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अभिशाप के बावजूद पत्रकारिता अब भी एक संभावना है

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अनिल जैन

पत्रकारिता की आड़ में होने वाली जिस धंधेबाजी और जिन धंधेबाजों को लेकर छ साल पहले वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन द्वारा यह पोस्ट लिखी गई थी, वह धंधेबाजी आज भी जारी है और वे धंधेबाज भी सक्रिय हैं, लिहाजा यह पोस्ट प्रकाशित की जा रही है । इस पोस्ट का मकसद किसी की भावनाओं को आहत करना नहीं है, बल्कि उन लोगों को जलील करने की कोशिश करना है जिनके बारे में यह पोस्ट लिखी गई है। 

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फिर भी पत्रकारिता एक संभावना है!

मध्य प्रदेश यानी ‘व्यापमं प्रदेश’ की सरकार ने पत्रकारों के नाम पर करीब तीन सौ लोगों को भोपाल में अत्यंत सस्ती दरों पर आवासीय भूखंड आबंटित किए हैं। सार्वजनिक हुई लाभार्थियों की सूची में कुछ सुपात्र भी हैं और वे कुपात्र भी, जो बेशर्मी के साथ पत्रकारिता के नाम पर सत्ता की दलाली में लगे हुए हैं। बहरहाल, यह खबर कतई चौंकाती नहीं है बल्कि इस बात की तसदीक करती है मध्य प्रदेश में सत्ता और पत्रकारिता का आपराधिक गठजोड़ न सिर्फ कायम है बल्कि निरंतर फल-फूल रहा है।

जिन लोगों ने ये भूखंड प्राप्त किए हैं, उनमें नवभारत के मालिक सुमित माहेश्वरी, दैनिक जागरण के मालिक राजीव मोहन गुप्त, दैनिक नईदुनिया के मालिक त्रय राजेंद्र तिवारी, सुरेंद्र तिवारी, विश्वास तिवारी और दैनिक स्वदेश के मालिक राजेंद्र शर्मा के साथ ही कुछ अन्य अखबार मालिक तथा उमेश त्रिवेदी, श्रवण गर्ग, अरुण पटेल, अभिलाष खांडेकर और इसी तरह के कुछ अन्य लोगों के नाम भी शामिल हैं जो पत्रकारिता से ज्यादा दूसरे कामों के लिए जाने-पहचाने जाते हैं।

ये उन लोगों के नाम हैं, जो दलाली से सनी मध्य प्रदेश की अखबारी मंडी और पत्रकारिता के प्रतिनिधि चेहरे हैं, जो भ्रष्ट राजनेताओं और नाकाबिल नौकरशाहों के इर्द-गिर्द अपनी कलम के काले अक्षरों से अक्सर चंवर डुलाते रहते हैं। हालांकि इस जमात में कुछ ऐसे भी हैं जो पढ़ने-लिखने के मामले में प्रचंड प्रतिभाविहीन हैं लेकिन दलाली के काम में इतने प्रतिभाशाली हैं कि कुछ बड़े अखबारों ने उनकी इसी काबिलियत का कायल होकर उन्हें अपने यहां ऊंचे पदनाम और मोटी तनख्वाह पर रखा हुआ है।

वैसे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पत्रकारों के नाम पर इन दलालों को उपकृत कर कोई नया काम नहीं किया है। दरअसल अपने भ्रष्ट कारनामों पर परदा डालने के लिए जमीन के टुकड़ों और सरकारी मकानों से अखबार मालिकों और पत्रकारों का ईमान खरीदने के खेल की शुरुआत अस्सी के दशक में तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह ने की थी। यही नहीं, उन्होंने तो मध्य प्रदेश में फर्जी पत्रकारों की एक नई जमात ही पैदा कर उसे सत्ता की दलाली में लगा दिया था। उस दौर में अर्जुनसिंह के दरबार में मुजरा करने वाली बेगैरत पत्रकारों की इस जमात ने अर्जुनसिंह को ‘संवेदनशील मुख्यमंत्री’ का खिताब अता किया था। इस ‘संवेदनशील मुख्यमंत्री’ ने अपनी ‘संवेदना’ के छींटे सिर्फ मध्य प्रदेश के पत्रकारों पर ही नहीं, बल्कि दिल्ली में रहकर सत्ता की दलाली करने वाले कुछ दोयम दर्जे के साहित्यकारों और पत्रकारों पर भी डाले थे और उन्हें इंदौर व भोपाल जैसे शहरों में जमीन के टुकड़े आबंटित किए थे।

