको 44वें संशोधन के द्वारा बहाल किया गया। इसी
संशोधन में यह भी प्रावधान किया गया कि संविधान के अनुछेद 20 और 21 के तहत मिले मौलिक-
अधिकारों का आपातकाल के दौरान भी हनन नहीं किया जा सकता है। देश में पहली बार ऐसी व्यवस्था
की गई कि मंत्रिमंडल की लिखित अनुशंसा पर ही राष्ट्रपति आपातकाल की घोषणा करेंगे, साथ ही यह भी
तय किया गया कि आपातकाल की अवधि को एक बार में छः महीने से अधिक नहीं बढ़ाया जा सकता
है। इस तरह से मोरारजी सरकार ने यह सुनिश्चित किया कि 1975 की तरह देश में आपातकाल को कभी
दोहराया न जा सके।

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