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विश्व आदिवासी दिवस पर विशेष…तुम्हें अपने आदमी होने की: खोजनी होगी परिभाषा

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सुसंस्कृति परिहार

 विश्व  आदिवासी दिवस  इस बार भारत-वर्ष में विशेष उत्साह और उमंग से मनाया जा रहा है क्योंकि हाल ही में उड़ीसा के संथाल आदिवासी समाज की एक महिला श्रीमती द्रौपदी मुर्मू  राष्ट्रपति बनी है। यूं तो आदिवासी समाज में अमूमन हर  रात नाच गान से भरी होती रही है। वे कभी कभी तो तमाम रात समूह नाच गान में गुज़ार देते हैं।खासकर बैगा जनजाति में यह दृश्य उनके गांवों में जाकर आज भी देख सकते हैं।मादल की धुन पर नाचते गाते महिला पुरुष निर्विकार रुप से अपनी दिन भर की थकान दूर करते हैं।सुबह फिर काम में जुट जाते हैं।अबकी बार सरकारी पहल पर आदिवासी समाज में यह दिवस बड़े पैमाने पर मनाया जाने वाला है।वे इस खुशी को किस अंदाज में लेंगे ये तो बाद में पता चलेगा?

बहरहाल, आदिवासी समाज में व्याप्त इस रोजाना मनोरंजन की पड़ताल ज़रुरी है।क्या वे इतने खुश हैं कि उन्हें किसी सरकारी सुविधाओं की ज़रूरत नहीं।

उन्होंने सरकार से क्या कभी कुछ मांगा है।शायद नहीं।ऐसा क्यों है जब इस प्रश्न को हम जानने की कोशिश करते हैं तो साफ तौर पर यह सच सामने आता है कि आदिवासी समाज प्राकृतिक उपादानों के बीच अपने आपको सुरक्षित और सुखी महसूस करता रहा है। अंग्रेज़ी शासन काल में जब उनके जंगलों से छेड़छाड़ की कोशिश हुई तो उन्होंने अपनी ‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌तरह से प्रतिकार किया और अपनी भूमि और जंगल को काफी हद तक सुरक्षित किया।इसके लिए सन् 1780 से सन् 1857 तक आदिवासियों ने अनेकों स्वतंत्रता आन्दोलन किए। सन् 1780 का “दामिन विद्रोह” जो तिलका मांझी ने चलाया, सन् 1855 का “सिहू कान्हू विद्रोह”, सन् 1828 से 1832 तक बुधू भगत द्वारा चलाया गया “लरका आन्दोलन” बहुत प्रसिद्ध आदिवासी आन्दोलन हैं। इतिहास में इन आन्दोलनों का कहीं जिक्र तक नहीं है उल गुलान तक ही उन्हें सीमित कर दिया गया है। हज़ारों आदिवासी क्रान्तिवीरों जिन्होंने अंग्रेजों से लड़ते हुए प्राण गंवाएं उनका भी इतिहास में वर्णन जरूरी है।छत्तीसगढ़ का प्रथम शहीद वीर नारायण सिंह 1857 में शहीद हुआ. मध्य प्रदेश के निमाड़ का पहला विद्रोही भील तांतिया उर्फ टंटिया मामा सन् 1888 में शहीद हुआ। इसी तरह आदिवासी युग पुरूष बिरसा मुण्डा सन् 1900 में शहीद हुआ। जेल में ही उसकी मृत्यु हो गई। सन् 1913 में हुए मानगढ़ आन्दोलन के नायक गोविन्द गुरू का भी इतिहास में कहीं उल्लेख तक नहीं है. इतिहासकारों ने दलितों और आदिवासियों को इतिहास में बहुत मे कम स्थान दिया।आजकल ज़रुर आजादी के अमृत काल मेंउनके चर्चे जोर शोर से चल रहे हैं।उनके इतिहास खंगालने की बात हो रही है।

दुख की बात यह है कि जिन लोगों ने अंग्रेजों से अपने जंगल और अन्य संसाधन अपनी जान कुर्बान कर बचाए उन पर आज़ादी के बाद पूंजीपतियों ने सरकारी संरक्षण में जिस तरह कब्ज़ा किया उसने आदिवासियो की जीवनधारा को बदल के रख दिया। जिन्हें हम नक्सली या देशद्रोही मानते हैं ये वही लोग जो अपनी धरती से प्यार करते हैं और उसे किसी को लूटने के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध लड़ते हैं ।वे लूटने वाले की मदद करने वालों को भी जान से मार डालते हैं। पुलिस और अधिकारी उनके निशाने पर होते हैं। आदिवासी समाज की इस पीड़ा को ना तो आदिवासी सांसद और विधायक सदनों में कभी रख  पाए और ना उनके पक्ष में खड़े हुए। जिससे मामला उलझता गया और सरकार निर्दोष आदिवासियों को मार कर खानापूर्ति करने लगी।तब सामाजिक कार्यकर्ता इस क्षेत्र में प्रवेश करते हैं । वे असलियत सामने लाते हैं किन्तु अफसोस इस बात का है कि  वेणुगोपाल,बारवर राव से लेकर एडवोकेट सुधा भारद्वाज,प्रो नंदिनी सुंदर और हिमांशु कुमार जैसे समाजसेवी लोगों पर राजद्रोह जैसे मामले दर्ज हो जाते हैं उन्हें नक्सली कहा जाता है।वस्तुत: यहां लुटेरों और सरकार का खेल चल रहा है जिससे वहां आदिवासियों के शोषण का कुचक्र चरम पर है।  आदिवासी युवतियो का शोषण भी यहां इतने बड़े पैमाने पर है कि वह झकझोर के रख देता है । युवतियों के यौन उत्पीड़न पर दुमका झारखंड की प्रसिद्ध कवियित्री निर्मला पुतुल को कहना पड़ा-