अपने राजनीतिक हरम की इन्हीं बांदियों की मदद से अर्जुनसिंह चुरहट लाटरी, तेंदूपत्ता और आसवनी कांड जैसे कुख्यात कारनामों को दफनाने में कामयाब रहे थे। इतना ही नहीं, 20 हजार से ज्यादा लोगों का हत्यारा भोपाल गैस कांड भी अर्जुनसिंह का बाल बांका नहीं कर पाया था। अर्जुनसिंह अपने इन कृपापात्र/पालतू दलालों का इस्तेमाल अपने राजनीतिक विरोधियों की छवि मलिन करने और उन्हें ठिकाने लगाने में भी किया करते थे।

अर्जुनसिंह के नक्श-ए-कदम पर चलते हुए शिवराज सिंह भी अखबार वालों को साधकर ‘व्यापमं’ जैसे खूंखार कांड तथा ऐसे ही कई अन्य मामलों को दफनाने में लगभग कामयाब रहे हैं। उनके द्वारा उपकृत किए गए पत्रकारों की सूची में कुछ नाम तो ऐसे भी हैं, जो निजी मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज के परोक्ष-अपरोक्ष रुप से संचालक हैं और इस नाते खुद भी ‘व्यापमं’ में भागीदार रहे हैं। कुछ ने तो व्यापमं की कमाई से अपना ही अखबार शुरू कर दिया है। कुछ नाम ऐसे भी हैं जिनका भूमि से अनुराग बहुत पुराना है। उन्होंने अपने इसी भूमि-प्रेम के चलते पिछले चार दशक के दौरान अपवाद स्वरुप एक-दो को छोड़कर लगभग सभी मुख्यमंत्रियों से सरकारी मकान और जमीन के टुकड़े ही नहीं बल्कि दूसरी तरह की और भी कई इनायतें हासिल की हैं।

अब चूंकि मीडिया संस्थानों में कारपोरेट संस्कृति के प्रवेश के बाद अहंकारी, मूर्ख, नाकारा, क्रूर और परपीड़क संपादकों और संपादकनुमा दूसरे चापलूस कारकूनों के साथ किसी भी काबिल, ईमानदार और पेशेवर व्यक्ति का खुद्दारी के साथ काम करना आसान नहीं रह गया है, यानी नौकरी पर अनिश्चितता की तलवार हमेशा लटकी रहती है। लिहाजा मीडिया संस्थानों में साधारण वेतन पर ईमानदारी और प्रतिबद्धता के साथ काम रहे पत्रकारों को सरकार अगर रियायती दरों पर भूखंड देती है तो इस पर शायद ही किसी को ऐतराज होगा। होना भी नहीं चाहिए, लेकिन इन्हीं मीडिया संस्थानों में दो से तीन लाख रुपए महीने तक की तनख्वाह पाने वाले धंधेबाजों और प्रबंधन के आदेश पर घटिया से घटिया काम करने को तत्पर रहने वालों को सरकार से औने-पौने दामों पर भूखंड क्यों मिलना चाहिए?

मैं कुछ ऐसे भू-संपदा प्रेमी पत्रकारों यानी दलालों को जानता हूं जिन्होंने अपने कॅरिअर के दौरान मध्य प्रदेश और देश के अन्य हिस्सों में, जिस-जिस शहर में काम किया वहां-वहां पत्रकारिता से इतर अपनी दीगर प्रतिभा के दम पर अचल संपत्ति अर्जित की है और मध्य प्रदेश सरकार से भी लाखों की जमीन कौड़ियों के मोल लेने में कोई संकोच नहीं दिखाया है। ऐसे ‘महानुभाव’ जब किसी राजनीतिक व्यक्ति के घपले-घोटाले पर कुछ लिखते हुए या सार्वजनिक कार्यक्रम के मंच से नैतिकता और ईमानदारी की बात करते दिखते हैं तो उनमें सिर्फ और सिर्फ आसाराम, गुरमीत राम रहीम, नित्यानंद, रामदेव, रविशंकर, जग्गी वासुदेव जैसे लम्पटों और धंधेबाज बाबाओं की छवि नजर आती है।

हालांकि पत्रकारिता के इस पतन को सिर्फ मध्य प्रदेश के संदर्भ में ही नहीं देखा जाना चाहिए, यह अखिल भारतीय परिघटना है। नवउदारीकरण यानी बाजारवादी अर्थव्यवस्था ने हमारे सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों पर प्रतिकूल असर डाला है। पत्रकारिता भी उनमें से ऐसा ही एक क्षेत्र है। इसलिए ऐसी पतनशील प्रवृत्तियों को विकसित होते देखने के लिए हम अभिशप्त हैं। लेकिन इस अभिशाप के बावजूद पत्रकारिता अब भी एक संभावना है।

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