 -धनकटनी में खाली पेट बंगाल गई/पड़ौस की बुधनी/किसका पेट सजाकर लौटी है गांव में। शोषण इस हद तक बढ़ा है कि

वे आज की तारीख में ये कहने भी मज़बूर  हैं —आज की तारीख के साथ/कि गिरेंगी जितनी बूँदें लहू की धरती पर/उतनी ही जन्मेंगी निर्मला पुतुल/हवा में मुट्ठी बाँधे हाथ लहराते हुए। काश!उनकी यह बात भविष्य में नज़र आए।

उधर आज़ादी के बाद उन्हें मूल धारा से जोड़ने के लिए सरकार द्वारा आरक्षण की व्यवस्था नौकरियों से लेकर राजनीति तक में की गई।इसके अलावा उन्हें शिक्षित करने ,कमतर ब्याजदर पर श्रृण और आर्थिक मदद देकर उन्हें स्वावलंबी बनाने के प्रयास किए गए किन्तु भोले-भाले आदिवासी सांसद , विधायक और मंत्री अपने क्षेत्र विकास में कभी सक्रिय नज़र नहीं आए।अब राष्ट्रपति महोदया को ही देखिए उनके गांव में बिजली भी नहीं पहुंच पाई। इसके पीछे मूलभावना यही नज़र आती है कि वे शहरी सभ्यता की इन तमाम सुविधाओं से बेहतर अपनी प्रकृति प्रदत्त सुविधाओं को मानते हैं उनमें जीते हैं और आनंदित रहते हैं। उनकी अपनी कम आवश्यकताएं हैं जो प्रकृति से पूरी हो जाती हैं। इसीलिए संभवतः वे सक्रिय नहीं हुए। यहां यह बात भी सामने आई है कि आमतौर पर जो मूलधारा में शामिल हुए उन्होंने पीछे मुड़कर कभी अपने समाज को महत्व नहीं दिया।

आज स्थितियां बदल रही हैं उनके पढ़े-लिखे समाज ने अब अपने लेखन  के ज़रिए समाज की पीड़ाओं से दो-चार कराने का बीड़ा उठाया है। आदिवासी समाज से जो रचनाकार सामने आए  हैं उनका लेखन उनके अनुभवों पर आधारित उस दर्द की जीवंत व्याख्या से दो चार कराता है। निर्मला पुतुल तो इनकी आवाज बनकर मुखर हुई हैं, वंदना टेटे और जसिंता केरकेट्टा के स्वर भी किसी तूफानी वेग से कम नहीं ।यह संचित आक्रोश हरिराम मीणा, महादेव टोप्पो, अनुज लुगुन में भी देखे जा सकते हैं जो इस बात को पुष्ट कर रहे हैं कि समाज जाग रहा है लेकिन चंद लोगों की आवाज सुदूर अंचल में जब तक नहीं पहुंचती तब तक सुबह का इंतजार बेमानी होगा।

 अपनी संस्कृति को बचाते हुए आदिवासी नई कथित मूलधारा से जुड़ें इसके लिए यह भी आवश्यक है कि उनकी पीड़ाओं को समझा जाए।उनका शोषण बंद हो।उनका प्राकृतिक आवास और वहां का कलरवभरा साथ ना छीना जाए।वह उनकी जान हैं।जब से जंगल में शिकार पर प्रतिबंध लगा है वह अपनी प्रकृति प्रदत्त खुराक से वंचित हुए सिर्फ कुकरा और मछलियां ही उनकी खुराक में शामिल हैं।उनका रहना , प्रकृति संरक्षण के लिए ज़रुरी है जड़ी बूटियों का जितना ज्ञान उनके पास वह भी संरक्षित रहेगा।उनको लुटेरों से बचाने का बीड़ा भी उठाना होगा।

  अंत में कवि महादेव टोप्पो की ये पंक्तियां जिनमें वे आदिवासी समाज का  आव्हान करते हुए लिखते हैं कि आदिवासी अब लड़ेगा भी, पढ़ेगा भी और सोचेगा भी। उन्हें अपने जल जंगल जमीन और अपना जमीर बचाने आगे आना होगा ।उनकी कविता ‘रचने होंगे ग्रंथ’ इसी भाव-भूमि को सामने लाती है- 

“तुम्हें अपने आदमी होने की/खोजनी होगी परिभाषा/उनके सिद्धांतों, स्थापनाओं मंतव्यों के विरुद्ध/उनके बर्बर वैचारिक हमलों के विरुद्ध/रचनेहोंगे/स्वयं ग्रंथ ।’

यह कविता विश्वास और निर्णय पर विराम लेती है।

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